इसका पैमाना, मीटर या तराजू हर मामले की तरह कुरआन और हदीस ही हैं , पवित्र क़ुरआन हमे स्वयं को ‘‘मुस्लिम’’ कहने का आदेश देता है
यह सत्य है कि आज के मुसलमान आपस में ही बंटे हुए हैं। दुख की बात यह है कि इस प्रकार के अलगाव की इस्लाम में कोई अनुमति नहीं है। इस्लाम इस बात पर ज़ोर देता है कि उसके अनुयायियों में परस्पर एकता को बरक़रार रखा जाए।
पवित्र क़ुरआन का स्पष्ट आदेश हैः
सभी मुसलमानों को पवित्र क़ुरआन और प्रामाणिक हदीसों का ही अनुकरण करना चाहिए और आपस में फूट नहीं डालनी चाहिए। इस्लाम में समुदायों और अलगाव की मनाही है पवित्र क़ुरआन का आदेश हैः
इस पवित्र आयत से यह स्पष्ट होता है कि अल्लाह तआला ने हमें उन लोगों से अलग रहने का आदेश दिया है जो दीन में विभाजन करते हों और समुदायों में बाँटते हों। किन्तु आज जब किसी मुसलमान से पूछा जाए कि ‘‘तुम कौन हो?’’ तो सामान्य रूप से कुछ ऐसे उत्तर मिलते हैं, ‘‘मैं सुन्नी हूँ, मैं शिया हूँ, ’’इत्यादि। कुछ लोग स्वयं को हनफ़ी, शाफ़ई, मालिकी और हम्बली भी कहते हैं, कुछ लोग कहते हैं ‘‘मैं देवबन्दी, या बरेलवी हूँ।’’
हमारे निकट पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मुस्लिम थे ऐसे मुसलमान से कोई पूछे कि हमारे प्यारे पैग़म्बर (सल्लॉ) कौन थे? क्या वह हन्फ़ी या शाफ़ई थे। क्या मालिकी या हम्बली थे? नहीं, वह मुसलमान थे। दूसरे सभी पैग़म्बरों की तरह जिन्हें अल्लाह तआला ने उनसे पहले मार्गदर्शन हेतु भेजा था।
पवित्र क़ुरआन की सूरह 3, आयत 25 में स्पष्ट किया गया है कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम भी मुसलमान ही थे। इसी पवित्र सूरह की 67वीं आयत में पवित्र क़ुरआन बताता है कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम कोई यहूदी या ईसाई नहीं थे बल्कि वह ‘‘मुस्लिम’’ थे।
पवित्र क़ुरआन हमे स्वयं को ‘‘मुस्लिम’’ कहने का आदेश देता है
यदि कोई व्यक्ति एक मुसलमान से प्रश्न करे कि वह कौन है तो उत्तर में उसे कहना चाहिए कि वह मुसलमान है, हनफ़ी अथवा शाफ़ई नहीं। पवित्र क़ुरआन में अल्लाह तआला का फ़रमान हैः
हमें इस्लाम के समस्त उलेमा का, चारों इमामों सहित अनिवार्य रूप से सम्मान करना चाहिए। इमाम अबू हनीफ़ा (रहमतुल्लाहि अलैहि), इमाम शफ़ई (रह.), इमाम हम्बल (रह.) और ईमाम मालिक (रह.), ये सभी हमारे लिए समान रूप से आदर के पात्र हैं। ये सभी महान उलेमा और विद्वान थे और अल्लाह तआला उन्हें उनकी दीनी सेवाओं का महान प्रतिफल प्रदान करे (आमीन) इस बात पर कोई आपत्ति नहीं कि अगर कोई व्यक्ति इन इमामों में से किसी एक की विचारधारा से सहमत हो। किन्तु जब पूछा जाए कि तुम कौन हो? तो जवाब केवल ‘‘मैं मुसलमान हूँ’’ ही होना चाहिए।
कुछ लोग फ़िरके (समुदायों) के तर्क में हुजूर (सल्ल.) की एक हदीस पेश करते हैं जो सुनन अबू दाऊद में (हदीस नम्बर (4597) में बयान की गई है जिसमें आप (सल्ल.) का यह कथन बताया गया है कि ‘‘मेरी उम्मत 73 फ़िरकों (गिरोहों) में बंट जाएगी।’’ (देखें नीचा दिया गया चित्र)
इस हदीस से स्पष्ट होता है कि रसूल अल्लाह (सल्लॉ) ने मुसलमानों में 73 फ़िरके बनने की भाविष्यवाणी फ़रमाई थी। लेकिन आप (सल्ल.) ने यह कदापि नहीं फ़रमाया कि मुसलमानों को फ़िरकों में बंट जाने में संलग्न हो जाना चाहिए। पवित्र क़ुरआन हमें यह आदेश देता है कि हम फ़िरके में विभाजित न हों। वे लोग जो पवित्र क़ुरआन और सच्ची हदीसों की शिक्षा में विश्वास रखते हों और फ़िरके और गुट न बनाएं वही सीधे रास्ते पर हैं।
पवित्र क़ुरआन की अनेक आयतों में अल्लाह और अल्लाह के रसूल के आज्ञा पालन का आदेश दिया गया है। अतः एक सच्चे मुसलमान को पवित्र क़ुरआन और हदीस शरीफ़ का ही अनुकरण करना चाहिए। वह किसी भी आलिम (धार्मिक विद्वान) के दृष्टिकोण से सहमत भी हो सकता है जब कि उसका दृष्टिकोण पवित्र क़ुरआन और हदीस शरीफ़ के अनुसार हो। यदि उस आलिम के विचार पवित्र क़ुरआन और हदीस के विपरीत हों तो उनका कोई अर्थ और महत्व नहीं, चाहे उन विचारों का प्रस्तुतकर्ता कितना ही बड़ा विद्वान क्यों न हो।
यदि तमाम मुसलमान पवित्र क़ुरआन का अध्ययन पूरी तरह समझकर ही कर लें और मुस्तनद (प्रामाणिक) हदीसों का अनुकरण करें तो अल्लाह ने चाहा तो सभी परस्पर विरोधाभास समाप्त हो जाएंगे और एक बार फिर मुस्लिम समाज एक संयुक्त संगठित उम्मत बन जाएगा।
Thanks : Dr. Z. N.
WHY ARE MUSLIMS DIVIDED INTO SECTS (DIFFERENT SCHOOLS OF THOUGHT
http://www.ilovezakirnaik.com/misconceptions/a16.htm
मशहूर हदीस,उर्द और अरबी में इधर है इसके इंग्लिश वर्जन की मुझे तलाश है
सुनन अबू दाऊद में chapter 40 हदीस नम्बर 4597)
यह सत्य है कि आज के मुसलमान आपस में ही बंटे हुए हैं। दुख की बात यह है कि इस प्रकार के अलगाव की इस्लाम में कोई अनुमति नहीं है। इस्लाम इस बात पर ज़ोर देता है कि उसके अनुयायियों में परस्पर एकता को बरक़रार रखा जाए।
‘‘सब मिलकर अल्लाह की रस्सी को मज़बूत पकड़ लो और अलगाव में न पड़ो।’’ (पवित्र क़ुरआन 3:103)वह कौन सी रस्सी है जिसकी ओर इस पवित्र आयत में अल्लाह तआला ने इशारा किया है। पवित्र क़ुरआन ही वह रस्सी है, यही अल्लाह की वह रस्सी है जिसे समस्त मुसलमानों को मज़बूती से थामे रहना चाहि। इस पवित्र आयत में दोहरा आग्रह है, एक ओर यह आदेश दिया गया है कि अल्लाह की रस्सी को ‘‘मज़बूती से थामे रखें’’ तो दूसरी ओर यह आदेश भी है कि अलगाव में न पड़ो (एकजुट रहो)।
पवित्र क़ुरआन का स्पष्ट आदेश हैः
‘‘हे लोगो! जो ईमान लाए हो, आज्ञापालन करो अल्लाह का, और आज्ञापालन करो रसूल (सल्ल.) का, और उन लोगों का जो तुम में साहिब-ए-अम्र (अधिकारिक) हों फिर तुम्हारे बीच किसी मामले में विवाद हो जाए तो उसे अल्लाह और रसूल की ओर फेर दो, यदि तुम वास्तव में अल्लाह और अंतिम दिन (कियामत) पर ईमान रखते हो। यही एक सीधा तरीका है और परिणाम की दृष्टि से भी उत्तम है।’’ (पवित्र क़ुरआन , 4:59)
सभी मुसलमानों को पवित्र क़ुरआन और प्रामाणिक हदीसों का ही अनुकरण करना चाहिए और आपस में फूट नहीं डालनी चाहिए। इस्लाम में समुदायों और अलगाव की मनाही है पवित्र क़ुरआन का आदेश हैः
जिन लोगों ने अपने धर्म के टुकड़े-टुकड़े कर दिए और स्वयं गिरोहों में बँट गए, तुम्हारा उनसे कोई सम्बन्ध नहीं। उनका मामला तो बस अल्लाह के हवाले है। फिर वह उन्हें बता देगा जो कुछ वे किया करते थे (क़ुरआन , 6:159)
Indeed, those who have divided their religion and become sects - you, [O Muhammad], are not [associated] with them in anything. Their affair is only [left] to Allah; then He will inform them about what they used to do. (Quran-6:159)
tanzil.net/#trans/hi.farooq/6:159
इस पवित्र आयत से यह स्पष्ट होता है कि अल्लाह तआला ने हमें उन लोगों से अलग रहने का आदेश दिया है जो दीन में विभाजन करते हों और समुदायों में बाँटते हों। किन्तु आज जब किसी मुसलमान से पूछा जाए कि ‘‘तुम कौन हो?’’ तो सामान्य रूप से कुछ ऐसे उत्तर मिलते हैं, ‘‘मैं सुन्नी हूँ, मैं शिया हूँ, ’’इत्यादि। कुछ लोग स्वयं को हनफ़ी, शाफ़ई, मालिकी और हम्बली भी कहते हैं, कुछ लोग कहते हैं ‘‘मैं देवबन्दी, या बरेलवी हूँ।’’
हमारे निकट पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मुस्लिम थे ऐसे मुसलमान से कोई पूछे कि हमारे प्यारे पैग़म्बर (सल्लॉ) कौन थे? क्या वह हन्फ़ी या शाफ़ई थे। क्या मालिकी या हम्बली थे? नहीं, वह मुसलमान थे। दूसरे सभी पैग़म्बरों की तरह जिन्हें अल्लाह तआला ने उनसे पहले मार्गदर्शन हेतु भेजा था।
पवित्र क़ुरआन की सूरह 3, आयत 25 में स्पष्ट किया गया है कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम भी मुसलमान ही थे। इसी पवित्र सूरह की 67वीं आयत में पवित्र क़ुरआन बताता है कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम कोई यहूदी या ईसाई नहीं थे बल्कि वह ‘‘मुस्लिम’’ थे।
पवित्र क़ुरआन हमे स्वयं को ‘‘मुस्लिम’’ कहने का आदेश देता है
यदि कोई व्यक्ति एक मुसलमान से प्रश्न करे कि वह कौन है तो उत्तर में उसे कहना चाहिए कि वह मुसलमान है, हनफ़ी अथवा शाफ़ई नहीं। पवित्र क़ुरआन में अल्लाह तआला का फ़रमान हैः
‘‘और उस व्यक्ति से अच्छी बात और किसकी होगी जिसने अल्लाह की तरफ़ बुलाया और नेक अमल (सद्कर्म) किया और कहा कि मैं मुसलमान हूँ।’’ (पवित्र क़ुरआन , 41ः33)ज्ञातव्य है कि यहाँ पवित्र क़ुरआन कह रहा है कि ‘‘कहो, मैं उनमें से हूँ जो इस्लाम में झुकते हैं,’’ दूसरे शब्दों में ‘‘कहो, मैं एक मुसलमान हूँ।’’हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जब ग़ैर मुस्लिम बादशाहों को इस्लाम का निमंत्रण देने के लिए पत्र लिखवाते थे तो उन पत्रों में सूरह आल इमरान की 64 वीं आयत भी लिखवाते थेः
‘‘हे नबी! कहो, हे किताब वालो, आओ एक ऐसी बात की ओर जो हमारे और तुम्हारे बीच समान है। यह कि हम अल्लाह के सिवाए किसी की बन्दगी न करें, उसके साथ किसी को शरीक न ठहराएं, और हममें से कोई अल्लाह के सिवाए किसी को अपना रब (उपास्य) न बना ले। इस दावत को स्वीकार करने से यदि वे मुँह मोड़ें तो साफ़ कह दो, कि गवाह रहो, हम तो मुस्लिम (केवल अल्लाह की बन्दगी करने वाले) हैं।’’ Quran 3 :64इस्लाम के सभी महान उलेमा का सम्मान कीजिए
हमें इस्लाम के समस्त उलेमा का, चारों इमामों सहित अनिवार्य रूप से सम्मान करना चाहिए। इमाम अबू हनीफ़ा (रहमतुल्लाहि अलैहि), इमाम शफ़ई (रह.), इमाम हम्बल (रह.) और ईमाम मालिक (रह.), ये सभी हमारे लिए समान रूप से आदर के पात्र हैं। ये सभी महान उलेमा और विद्वान थे और अल्लाह तआला उन्हें उनकी दीनी सेवाओं का महान प्रतिफल प्रदान करे (आमीन) इस बात पर कोई आपत्ति नहीं कि अगर कोई व्यक्ति इन इमामों में से किसी एक की विचारधारा से सहमत हो। किन्तु जब पूछा जाए कि तुम कौन हो? तो जवाब केवल ‘‘मैं मुसलमान हूँ’’ ही होना चाहिए।
कुछ लोग फ़िरके (समुदायों) के तर्क में हुजूर (सल्ल.) की एक हदीस पेश करते हैं जो सुनन अबू दाऊद में (हदीस नम्बर (4597) में बयान की गई है जिसमें आप (सल्ल.) का यह कथन बताया गया है कि ‘‘मेरी उम्मत 73 फ़िरकों (गिरोहों) में बंट जाएगी।’’ (देखें नीचा दिया गया चित्र)
इस हदीस से स्पष्ट होता है कि रसूल अल्लाह (सल्लॉ) ने मुसलमानों में 73 फ़िरके बनने की भाविष्यवाणी फ़रमाई थी। लेकिन आप (सल्ल.) ने यह कदापि नहीं फ़रमाया कि मुसलमानों को फ़िरकों में बंट जाने में संलग्न हो जाना चाहिए। पवित्र क़ुरआन हमें यह आदेश देता है कि हम फ़िरके में विभाजित न हों। वे लोग जो पवित्र क़ुरआन और सच्ची हदीसों की शिक्षा में विश्वास रखते हों और फ़िरके और गुट न बनाएं वही सीधे रास्ते पर हैं।
तिर्मिज़ी शरीफ़ की 171 वीं हदीस के अनुसार हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है कि ‘‘मेरी उम्मत 73 फ़िरकों में बंट जाएगी, और वे सब जहन्नम की आग में जलेंगे, सिवाए एक फिरके के...।’’सहाबा किराम (रज़ि.) ने इस पर रसूल अल्लाह (सल्ल.) से प्रश्न किया कि वह कौन सा समूह होगा (जो जन्नत में जाएगा) तो आप (सल्ल.) ने जवाब दिया ‘‘केवल वह जो मेरे और मेरे सहाबा का अनुकरण करेगा।’’
According to Tirmidhi Hadith No. 171,the prophet (pbuh) is reported to have said, "My Ummah will be fragmented into seventy-three sects, and all of them will be in Hell fire except one sect." The companions asked Allah’s messenger which group that would be. Where upon he replied, "It is the one to which I and my companions belong."
पवित्र क़ुरआन की अनेक आयतों में अल्लाह और अल्लाह के रसूल के आज्ञा पालन का आदेश दिया गया है। अतः एक सच्चे मुसलमान को पवित्र क़ुरआन और हदीस शरीफ़ का ही अनुकरण करना चाहिए। वह किसी भी आलिम (धार्मिक विद्वान) के दृष्टिकोण से सहमत भी हो सकता है जब कि उसका दृष्टिकोण पवित्र क़ुरआन और हदीस शरीफ़ के अनुसार हो। यदि उस आलिम के विचार पवित्र क़ुरआन और हदीस के विपरीत हों तो उनका कोई अर्थ और महत्व नहीं, चाहे उन विचारों का प्रस्तुतकर्ता कितना ही बड़ा विद्वान क्यों न हो।
यदि तमाम मुसलमान पवित्र क़ुरआन का अध्ययन पूरी तरह समझकर ही कर लें और मुस्तनद (प्रामाणिक) हदीसों का अनुकरण करें तो अल्लाह ने चाहा तो सभी परस्पर विरोधाभास समाप्त हो जाएंगे और एक बार फिर मुस्लिम समाज एक संयुक्त संगठित उम्मत बन जाएगा।
Thanks : Dr. Z. N.
WHY ARE MUSLIMS DIVIDED INTO SECTS (DIFFERENT SCHOOLS OF THOUGHT
http://www.ilovezakirnaik.com/misconceptions/a16.htm
मशहूर हदीस,उर्द और अरबी में इधर है इसके इंग्लिश वर्जन की मुझे तलाश है
सुनन अबू दाऊद में chapter 40 हदीस नम्बर 4597)