Wednesday, April 24, 2013

आर्यवर्त शब्‍द पर गर्व करें या कलंक समझें

विकिपीडिया के अनुसार प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में 'उत्तरी भारत' को आर्यावर्त (शाब्दिक अर्थ : आर्यों का निवासस्थान) कहा गया है। मनु ने ऐसे लिखा है-
आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुदात्तु , पश्चिमात् 
तयोरेवान्‍तरं गिर्योरार्यावर्तं विदुर्बुधाः --मनु 2-22
अर्थात पूर्वी समुद्र तथा पश्चिमी समुद्र और हिमालय तथा विंध्‍य के मध्‍य स्थित प्रदेश को विद्वान लोग 'आर्यवर्त' कहते हैं
Āryāvarta[pronunciation?] (Sanskrit: आर्यावर्त, "abode of the Aryans") is a name for Northern India in classical Sanskrit literature. The Manu Smriti (2.22) gives the name to "the tract between the Himalaya and the Vindhya ranges, from the eastern to the Western Sea".

एतान द्विजातयो देशान् संश्रयेरन प्रयत्‍नतः
शुद्रस्‍तु यस्मिन् कस्मिन् वा निवसेद व्रतिकार्शितः----मनु 2-24

अर्थात द्विज (ब्राह्मण, क्ष्‍ात्रीय और वैश्‍य) इन्‍हीं देशों में निवास करें, हां, शुद्र आजीविका के लिए अन्‍यत्र भी निवास कर सकता है

दक्षिण भारत की निंदा

मनु ने स्‍पष्‍ट तौर पर दक्षिण भारत को 'म्‍लेच्‍छ देश' कहा है, क्‍योंकि विंध के उस पार के इलाके को उसने आर्यवर्त की सीमा में नहीं माना और वहां द्विजों (ब्राह्मण, क्ष्‍ात्रीय और वैश्‍य) को न बसने की सीख दी है

बौद्धायण ऋषि का आदेश है
सिंधुसौवीर सौराष्‍ट्रंस्‍तथाप्रत्‍ययंतवासिन
अंगवंगकलिंगांश्‍च गत्‍वा संस्‍कारमर्हति
--बौद्धायण , निर्णयसिंधु पृ 202 से उदधृत

अर्थात सिंधु, सौवीर, काठियावाड, सीमांत प्रदेश, अंग (कौशिकी कच्‍छ के उत्तरी और गंगा के दक्षिणी किनारे पर आधुनिक भागलपुर के पास का इलाका) पूर्वी बंगाल और कलिंग में जाने पर आदमी अपवित्र हो जाता है, अतः उसका यज्ञोपवीत संस्‍कार फिर से होना चाहिए

धर्मशास्‍त्र 'देवल स्‍मृति में कहा गया है-
त्रिशंकुं वर्जवेद देशं सर्वं द्वादशयोजनम
उत्‍तरेण महानद्या दक्षिणेन नु कीकटम - देवल स्‍मृति, 4

अर्थात त्रि‍शंकु देश में न जाए जो 12 योजन (109 मील) तक फैला हुआ है, जो महानदी के उत्तर में और कीकट (दक्षिण बिहार) के दक्षिण में है


पूर्वी बंगाल में जा कर आदमी अपवित्र हो जाता हैः

सिंधु-सौवीर-सौराष्‍ट्र-तथा प्रत्‍यन्‍तवासिन-
कलिंगकौंकणान वंगान गत्‍वा संस्‍कारमर्हति  - देवल स्‍मृति 16
अर्थात सिंधु प्रदेश, सौवीर प्रदेश, काठियावाड, सीमा प्रदेश, कलिंग, कोंकण (केरल, तुलंग, सौराष्‍ट्रवासी, कोंकण, करकट, कर्नाटक, बर्बर आदि सात प्रदेश) और पूर्वी बंगाल में जा कर आदमी अपवित्र हो जाता है, अतः उस का संस्‍कार (शुद्धिकरण) करना चाहिए

आर्यावर्तसमुत्‍पन्‍नो द्विजो व यदि वाऽद्विजः
कर्मदा सिंधुपारं च करतोयां न लंघयेत्
 आयौवर्तमतिक्रम्य विना तीर्थक्रियां द्विजः
आज्ञां चैव तथा पित्रौरैन्‍दवेन विशध्‍याति
---आदि पुराण, परिभाषाप्रकाश के पृष्‍ठ 59 से उद्धृत

अर्थात आर्यावर्त (पूर्वी तथा पश्चिमी समुद्र और हिमालय तथा विंध्‍य के मध्‍य भूभाग न कि संपूर्ण भारतवर्ष, देखें मनुस्‍मृति 2-22)
के रहने वालों को सिंधु, कर्मनाशा और करतोया नदियों की तीर्थयात्रा को छोडकर वैसे कभी भी पार नहीं करना चाहिए, यिद वे उन्‍हें पार करें तो उन्‍हें चांद्रायणव्रत करना चाहिए

चांद्रायणव्रतः (इसमें 15 दिन उत्तोरोत्तर एक ग्रास घटान होता है और अंतिम दिन निराहार रहना होता है, अगले 15 दिन उत्तरोत्तर एक ग्रास बढाना होता है और अंतिम दिन 15 ग्रास का पूर्ण भोजन करना होता है, इस तरह से यह महीने भर का चक्‍कर होता है)


महाभारत में आर्यशब्‍द और पंजाब की निंदा
पंच नद्यो वहन्‍तयेता यत्र पीलुवनान्‍युता
शतद्रुश्‍च विपाशा च त़तीयैरावती तथा
चंद्रभागा वितस्‍ता च सिंधुषष्‍ठा बहिर्गिर-
आरट्टा नाम ते देशा नष्‍टधर्मा न तान् व्रजेत
पंच नद्यो वहन्‍त्‍येता यत्र नि-सृत्‍य पर्वतात्
आरट्टा नाम वाहीका न तेष्‍वर्यो द्वय् हं वसेत्
--महाभारत, कर्णपर्व 44-31-33, 40-41

अर्थात जहां सतलुज, व्‍यास, इरावती (रावी) चंद्रभागा(चिनाब) वितस्‍ता (झेलम) और छठी सिंधु नदी बहती है, वहां आरट्टा  (जट्ट जाट )लोग रहते हैं वे धर्महीन हैं, वहां व्‍यक्ति न जाए

जहां पर्वत से निकल कर पांच नंदियां बहती हैं , वह आरट्टा  (जाट) नाम के पंजाबियों (वाहीक) का इलाका है, आर्य लोग वहां दो दिन भी न बसें

ब्राह्मणोत्‍पत्तिमार्तंड का कथन है
कर्णाटा निर्दयाश्‍चैव कांकणाश्‍चैव दुर्जनाः
तैलंगा द्रविडाश्‍चैव दयान्‍तो जना भुवि --पृष्‍ठ8

अर्थात कच्‍छ कश्‍मीर, केरल, कर्नाटक, कांबोज, कामरूप, कलिंग, सौराष्‍ट्रादि देशों के लोग अभक्‍त, निर्दय हैं, राक्षस तुल्‍य हैं, तैलंग, द्रविड, दयांत हैं--

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