वन्दे ईश्वरम vande ishwaram अर्थात वंदना करो उसकी, जिसने सारी कायनात (सृष्टि) बनायी,
वन्दे मातरम् एक ऐसा इश्यू है जो सोचे समझे तरीके़ से रह रह कर उठाया जाता है। कान्ति मासिक जुलाई 1999 में प्रकाशित यह लेख आज भी प्रासंगिक है।
अली मियां द्वारा‘ वन्देमातरम्’ के विरोध के कारण भारतीय मुसलमानों को देशद्रोही के रूप में चित्रित किया जा रहा था। जबकि देशद्रोही तो ‘आनन्द मठ’ के लेखक को कहा जाना चाहिए जिसमें अंग्रेज़ों के आगमन पर हर्षित होकर कहा गया कि ‘ अब अंग्रेज़ आ गये हैं, हमारी जान व माल की सुरक्षा होगी।’
जिसके कारण डा. लोहिया ने कहा था कि ‘आनन्द मठ’ उपन्यास हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन पर एक कलंक है।
यह कलंक उस बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा लगाया गया जिसने ‘हाजी मोहसिन फण्ड’ से आर्थिक सहायता पाकर बी. ए. की डिग्री प्राप्त की और वाकार्थ में निपुणता पाते ही मुस्लिम दुश्मनी के प्लॉट पर एक उपन्यास लिख डाला जिसमें नायक भवानन्द महेन्द्र को समझाते हुए कहता है कि जब तक मुसलमानों को निकाल न दिया जाए तब तक तेरा धर्म सुरक्षित नहीं।
ऐसी प्रेरणा पाकर सैकड़ों नवयुवक सन्यासी बन जाते हैं। जो मुसलमानों को मारते काटते हैं उनके घरों में आग लगाते हैं और उनका माल हिन्दुओं में बांट देते हैं। राष्ट्रीय एकता पर कुठाराघात करने वाले इसी उपन्यास का एक अंश है ‘वन्देमातरम्’। मुसलमानों द्वारा इस गीत के विरोध का एक कारण तो यही है और दूसरा यह है कि गीत के पहले और दूसरे पद्य में भारत भूमि के सुन्दर फूलों, मीठे फलों और हरे-भरे खेतों का मनोहर वर्णन करते-करते उसे पांचवे पद में दुर्गा और कमला बना दिया जाता है। जो स्पष्टतः एकेश्रवाद के विरूद्ध है।
जो लोग ‘वन्देमातरम्’ को जायज़ कह रहे हैं वे केवल गीत के शब्दों को संदर्भ प्रसंग से काटकर देख रहे हैं। वन्देमातरम्’ अर्थात् हे मां! मैं तेरी वन्दना (तारीफ़) करता हूं। काव्य में अलंकारिक रूप से भूमि को माता कहने की गुन्जाइश है और उसकी प्रशंसा और गुणगान करने की भी। परन्तु यही कर्म तब वर्जित हो जाता है। जब देश को देव का अर्थात् उपास्य का दर्जा दे दिया जाए। देशप्रेम आवश्यक है मगर अति हर चीज़ की बुरी है।
सृष्टि को सृष्टा के समान उपास्य मान लेना कोई नई बात नहीं। संसार में हर जगह और हर ज़माने में यह हुआ है। यह वह रोग है कि जिस क़ौम को लग जाए उसे वर्गों में बांटकर अंधविश्वास की बेड़ियों में जकड़ देता है। सृष्टा को छोड़कर सृष्टि पूजा में लगे अरबवासियों को इस पतन से निकालने के लिए जब पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब (सल्ल.) ने एकेश्वरवाद का उपदेश दिया तो उन पर विष्ठा फेंकी गयी, रास्ते में कांटे बिछाये गये और उन पर इतने पत्थर बरसाये गये कि जूते रक्त से भरकर उनके पैरों से चिपक गये और एक मौक़े पर उनके दो दांत खंडित हो गये। 23 वर्षो के अथक प्रयासों के परिणामस्वरूप अरबों ने एकेश्वरवाद को हृदयंगम कर लिया। तब से इस्लाम के जानकार इस्लाम की इस मूल चेतना को बचाये हुए हैं। आज भी मुसलमान जब पैग़म्बर साहब (सल्ल.) की क़ब्र पर जाते हैं तो अल्लाह से उनके लिए शांति व बरकत की दुआ करते हैं न उन्हें सजदा करते हैं और न उनसे मन्नत- मुराद मांगते हैं।
यदि कोई प्रेम में अति करने की कोशिश करता भी है तो वहां नियुक्त सिपाही उसे बलपूर्वक रोकते हैं। मुसलमान ईश्वरीय ज्ञान कुरआन का बेइन्तिहा आदर-सम्मान करते हैं, मगर सजदा उसके सामने भी नहीं करते। भारतीय उपमहाद्वीप में हिन्दुओं की देखादेखी मन्दिरों की भांति क़ब्रों को पक्का करके उन पर फूल-चादरें चढ़ाई जाने लगीं, और उनके सामने सजदे होने लगे, उनसे मन्नत-मुरादें मांगी जाने लगीं तो उनके विरूद्ध भी अनेक फ़तवे दिये गये। ‘बादशाहों को सर झुकाना हराम है’ यह फ़तवा देने पर और स्वयं न झुकाने पर शेख़ अहमद सरहिन्दी रह0 को जहांगीर ने क़ैद कर दिया था। बाद में इस प्रथा को औरंगज़ेब रह. ने समाप्त किया। इसी इस्लामी चेतना के कारण ‘जय हिन्द’ कहने और ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ मानने वाले मुसलमान किसी कवि के अतिश्योक्तिपूर्ण दर्शन के कारण अपने पालनहार के प्रति कृतघ्न नहीं हो सकते।
होना तो हिन्दुओं को भी नहीं चाहिए क्योंकि धर्म का मूल वेद है और वेद ऐसे कर्मों में रत व्यक्तियों और राष्ट्रों के पतन की खुली घोषणा करते हैं- ‘जो असम्भूति अर्थात् प्रकृति रूप जड़ पदार्थ (अग्नि, मिट्टी, वायु आदि) की उपासना करते हैं और जो सम्भूति अर्थात् इन प्रकृति पदार्थो के परिणामस्वरूप सृष्टि (पेड़, पौधे, मूर्ति आदि) में रमण करते हैं। वे उससे भी अधिक अंधकार में पड़ते हैं।
(यजुर्वेद 40:9, अनुवाद पं. श्री राम शर्मा आचार्य)
आज पतन के कारण को देशप्रेम का पैमाना मुक़र्रर किया जा रहा है। टीपू सुल्तान अंग्रेज़ों से लड़ते हुए शहीद हो गये और रंगून में दयनीय अवस्था में प्राण त्यागने वाले 1857 की क्रान्ति के नायक बहादुर शाह ज़फर को अपनी आँखों से तीन पुत्रों की कटी गरदनें देखनी पड़ीं।
इतना बडा बलिदान देने वाले ‘वन्देमातरम्’ नाम की चीज़ से वाकिफ़ तक न थे। जबिक आज ‘वन्देमातरम्’ के गायन पर ज़ोर देने वाले ब्रिटिश काल में रोज़ शाखा लगाते रहे, मार्शल आट्र्स की प्रैक्टिस करते रहे, लेकिन आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया बल्कि स्वाधीनता आन्दोलन के कृशकाय नायक के प्राणान्त का कारण बने। आज उलेमा के सम्मिलित विरोध के कारण श्री आडवाणी को कहना पड़ा कि ‘वन्देमातरम्’ मुसलमानों पर जबरन नहीं थोपा जायेगा।’ मुख्यमंत्री श्री कल्याण सिंह ने भी कहा,’ वन्देमातरम्’ के गायन को अनिवार्य बनाने का कोई इरादा सरकार का नहीं है। परन्तु इतना कह देने मात्र से मुसलमानों की समस्या सुलझ नहीं जाती, क्योंकि वह मानसिकता अब किसी न किसी दूसरे रूप में प्रकट होगी। इसका एकमात्र समाधान यही है कि भारत में आये पैग़म्बरों की शिक्षा को भुला बैठी जनता को आखि़री पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के माध्यम से मिले कुरआन की शिक्षाओं से परिचित कराया जाए जो कि सभी पैग़म्बरों की मूल शिक्षा है। बाईबिल के अलावा स्वयं वेदों में कुरआनी मान्यताओं और पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब (सल्ल.) की पुष्टि में अनेकों जगह वर्णन है। अरब में पृथ्वी का केन्द्र ‘मक्का’ में आये हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) पर लगभग एक लाख चैबीस हज़ार पैग़म्बरों की श्रृंखला के समापन के साथ धर्म को पूर्णता प्राप्त हुई। विभिन्न जातियों ,भाषाओं और देशकाल में आये सभी पैग़म्बरों की मूल शिक्षा और धर्म का सार यह था कि ऐ लोगो! तुम्हारा खु़दा एक है तुम उसी की बन्दगी करो और तुम्हारा ख़ून एक है। तुम सब एक परिवार हो।
आग और ख़ून का जो तूफ़ान आज खड़ा किया जा रहा है नफ़रत के जिन विचारों से आज समाज को हिप्नॉटाइज़ किया जा रहा है उसकी निन्दा करना वेदज्ञों पर भी वाजिब है वर्ना हमारा यह प्यारा भारत देश कभी पतन के गर्त से उबर न सकेगा
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वन्दे मातरम्’ की हकीक़त ‘आनन्दमठ ’ में मुस्लिम समुदाय का चित्रण
‘आनन्दमठ’ बंकिमचन्द्र चट्टोपध्याय का सर्वाधिक आलोचित विवादस्पद उपन्यास है। यह उपन्यास सन् 1882 ई0 में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ था। इससे पहले ‘बंगदर्शन’ नामक पत्रिका में यह धारावाहिक रूप में प्रकाशित होता रहा था। ‘वन्देमातरम् गीत इसी के अन्तर्गत है। इंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका में आनन्दमठ की रचना के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए रमेशचन्द्र ने लिखा है
&ß The General Moral of the ' Ananda Math' then, is that British Rule and British Education are to be accepted as the only alternative to Mussalman oppression.ß
अर्थात् अंग्रेजी शासन और शिक्षा को स्वीकार करना ही मुस्लिम शोषण तथा दमन से बचने का एकमात्र विकल्प है।
यहां, यह बात उल्लेखनीय है कि बंकिमचन्द्र के जीवनकाल में ही ‘आनन्दमठ’ के पांच संस्करण छप गए थे और उपन्यासकार ने इसके प्रत्येक संस्करण में अनेकानेक संशोधन किए थे। इसी आधार पर नामवर सिंह जैसे अनेक विद्वान कहते हैं कि आनन्दमठ की रचना पहले अंग्रेजी सत्ता के विरूद्ध की गयी थी, परन्तु सरकारी नौकर होने के कारण अंग्रेज ‘आक़ाओं’ के दबाव तथा प्रलोभन के कारण इसे संशोधित करके मुस्लिम-विरोधी बना दिया गया।
अंग्रेजों ने भारत पर राज करने के लिए ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाई थी। परन्तु ‘वन्देमातरम्’ और ‘सरस्वती वन्दना’ को स्कूलों आदि में अनिवार्य घोषित करने की मांग करनेवालों ने ‘डराओ और राज करो की नीति अपना ली है। ‘वन्देमातरम् के समर्थक कहते है’-
हिन्दुस्तान में रहना होगा तो वन्देमातरम् कहना है कि वन्देमातम् का विरोध करना भारत का विरोध करना है और भारत का विरोध राष्ट्रद्रोह है। राष्ट्रद्रोह की इजाज़त किसी को भी नहीं दी जा सकती चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान।
इसके विपरीत इसके विरोधियों का कहना है कि वन्देमातरम् या सरस्वती वन्दना कहना गाना और इन्हें अनिवार्य घोषित के करना मुसलमानों के विश्वास के खि़लाफ़ है। मुसलमान कहता है-
‘मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के सिवा कोई इलाह (पूज्य प्रभु) नहीं। मैं गवाही देता हूं कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) अल्लाह के रसूल (ईशदूत) हैं। ‘अल-हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन’ यानी सारी प्रशंसा अल्लाह ही के लिए है, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का, समस्त जड़- चेतन पदार्थो का पालनकर्ता है। इसलिए मुसलमान अल्लाह के अतिरिक्त किसी की भी पूजा-अर्चना नहीं कर सकता, चाहे वह स्वयं ईशदूत ही क्यों न हों। हां, वह प्रत्येक सगे-संबंधी या किसी को भी उसका उचित मान-सम्मान अवश्य देता है।
ईसाई या उन संगठनों के माननेवाले भी वन्देमातरम् और सरस्वती वन्दना को अनिवार्य किए जाने के सख्त ख़िलाफ़ है, जो एक ईश्वर को मानते हैं और उसके सिवा किसी को पूजनीय नहीं समझते।
इस प्रकार वन्देमातरम् या सरस्वती वन्दना को लेकर लोग प्रायः दो धड़ों में बंटे हुए है। एक धड़ा इसका समर्थन करता है, तो दूसरा विरोध। दोनों के अपने-अपने तर्क हैं। परन्तु दोनों में से किसी भी धड़े ने ‘आनन्दमठ’ की कथावस्तु को मूल रूप में जनता के समक्ष रखने का कष्ट नहीं किया है ताकि जनता सच्चाई से अवगत हो जाए। इसकी व्याख्या प्रायः संदर्भ से हटकर की जाती रही है।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। आनन्दमठ की रचना अंग्रेजों के शासनकाल में हुई परन्तु इसकी कथावस्तु मुस्लिम शासनकाल की है। सन् 1175 बंगाल में बहुत भंयकर अकाल पड़ा था। उसी अकाल की पृष्ठभूमि में बंगाल की सन्यासी-विद्रोह की घटना को लेकर इस उपन्यास की रचना की गई। उपन्यास में हैं-
1174 में फ़सल अच्छी नहीं हुई। अतः 1175 में अकाल आ पड़ा- भारतवासियों पर संकट आया.... पहले एक संध्या का उपवास हुआ, फिर एक समय भी आधा पेट भोजन न मिलने लगा। इसके बाद दो-दो संध्या उपवास होने लगा। चैत में जो कुछ फसल हुई, वह किसी के एक ग्रास भर को भी न हुई। लेकिन मालगुज़ारी के अफ़सर मुहम्मद रज़ा खंा ने मन में सोचा कि यही समय है, मेरे तपने का। एकदम उसने दस प्रतिशत मालगुज़ारी बढ़ा दी। बंगाल में घर-घर कोहराम मच गया। (बंकिम समग्र, सम्पादक निहालचन्द्र शर्मा, पृ0 735, तृतीय संस्करण 1989, हिन्दी प्रचारक संस्थान, वाराणसी)
आनन्दमठ एक अत्यन्त सघन तथा भयंकर वन में बहुत विस्तृत भूमि पर ठोस पत्थरों से निर्मित एक बहुत बड़ा मठ है। यह पहले बौद्ध विहार था, परन्तु इस पर अब हिन्दू साधु-संन्यासी, जिन्हें उपन्यास में संतान कहा गया है, का क़ब्ज़ा हो गया है। उपन्यास में संतान ऐसे साधु- संन्यासियों को कहा गया है, जिन्होने इस संकल्प के साथ अपना घरबार त्यागा है कि जब तक भारतभूमि को मुस्लिम-शासन से मुक्त नहीं करवाएंगे, चैन से नहीं बैठेंगे और न ही घर-गृहस्थी बसाएंगे। संतान वैष्णव हैं और हिंसा का समर्थन करते हैं।
महेन्द्र ने विस्मय से पूछा-तुम लोग कौन हो?
भवानन्द ने उत्तर दिया-हम लोग संतान हैं।
महेन्द्र-संतान क्या है? किसकी संतान हैं?
भवानन्द-माता की संतान!
महेन्द्र-ठीक! तो क्या संतान लोग चोरी-डकैती करके मां की पूजा करते हैं। यह कैसी मातृभक्ति? (पृ0 745-46)
संतान दो तरह के हैं- दीक्षित और अदीक्षित। जो अदीक्षित हैं, वे या तो संसारी हैं अथवा भिखारी। वे लोग केवल युद्ध के समय आकर उपस्थित हो जाते हैं, लूट का हिस्सा या पुरस्कार पाकर चले जाते हैं। जो दीक्षित हैं, सर्वस्वत्यागी हैं। यही लोग सम्प्रदाय के कत्र्ता हैं। (पृ0771)
बंगला सन् 1173 में बंगाल प्रदेश अंग्रेजों के शासनाधीन नहीं हुआ था। अंग्रेज़ उस समय बंगाल के दीवान ही थे। वे खज़ाने का रूपया वसूलते थे, लेकिन तब बंगालियों की रक्षा का भार उन्होंने अपने ऊपर लिया न था। उस समय लगान की वसूली का भार अंग्रेजों पर था और कुल सम्पत्ति की रक्षा का भार पापिष्ट, नराधम, विश्वासघातक, मनुष्य-कुलकलंक मीर जाफ़र पर था। (पृ0 741)
हर देश का राजा अपनी प्रजा की दशा का, भरण-पोषण का ख़याल रखता है। हमारे देश का मुसलमान राजा क्या हमारी रक्षा कर रहा है?
धर्म गया, जाति गई, मान गया-अब तो प्राणों पर बाज़ी आ गई है। इन नशेबाज़ दाढ़ीवालों को बिना भगाए क्या हिन्दू-हिन्दू रह जाएंगें?
महेन्द्र-कैसे भगाओगे?
भवानन्द-मारकर! (पृ॰ 746)
भवानन्द मुसलमानों को कायर और अंग्रेजों को बहादुर बताते हुए कहता है-
“एक अंग्रेज़ प्राण जाने पर भी भागता नहीं, लेकिन एक मुसलमान पसीना होते ही भागता है, शरबत की खोज करता है। इससे मान लो, अंग्रेज जो करना चाहते हैं करके छोड़ते हैं, उनमें लगन होती है मुसलमान आरामतलब होते हैं, रूपए के लिए प्राण देते हैं- उस पर तनख्वाह भी तो नहीं पाते। सबसे अंतिम बात यह है कि अंग्रेज़ साहसी होते हैं। एक गोला एक ही जगह जाकर गिरेगा, दस जगह नहीं। अतः एक गोले को देखकर दस आदमियों के भागने की क्या ज़रूरत हैं? एक गोले के छूटते ही मुसलमान फ़ौज की फौ़ज भागती है। लेकिन सैकड़ों गोले देखकर भी एक अंग्रेज़ तो नहीं भागता (पृ0 747) भवानन्द ने गाना शुरू किया-
वन्दे मातरम्! सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम् शस्यश्यामलां मातरम् ।
महेन्द्र गाना सुनकर कुछ आश्चर्य में आए। वे कुछ समझ न सके-
सुजलां, सुफलां, मलयजशीतलां, शस्यश्यामलाम् माता कौन है?
उन्होंने पूछा यह माता कौन है?
कोई उत्तर न देकर भवानन्द गाते रहे- वन्दे मातरम् !
महेन्द्र ने देखा, दस्यु गाते-गाते रोने लगा। महेन्द्र बोला- यह तो देश है, यह तो माँ नहीं है। भवानन्द ने कहा- हम लोग किसी दूसरी माँ को नहीं मानते। (पृ0 744-45)
महेन्द्र को लेकर ब्रह्मचारी स्वामी सत्यानन्द देवालय के अन्दर घुसे। वहां महेन्द्र ने देखा कि एक विराट चतुर्भुज मूर्ति है, शंख-चक्र गदा- पद्मधारी, कौस्तुभमणि हृदय पर धारण किये सामने घूमते सुदर्शनचक्र लिए स्थापित है।मधुकैटभ जैसी दो विशाल छिन्नमस्तक मूर्तियां खून से लथपथ-सी चित्रित सामने पड़ी हैं। बाएं लक्ष्मी आलुलायित-कुंतला शतदल-मालामंडिता,भयग्रस्त की तरह खड़ी है। दाहिने सरस्वती पुस्तक-वीणा और मूर्तिमयी राग-रागिनी आदि से घिरी हुई स्तवन कर रही है। विष्णु की गोद में एक मोहिनी मूर्ति-लक्ष्मी और सरस्वती से अधिक सुन्दरी, उनसे भी अधिक ऐश्वर्यमयी अंकित है। गंदर्भ,किन्नर, यक्ष राक्षसगण उनकी पूजा कर रहे हैं। ब्रह्मचारी ने अतीव गंभीर, अतीव मधुर स्वर में महेन्द्र से पूछा-
सब कुछ देख रहे हो?
महेन्द्र ने उत्तर दिया- देख रहा हूँ।
ब्रह्मचारी-विष्णु की गोद में कौन है, देखते हो ?
महेन्द्र - यह माँ कौन है?
ब्रह्मचारी ने उत्तर दिया- जिसकी हम संतान हैं।
महेन्द्र - कौन है वह?
ब्रह्मचारी- समय पर पहचान जाओगे। बोलो , वन्देमातरम्! अब चलो, आगे चलो। इसके बाद महेन्द्र ने दुर्गा, काली, लक्ष्मी, सरस्वती, गणेशादि की मूर्तियों को प्रणाम किया और वन्देमातरम् कहा (पृ0 748-49)
उपन्यासकार अंग्रज़ों के शासनकाल को क़ानून का युग मानते हैं और मुस्लिम शासनकाल को न्यायहीनता का युग। “ आज का़नूनों का युग है- उस समय अनियम के दिन थे।” (पृ0 756)
महेन्द्र के साथ सत्यानन्द स्वामी गिरफ़्तार होकर नगर के जेल में बन्द थे उन्हें छुड़ाने के लिए हज़ारों हज़ार संतानों को संबोधित करते हुए स्वामी ज्ञानान्द कहते हैं- “ अनेक दिनों से हम विचार करते आते हैं कि इस नवाब का महल तोड़कर यवनपुरी का नाश कर नदी के जल में डुबा देंगे- इन सुअरों के दाँत तोड़कर, इन्हें आग में जलाकर माता वसुमती का उद्धार करेंगे। जिन्हें हम विष्णु का अवतार मानते हैं, वही आज मलेच्छ मुसलमानों के कारागार में बंदी हैं। चलो हम लोग उस यवनपुरी का निर्दलन कर उसे धूरिण में मिला दें। उस शूकर- निवास को अग्नि से शुद्ध कर नदी-जल में धो दें, उसका ज़र्रा-ज़र्रा उड़ा दें। (पृ0 764)
महेन्द्र और सत्यानन्द को मुक्त कर सन्तानों ने जहां-जहां मुसलमानों का घर पाया आग लगा दी।(पृ0 764)
जीवानन्द ने सत्यानन्द से पूछा- महाराज!
ईश्वर हम लोगों पर इतने अप्रसन्न क्यों हैं? किस दोष से हम लोग मुसलमानों से पराभूत हुए?
सत्यानन्द ने कहा- हम लोग जो पराजित हुए, उसका कारण था कि हम निःशस्त्र थे- गोली-बन्दूक के आगे लाठी तलवार भला क्या कर सकता है। अतः हम लोग अपने पुरूषार्थ के न होने से हारे हैं। अब हमारा यही कर्तव्य है कि हमें भी अस्त्रों की कमी न हो। (पृ0 769)
शस्त्रास्त्रों का संग्रह करने के लिए स्वामी सत्यानन्द तीर्थ यात्रा पर निकलने लगे तो भवानन्द ने पूछा- तीर्थयात्रा पर इन चीज़ों का संग्रह आप कैसे करेंगे? सत्यानन्द- यह सब चीज़ें ख़रीदकर लाई नहीं जा सकती हैं। मैं कारीगर भेजूंगा, यहीं तैयारी करनी होंगी। (पृ0 769)
महेन्द्र ने सत्यानन्द से पूछा कि ‘संतानगण ने कहा कि ‘ हम लोग राज्य नहीं चाहते-केवल मुसलमान , भगवान के विद्वेषी हैं- इसलिए उनका समूल विनाश करना चाहते हैं। (पृ0 772)
इसके बाद ये लोग गांव-गांव में अपने गुप्तचर भेजने लगे। पर लोग जहां हिन्दु होते थे, कहते थे,
भाई! विष्णु-पूजा करोगे?’ इसी तरह बीस-पच्चीस सन्तान किसी मुसलमान बस्ती में पहुंच जाते और उनके घर आग लगा देते थे। उनका सर्वस्व लूटकर हिन्दू विष्णु-पूजकों में उसे वितरित कर देते थे। मुसलमानों के गांव भस्म कर राख बनाए जाते। स्थानीय मुसलमान यह सुनकर दल के दल सैनिकों को इनके दमन के लिए भेजते थे। लेकिन उस समय तक संतानगण दलबद्ध, शस्त्रयुक्त और महादंभशाली हो गये थे। उनके तेज के आगे मुस्लिम फ़ौज अग्रसर हो न पाती थी। (पृ0 780)
संतानों के दल के दल उस रात यत्र-तत्र ‘वंदेमातरम्’ और ‘जय जगदीश हरे’ के गीत गाते हुए घूमते रहे। कोई शत्रु-सेना का शस्त्र, तो कोई वस्त्र लूटने लगा। कोई मृतदेह के मुँह पर पक्षघात करने लगा,तो कोई दूसरी तरह का उपद्रव करने लगा। कोई गांव की तरफ़ तो कोई नगर की तरफ़ पहुंचकर राहगीरों और गृहस्थों को पकड़कर कहने लगा-‘वन्देमातरम् ’कहो, नहीं तो मार डालूंगा। ’ कोई मैदा-चीनी की दुकान लूट रहा था, तो कोई ग्वालों के घर पहुंचकर हांडी भर दूध ही छीनकर पीता था। कोई कहता- हम लोग ब्रज के गोप आ पहुंचे, गोपियां कहां हैं? उस रात में गांव-गांव में , नगर-नगर में महाकोलाहल मच गया। सभी चिल्ला रहे थे- मुसलमान हार गए, देश हम लोगों का हो गया। भाइयों! हरि-हरि कहो! गांव में मुसलमान दिखायी पड़ते ही लोग खदेड़कर मारते थे। बहुतेरे लोग दलबद्ध होकर मुसलमानों की बस्ती में पहुँचकर घरों में आग लगाने और माल लूटने लगे। अनेक मुसलमान दाढ़ी मुंडवाकर देह में भस्मी रमाकर राम-राम जपने लगे। पूछने पर कहते -हम हिन्दू हैंं(पृ0 800-801)
शरीफ़ मुसलमान कहने लगे- इतने रोज़ बाद क्या सचमुच कुरआन शरीफ़ झूठा (नौज़बिल्लाह) हो गया? हम लोगों ने पांचों वक्त नमाज़ पढ़कर क्या किया, जब हिन्दूओं की फ़तह हुई । सब झूठ है। (पृ0 801)
युद्ध के दौरान अंग्रेज़ कप्तान टॉमस से एक संन्यासिनी कहती है- मैं तुमसे एक बात पूछना चाहती हूँ कि जब हिन्दू-मुसलमानों में लड़ाई हो रही है, तो इस बीच में तुम लोग क्यों बोलते हो?(पृ0 782)
भवानन्द ने युद्ध के दौरान कप्तान टॉमस को पकड़ लिया। भवानन्द ने कहा- कप्तान साहब! मैं तुम्हें मारूंगा नहीं, अंग्रेज़ हमारे शत्रु नहीं हैं। क्यों तुम मुसलमानों की सहायता करने आए? तुम्हें प्राणदान देता हूं, लेकिन अभी तुम बन्दी अवश्य रहोगे। अंग्रज़ों की जय हो, तुम हमारे मित्र हो।(पृ0 796)
स्पष्ट है इस उपन्यास ने हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव को समाप्त करने में योगदान किया और देश विभाजन का एक प्रमुख कारण बना।
-इलियास ‘कुतुबपुरी’
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''वन्दे मातरम्'' पाठ एवं अनुवाद
वन्दे मातरम्!
सुजलां सुफलां मलयजशीतलां
शस्यश्यामलां मातरम्!
शुभ-ज्योत्सना-पुलकित-यामिनीम्
फुल्ल-कुसुमित-द्रमुदल शोभिनीम्
सुहासिनी सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम्!
सन्तकोटिकंठ-कलकल-निनादकराले
द्विसप्तकोटि भुजैर्धृतखरकरबाले
अबला केनो माँ एतो बले।
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं
रिपुदल वारिणीं मातरम्!
तुमि विद्या तुमि धर्म
तुमि हरि तुमि कर्म
त्वम् हि प्राणाः शरीरे।
बाहुते तुमि मा शक्ति
हृदये तुमि मा भक्ति
तोमारइ प्रतिमा गड़ि मंदिरें-मंदिरे।
त्वं हि दूर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमल-दल विहारिणी
वाणी विद्यादायिनी नवामि त्वां
नवामि कमलाम् अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलां मातरम्!
वन्दे मातरम्!
श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम्
धरणीं भरणीम् मातरम्।
(साभारः आनन्द मठ् पृ0 60, राजकमल प्रकाशन,संस्करण तृतीय, 1997)
अनुवाद
1.
हे माँ मैं तेरी वन्दना करता हूँ
तेरे अच्छे पानी, अच्छे फलों,
सुगन्धित, शुष्क, उत्तरी समीर (हवा)
हरे-भरे खेतों वाली मेरी माँ।
2.
सुन्दर चाँदनी से प्रकाशित रात वाली,
खिले हुए फूलों और घने वृ़क्षों वाली,
सुमधुर भाषा वाली,
सुख देने वाली वरदायिनी मेरी माँ।
3.
तीस करोड़ कण्ठों की जोशीली आवाज़ें,
साठ करोड़ भुजाओं में तलवारों को
धारण किये हुए
क्या इतनी शक्ति के बाद भी,
हे माँ तू निर्बल है,
तू ही हमारी भुजाओं की शक्ति है,
मैं तेरी पद-वन्दना करता हूँ मेरी माँ।
4.
तू ही मेरा ज्ञान, तू ही मेरा धर्म है,
तू ही मेरा अन्तर्मन, तू ही मेरा लक्ष्य,
तू ही मेरे शरीर का प्राण,
तू ही भुजाओं की शक्ति है,
मन के भीतर तेरा ही सत्य है,
तेरी ही मन मोहिनी मूर्ति
एक-एक मन्दिर में,
5.
तू ही दुर्गा दश सशस्त्र भुजाओं वाली,
तू ही कमला है, कमल के फूलों की बहार,
तू ही ज्ञान गंगा है, परिपूर्ण करने वाली,
मैं तेरा दास हूँ, दासों का भी दास,
दासों के दास का भी दास,
अच्छे पानी अच्छे फलों वाली मेरी माँ,
मैं तेरी वन्दना करता हूँ।
6.
लहलहाते खेतों वाली, पवित्र, मोहिनी,
सुशोभित, शक्तिशालिनी, अजर-अमर
मैं तेरी वन्दना करता हूँ।
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वन्दे मातरम् एक ऐसा इश्यू है जो सोचे समझे तरीके़ से रह रह कर उठाया जाता है। कान्ति मासिक जुलाई 1999 में प्रकाशित यह लेख आज भी प्रासंगिक है।
अली मियां द्वारा‘ वन्देमातरम्’ के विरोध के कारण भारतीय मुसलमानों को देशद्रोही के रूप में चित्रित किया जा रहा था। जबकि देशद्रोही तो ‘आनन्द मठ’ के लेखक को कहा जाना चाहिए जिसमें अंग्रेज़ों के आगमन पर हर्षित होकर कहा गया कि ‘ अब अंग्रेज़ आ गये हैं, हमारी जान व माल की सुरक्षा होगी।’
जिसके कारण डा. लोहिया ने कहा था कि ‘आनन्द मठ’ उपन्यास हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन पर एक कलंक है।
यह कलंक उस बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा लगाया गया जिसने ‘हाजी मोहसिन फण्ड’ से आर्थिक सहायता पाकर बी. ए. की डिग्री प्राप्त की और वाकार्थ में निपुणता पाते ही मुस्लिम दुश्मनी के प्लॉट पर एक उपन्यास लिख डाला जिसमें नायक भवानन्द महेन्द्र को समझाते हुए कहता है कि जब तक मुसलमानों को निकाल न दिया जाए तब तक तेरा धर्म सुरक्षित नहीं।
ऐसी प्रेरणा पाकर सैकड़ों नवयुवक सन्यासी बन जाते हैं। जो मुसलमानों को मारते काटते हैं उनके घरों में आग लगाते हैं और उनका माल हिन्दुओं में बांट देते हैं। राष्ट्रीय एकता पर कुठाराघात करने वाले इसी उपन्यास का एक अंश है ‘वन्देमातरम्’। मुसलमानों द्वारा इस गीत के विरोध का एक कारण तो यही है और दूसरा यह है कि गीत के पहले और दूसरे पद्य में भारत भूमि के सुन्दर फूलों, मीठे फलों और हरे-भरे खेतों का मनोहर वर्णन करते-करते उसे पांचवे पद में दुर्गा और कमला बना दिया जाता है। जो स्पष्टतः एकेश्रवाद के विरूद्ध है।
जो लोग ‘वन्देमातरम्’ को जायज़ कह रहे हैं वे केवल गीत के शब्दों को संदर्भ प्रसंग से काटकर देख रहे हैं। वन्देमातरम्’ अर्थात् हे मां! मैं तेरी वन्दना (तारीफ़) करता हूं। काव्य में अलंकारिक रूप से भूमि को माता कहने की गुन्जाइश है और उसकी प्रशंसा और गुणगान करने की भी। परन्तु यही कर्म तब वर्जित हो जाता है। जब देश को देव का अर्थात् उपास्य का दर्जा दे दिया जाए। देशप्रेम आवश्यक है मगर अति हर चीज़ की बुरी है।
सृष्टि को सृष्टा के समान उपास्य मान लेना कोई नई बात नहीं। संसार में हर जगह और हर ज़माने में यह हुआ है। यह वह रोग है कि जिस क़ौम को लग जाए उसे वर्गों में बांटकर अंधविश्वास की बेड़ियों में जकड़ देता है। सृष्टा को छोड़कर सृष्टि पूजा में लगे अरबवासियों को इस पतन से निकालने के लिए जब पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब (सल्ल.) ने एकेश्वरवाद का उपदेश दिया तो उन पर विष्ठा फेंकी गयी, रास्ते में कांटे बिछाये गये और उन पर इतने पत्थर बरसाये गये कि जूते रक्त से भरकर उनके पैरों से चिपक गये और एक मौक़े पर उनके दो दांत खंडित हो गये। 23 वर्षो के अथक प्रयासों के परिणामस्वरूप अरबों ने एकेश्वरवाद को हृदयंगम कर लिया। तब से इस्लाम के जानकार इस्लाम की इस मूल चेतना को बचाये हुए हैं। आज भी मुसलमान जब पैग़म्बर साहब (सल्ल.) की क़ब्र पर जाते हैं तो अल्लाह से उनके लिए शांति व बरकत की दुआ करते हैं न उन्हें सजदा करते हैं और न उनसे मन्नत- मुराद मांगते हैं।
यदि कोई प्रेम में अति करने की कोशिश करता भी है तो वहां नियुक्त सिपाही उसे बलपूर्वक रोकते हैं। मुसलमान ईश्वरीय ज्ञान कुरआन का बेइन्तिहा आदर-सम्मान करते हैं, मगर सजदा उसके सामने भी नहीं करते। भारतीय उपमहाद्वीप में हिन्दुओं की देखादेखी मन्दिरों की भांति क़ब्रों को पक्का करके उन पर फूल-चादरें चढ़ाई जाने लगीं, और उनके सामने सजदे होने लगे, उनसे मन्नत-मुरादें मांगी जाने लगीं तो उनके विरूद्ध भी अनेक फ़तवे दिये गये। ‘बादशाहों को सर झुकाना हराम है’ यह फ़तवा देने पर और स्वयं न झुकाने पर शेख़ अहमद सरहिन्दी रह0 को जहांगीर ने क़ैद कर दिया था। बाद में इस प्रथा को औरंगज़ेब रह. ने समाप्त किया। इसी इस्लामी चेतना के कारण ‘जय हिन्द’ कहने और ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ मानने वाले मुसलमान किसी कवि के अतिश्योक्तिपूर्ण दर्शन के कारण अपने पालनहार के प्रति कृतघ्न नहीं हो सकते।
होना तो हिन्दुओं को भी नहीं चाहिए क्योंकि धर्म का मूल वेद है और वेद ऐसे कर्मों में रत व्यक्तियों और राष्ट्रों के पतन की खुली घोषणा करते हैं- ‘जो असम्भूति अर्थात् प्रकृति रूप जड़ पदार्थ (अग्नि, मिट्टी, वायु आदि) की उपासना करते हैं और जो सम्भूति अर्थात् इन प्रकृति पदार्थो के परिणामस्वरूप सृष्टि (पेड़, पौधे, मूर्ति आदि) में रमण करते हैं। वे उससे भी अधिक अंधकार में पड़ते हैं।
(यजुर्वेद 40:9, अनुवाद पं. श्री राम शर्मा आचार्य)
आज पतन के कारण को देशप्रेम का पैमाना मुक़र्रर किया जा रहा है। टीपू सुल्तान अंग्रेज़ों से लड़ते हुए शहीद हो गये और रंगून में दयनीय अवस्था में प्राण त्यागने वाले 1857 की क्रान्ति के नायक बहादुर शाह ज़फर को अपनी आँखों से तीन पुत्रों की कटी गरदनें देखनी पड़ीं।
इतना बडा बलिदान देने वाले ‘वन्देमातरम्’ नाम की चीज़ से वाकिफ़ तक न थे। जबिक आज ‘वन्देमातरम्’ के गायन पर ज़ोर देने वाले ब्रिटिश काल में रोज़ शाखा लगाते रहे, मार्शल आट्र्स की प्रैक्टिस करते रहे, लेकिन आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया बल्कि स्वाधीनता आन्दोलन के कृशकाय नायक के प्राणान्त का कारण बने। आज उलेमा के सम्मिलित विरोध के कारण श्री आडवाणी को कहना पड़ा कि ‘वन्देमातरम्’ मुसलमानों पर जबरन नहीं थोपा जायेगा।’ मुख्यमंत्री श्री कल्याण सिंह ने भी कहा,’ वन्देमातरम्’ के गायन को अनिवार्य बनाने का कोई इरादा सरकार का नहीं है। परन्तु इतना कह देने मात्र से मुसलमानों की समस्या सुलझ नहीं जाती, क्योंकि वह मानसिकता अब किसी न किसी दूसरे रूप में प्रकट होगी। इसका एकमात्र समाधान यही है कि भारत में आये पैग़म्बरों की शिक्षा को भुला बैठी जनता को आखि़री पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के माध्यम से मिले कुरआन की शिक्षाओं से परिचित कराया जाए जो कि सभी पैग़म्बरों की मूल शिक्षा है। बाईबिल के अलावा स्वयं वेदों में कुरआनी मान्यताओं और पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब (सल्ल.) की पुष्टि में अनेकों जगह वर्णन है। अरब में पृथ्वी का केन्द्र ‘मक्का’ में आये हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) पर लगभग एक लाख चैबीस हज़ार पैग़म्बरों की श्रृंखला के समापन के साथ धर्म को पूर्णता प्राप्त हुई। विभिन्न जातियों ,भाषाओं और देशकाल में आये सभी पैग़म्बरों की मूल शिक्षा और धर्म का सार यह था कि ऐ लोगो! तुम्हारा खु़दा एक है तुम उसी की बन्दगी करो और तुम्हारा ख़ून एक है। तुम सब एक परिवार हो।
आग और ख़ून का जो तूफ़ान आज खड़ा किया जा रहा है नफ़रत के जिन विचारों से आज समाज को हिप्नॉटाइज़ किया जा रहा है उसकी निन्दा करना वेदज्ञों पर भी वाजिब है वर्ना हमारा यह प्यारा भारत देश कभी पतन के गर्त से उबर न सकेगा
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वन्दे मातरम्’ की हकीक़त ‘आनन्दमठ ’ में मुस्लिम समुदाय का चित्रण
‘आनन्दमठ’ बंकिमचन्द्र चट्टोपध्याय का सर्वाधिक आलोचित विवादस्पद उपन्यास है। यह उपन्यास सन् 1882 ई0 में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ था। इससे पहले ‘बंगदर्शन’ नामक पत्रिका में यह धारावाहिक रूप में प्रकाशित होता रहा था। ‘वन्देमातरम् गीत इसी के अन्तर्गत है। इंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका में आनन्दमठ की रचना के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए रमेशचन्द्र ने लिखा है
&ß The General Moral of the ' Ananda Math' then, is that British Rule and British Education are to be accepted as the only alternative to Mussalman oppression.ß
अर्थात् अंग्रेजी शासन और शिक्षा को स्वीकार करना ही मुस्लिम शोषण तथा दमन से बचने का एकमात्र विकल्प है।
यहां, यह बात उल्लेखनीय है कि बंकिमचन्द्र के जीवनकाल में ही ‘आनन्दमठ’ के पांच संस्करण छप गए थे और उपन्यासकार ने इसके प्रत्येक संस्करण में अनेकानेक संशोधन किए थे। इसी आधार पर नामवर सिंह जैसे अनेक विद्वान कहते हैं कि आनन्दमठ की रचना पहले अंग्रेजी सत्ता के विरूद्ध की गयी थी, परन्तु सरकारी नौकर होने के कारण अंग्रेज ‘आक़ाओं’ के दबाव तथा प्रलोभन के कारण इसे संशोधित करके मुस्लिम-विरोधी बना दिया गया।
अंग्रेजों ने भारत पर राज करने के लिए ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाई थी। परन्तु ‘वन्देमातरम्’ और ‘सरस्वती वन्दना’ को स्कूलों आदि में अनिवार्य घोषित करने की मांग करनेवालों ने ‘डराओ और राज करो की नीति अपना ली है। ‘वन्देमातरम् के समर्थक कहते है’-
हिन्दुस्तान में रहना होगा तो वन्देमातरम् कहना है कि वन्देमातम् का विरोध करना भारत का विरोध करना है और भारत का विरोध राष्ट्रद्रोह है। राष्ट्रद्रोह की इजाज़त किसी को भी नहीं दी जा सकती चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान।
इसके विपरीत इसके विरोधियों का कहना है कि वन्देमातरम् या सरस्वती वन्दना कहना गाना और इन्हें अनिवार्य घोषित के करना मुसलमानों के विश्वास के खि़लाफ़ है। मुसलमान कहता है-
‘मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के सिवा कोई इलाह (पूज्य प्रभु) नहीं। मैं गवाही देता हूं कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) अल्लाह के रसूल (ईशदूत) हैं। ‘अल-हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन’ यानी सारी प्रशंसा अल्लाह ही के लिए है, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का, समस्त जड़- चेतन पदार्थो का पालनकर्ता है। इसलिए मुसलमान अल्लाह के अतिरिक्त किसी की भी पूजा-अर्चना नहीं कर सकता, चाहे वह स्वयं ईशदूत ही क्यों न हों। हां, वह प्रत्येक सगे-संबंधी या किसी को भी उसका उचित मान-सम्मान अवश्य देता है।
ईसाई या उन संगठनों के माननेवाले भी वन्देमातरम् और सरस्वती वन्दना को अनिवार्य किए जाने के सख्त ख़िलाफ़ है, जो एक ईश्वर को मानते हैं और उसके सिवा किसी को पूजनीय नहीं समझते।
इस प्रकार वन्देमातरम् या सरस्वती वन्दना को लेकर लोग प्रायः दो धड़ों में बंटे हुए है। एक धड़ा इसका समर्थन करता है, तो दूसरा विरोध। दोनों के अपने-अपने तर्क हैं। परन्तु दोनों में से किसी भी धड़े ने ‘आनन्दमठ’ की कथावस्तु को मूल रूप में जनता के समक्ष रखने का कष्ट नहीं किया है ताकि जनता सच्चाई से अवगत हो जाए। इसकी व्याख्या प्रायः संदर्भ से हटकर की जाती रही है।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। आनन्दमठ की रचना अंग्रेजों के शासनकाल में हुई परन्तु इसकी कथावस्तु मुस्लिम शासनकाल की है। सन् 1175 बंगाल में बहुत भंयकर अकाल पड़ा था। उसी अकाल की पृष्ठभूमि में बंगाल की सन्यासी-विद्रोह की घटना को लेकर इस उपन्यास की रचना की गई। उपन्यास में हैं-
1174 में फ़सल अच्छी नहीं हुई। अतः 1175 में अकाल आ पड़ा- भारतवासियों पर संकट आया.... पहले एक संध्या का उपवास हुआ, फिर एक समय भी आधा पेट भोजन न मिलने लगा। इसके बाद दो-दो संध्या उपवास होने लगा। चैत में जो कुछ फसल हुई, वह किसी के एक ग्रास भर को भी न हुई। लेकिन मालगुज़ारी के अफ़सर मुहम्मद रज़ा खंा ने मन में सोचा कि यही समय है, मेरे तपने का। एकदम उसने दस प्रतिशत मालगुज़ारी बढ़ा दी। बंगाल में घर-घर कोहराम मच गया। (बंकिम समग्र, सम्पादक निहालचन्द्र शर्मा, पृ0 735, तृतीय संस्करण 1989, हिन्दी प्रचारक संस्थान, वाराणसी)
आनन्दमठ एक अत्यन्त सघन तथा भयंकर वन में बहुत विस्तृत भूमि पर ठोस पत्थरों से निर्मित एक बहुत बड़ा मठ है। यह पहले बौद्ध विहार था, परन्तु इस पर अब हिन्दू साधु-संन्यासी, जिन्हें उपन्यास में संतान कहा गया है, का क़ब्ज़ा हो गया है। उपन्यास में संतान ऐसे साधु- संन्यासियों को कहा गया है, जिन्होने इस संकल्प के साथ अपना घरबार त्यागा है कि जब तक भारतभूमि को मुस्लिम-शासन से मुक्त नहीं करवाएंगे, चैन से नहीं बैठेंगे और न ही घर-गृहस्थी बसाएंगे। संतान वैष्णव हैं और हिंसा का समर्थन करते हैं।
महेन्द्र ने विस्मय से पूछा-तुम लोग कौन हो?
भवानन्द ने उत्तर दिया-हम लोग संतान हैं।
महेन्द्र-संतान क्या है? किसकी संतान हैं?
भवानन्द-माता की संतान!
महेन्द्र-ठीक! तो क्या संतान लोग चोरी-डकैती करके मां की पूजा करते हैं। यह कैसी मातृभक्ति? (पृ0 745-46)
संतान दो तरह के हैं- दीक्षित और अदीक्षित। जो अदीक्षित हैं, वे या तो संसारी हैं अथवा भिखारी। वे लोग केवल युद्ध के समय आकर उपस्थित हो जाते हैं, लूट का हिस्सा या पुरस्कार पाकर चले जाते हैं। जो दीक्षित हैं, सर्वस्वत्यागी हैं। यही लोग सम्प्रदाय के कत्र्ता हैं। (पृ0771)
बंगला सन् 1173 में बंगाल प्रदेश अंग्रेजों के शासनाधीन नहीं हुआ था। अंग्रेज़ उस समय बंगाल के दीवान ही थे। वे खज़ाने का रूपया वसूलते थे, लेकिन तब बंगालियों की रक्षा का भार उन्होंने अपने ऊपर लिया न था। उस समय लगान की वसूली का भार अंग्रेजों पर था और कुल सम्पत्ति की रक्षा का भार पापिष्ट, नराधम, विश्वासघातक, मनुष्य-कुलकलंक मीर जाफ़र पर था। (पृ0 741)
हर देश का राजा अपनी प्रजा की दशा का, भरण-पोषण का ख़याल रखता है। हमारे देश का मुसलमान राजा क्या हमारी रक्षा कर रहा है?
धर्म गया, जाति गई, मान गया-अब तो प्राणों पर बाज़ी आ गई है। इन नशेबाज़ दाढ़ीवालों को बिना भगाए क्या हिन्दू-हिन्दू रह जाएंगें?
महेन्द्र-कैसे भगाओगे?
भवानन्द-मारकर! (पृ॰ 746)
भवानन्द मुसलमानों को कायर और अंग्रेजों को बहादुर बताते हुए कहता है-
“एक अंग्रेज़ प्राण जाने पर भी भागता नहीं, लेकिन एक मुसलमान पसीना होते ही भागता है, शरबत की खोज करता है। इससे मान लो, अंग्रेज जो करना चाहते हैं करके छोड़ते हैं, उनमें लगन होती है मुसलमान आरामतलब होते हैं, रूपए के लिए प्राण देते हैं- उस पर तनख्वाह भी तो नहीं पाते। सबसे अंतिम बात यह है कि अंग्रेज़ साहसी होते हैं। एक गोला एक ही जगह जाकर गिरेगा, दस जगह नहीं। अतः एक गोले को देखकर दस आदमियों के भागने की क्या ज़रूरत हैं? एक गोले के छूटते ही मुसलमान फ़ौज की फौ़ज भागती है। लेकिन सैकड़ों गोले देखकर भी एक अंग्रेज़ तो नहीं भागता (पृ0 747) भवानन्द ने गाना शुरू किया-
वन्दे मातरम्! सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम् शस्यश्यामलां मातरम् ।
महेन्द्र गाना सुनकर कुछ आश्चर्य में आए। वे कुछ समझ न सके-
सुजलां, सुफलां, मलयजशीतलां, शस्यश्यामलाम् माता कौन है?
उन्होंने पूछा यह माता कौन है?
कोई उत्तर न देकर भवानन्द गाते रहे- वन्दे मातरम् !
महेन्द्र ने देखा, दस्यु गाते-गाते रोने लगा। महेन्द्र बोला- यह तो देश है, यह तो माँ नहीं है। भवानन्द ने कहा- हम लोग किसी दूसरी माँ को नहीं मानते। (पृ0 744-45)
महेन्द्र को लेकर ब्रह्मचारी स्वामी सत्यानन्द देवालय के अन्दर घुसे। वहां महेन्द्र ने देखा कि एक विराट चतुर्भुज मूर्ति है, शंख-चक्र गदा- पद्मधारी, कौस्तुभमणि हृदय पर धारण किये सामने घूमते सुदर्शनचक्र लिए स्थापित है।मधुकैटभ जैसी दो विशाल छिन्नमस्तक मूर्तियां खून से लथपथ-सी चित्रित सामने पड़ी हैं। बाएं लक्ष्मी आलुलायित-कुंतला शतदल-मालामंडिता,भयग्रस्त की तरह खड़ी है। दाहिने सरस्वती पुस्तक-वीणा और मूर्तिमयी राग-रागिनी आदि से घिरी हुई स्तवन कर रही है। विष्णु की गोद में एक मोहिनी मूर्ति-लक्ष्मी और सरस्वती से अधिक सुन्दरी, उनसे भी अधिक ऐश्वर्यमयी अंकित है। गंदर्भ,किन्नर, यक्ष राक्षसगण उनकी पूजा कर रहे हैं। ब्रह्मचारी ने अतीव गंभीर, अतीव मधुर स्वर में महेन्द्र से पूछा-
सब कुछ देख रहे हो?
महेन्द्र ने उत्तर दिया- देख रहा हूँ।
ब्रह्मचारी-विष्णु की गोद में कौन है, देखते हो ?
महेन्द्र - यह माँ कौन है?
ब्रह्मचारी ने उत्तर दिया- जिसकी हम संतान हैं।
महेन्द्र - कौन है वह?
ब्रह्मचारी- समय पर पहचान जाओगे। बोलो , वन्देमातरम्! अब चलो, आगे चलो। इसके बाद महेन्द्र ने दुर्गा, काली, लक्ष्मी, सरस्वती, गणेशादि की मूर्तियों को प्रणाम किया और वन्देमातरम् कहा (पृ0 748-49)
उपन्यासकार अंग्रज़ों के शासनकाल को क़ानून का युग मानते हैं और मुस्लिम शासनकाल को न्यायहीनता का युग। “ आज का़नूनों का युग है- उस समय अनियम के दिन थे।” (पृ0 756)
महेन्द्र के साथ सत्यानन्द स्वामी गिरफ़्तार होकर नगर के जेल में बन्द थे उन्हें छुड़ाने के लिए हज़ारों हज़ार संतानों को संबोधित करते हुए स्वामी ज्ञानान्द कहते हैं- “ अनेक दिनों से हम विचार करते आते हैं कि इस नवाब का महल तोड़कर यवनपुरी का नाश कर नदी के जल में डुबा देंगे- इन सुअरों के दाँत तोड़कर, इन्हें आग में जलाकर माता वसुमती का उद्धार करेंगे। जिन्हें हम विष्णु का अवतार मानते हैं, वही आज मलेच्छ मुसलमानों के कारागार में बंदी हैं। चलो हम लोग उस यवनपुरी का निर्दलन कर उसे धूरिण में मिला दें। उस शूकर- निवास को अग्नि से शुद्ध कर नदी-जल में धो दें, उसका ज़र्रा-ज़र्रा उड़ा दें। (पृ0 764)
महेन्द्र और सत्यानन्द को मुक्त कर सन्तानों ने जहां-जहां मुसलमानों का घर पाया आग लगा दी।(पृ0 764)
जीवानन्द ने सत्यानन्द से पूछा- महाराज!
ईश्वर हम लोगों पर इतने अप्रसन्न क्यों हैं? किस दोष से हम लोग मुसलमानों से पराभूत हुए?
सत्यानन्द ने कहा- हम लोग जो पराजित हुए, उसका कारण था कि हम निःशस्त्र थे- गोली-बन्दूक के आगे लाठी तलवार भला क्या कर सकता है। अतः हम लोग अपने पुरूषार्थ के न होने से हारे हैं। अब हमारा यही कर्तव्य है कि हमें भी अस्त्रों की कमी न हो। (पृ0 769)
शस्त्रास्त्रों का संग्रह करने के लिए स्वामी सत्यानन्द तीर्थ यात्रा पर निकलने लगे तो भवानन्द ने पूछा- तीर्थयात्रा पर इन चीज़ों का संग्रह आप कैसे करेंगे? सत्यानन्द- यह सब चीज़ें ख़रीदकर लाई नहीं जा सकती हैं। मैं कारीगर भेजूंगा, यहीं तैयारी करनी होंगी। (पृ0 769)
महेन्द्र ने सत्यानन्द से पूछा कि ‘संतानगण ने कहा कि ‘ हम लोग राज्य नहीं चाहते-केवल मुसलमान , भगवान के विद्वेषी हैं- इसलिए उनका समूल विनाश करना चाहते हैं। (पृ0 772)
इसके बाद ये लोग गांव-गांव में अपने गुप्तचर भेजने लगे। पर लोग जहां हिन्दु होते थे, कहते थे,
भाई! विष्णु-पूजा करोगे?’ इसी तरह बीस-पच्चीस सन्तान किसी मुसलमान बस्ती में पहुंच जाते और उनके घर आग लगा देते थे। उनका सर्वस्व लूटकर हिन्दू विष्णु-पूजकों में उसे वितरित कर देते थे। मुसलमानों के गांव भस्म कर राख बनाए जाते। स्थानीय मुसलमान यह सुनकर दल के दल सैनिकों को इनके दमन के लिए भेजते थे। लेकिन उस समय तक संतानगण दलबद्ध, शस्त्रयुक्त और महादंभशाली हो गये थे। उनके तेज के आगे मुस्लिम फ़ौज अग्रसर हो न पाती थी। (पृ0 780)
संतानों के दल के दल उस रात यत्र-तत्र ‘वंदेमातरम्’ और ‘जय जगदीश हरे’ के गीत गाते हुए घूमते रहे। कोई शत्रु-सेना का शस्त्र, तो कोई वस्त्र लूटने लगा। कोई मृतदेह के मुँह पर पक्षघात करने लगा,तो कोई दूसरी तरह का उपद्रव करने लगा। कोई गांव की तरफ़ तो कोई नगर की तरफ़ पहुंचकर राहगीरों और गृहस्थों को पकड़कर कहने लगा-‘वन्देमातरम् ’कहो, नहीं तो मार डालूंगा। ’ कोई मैदा-चीनी की दुकान लूट रहा था, तो कोई ग्वालों के घर पहुंचकर हांडी भर दूध ही छीनकर पीता था। कोई कहता- हम लोग ब्रज के गोप आ पहुंचे, गोपियां कहां हैं? उस रात में गांव-गांव में , नगर-नगर में महाकोलाहल मच गया। सभी चिल्ला रहे थे- मुसलमान हार गए, देश हम लोगों का हो गया। भाइयों! हरि-हरि कहो! गांव में मुसलमान दिखायी पड़ते ही लोग खदेड़कर मारते थे। बहुतेरे लोग दलबद्ध होकर मुसलमानों की बस्ती में पहुँचकर घरों में आग लगाने और माल लूटने लगे। अनेक मुसलमान दाढ़ी मुंडवाकर देह में भस्मी रमाकर राम-राम जपने लगे। पूछने पर कहते -हम हिन्दू हैंं(पृ0 800-801)
शरीफ़ मुसलमान कहने लगे- इतने रोज़ बाद क्या सचमुच कुरआन शरीफ़ झूठा (नौज़बिल्लाह) हो गया? हम लोगों ने पांचों वक्त नमाज़ पढ़कर क्या किया, जब हिन्दूओं की फ़तह हुई । सब झूठ है। (पृ0 801)
युद्ध के दौरान अंग्रेज़ कप्तान टॉमस से एक संन्यासिनी कहती है- मैं तुमसे एक बात पूछना चाहती हूँ कि जब हिन्दू-मुसलमानों में लड़ाई हो रही है, तो इस बीच में तुम लोग क्यों बोलते हो?(पृ0 782)
भवानन्द ने युद्ध के दौरान कप्तान टॉमस को पकड़ लिया। भवानन्द ने कहा- कप्तान साहब! मैं तुम्हें मारूंगा नहीं, अंग्रेज़ हमारे शत्रु नहीं हैं। क्यों तुम मुसलमानों की सहायता करने आए? तुम्हें प्राणदान देता हूं, लेकिन अभी तुम बन्दी अवश्य रहोगे। अंग्रज़ों की जय हो, तुम हमारे मित्र हो।(पृ0 796)
स्पष्ट है इस उपन्यास ने हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव को समाप्त करने में योगदान किया और देश विभाजन का एक प्रमुख कारण बना।
-इलियास ‘कुतुबपुरी’
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''वन्दे मातरम्'' पाठ एवं अनुवाद
वन्दे मातरम्!
सुजलां सुफलां मलयजशीतलां
शस्यश्यामलां मातरम्!
शुभ-ज्योत्सना-पुलकित-यामिनीम्
फुल्ल-कुसुमित-द्रमुदल शोभिनीम्
सुहासिनी सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम्!
सन्तकोटिकंठ-कलकल-निनादकराले
द्विसप्तकोटि भुजैर्धृतखरकरबाले
अबला केनो माँ एतो बले।
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं
रिपुदल वारिणीं मातरम्!
तुमि विद्या तुमि धर्म
तुमि हरि तुमि कर्म
त्वम् हि प्राणाः शरीरे।
बाहुते तुमि मा शक्ति
हृदये तुमि मा भक्ति
तोमारइ प्रतिमा गड़ि मंदिरें-मंदिरे।
त्वं हि दूर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमल-दल विहारिणी
वाणी विद्यादायिनी नवामि त्वां
नवामि कमलाम् अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलां मातरम्!
वन्दे मातरम्!
श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम्
धरणीं भरणीम् मातरम्।
(साभारः आनन्द मठ् पृ0 60, राजकमल प्रकाशन,संस्करण तृतीय, 1997)
अनुवाद
1.
हे माँ मैं तेरी वन्दना करता हूँ
तेरे अच्छे पानी, अच्छे फलों,
सुगन्धित, शुष्क, उत्तरी समीर (हवा)
हरे-भरे खेतों वाली मेरी माँ।
2.
सुन्दर चाँदनी से प्रकाशित रात वाली,
खिले हुए फूलों और घने वृ़क्षों वाली,
सुमधुर भाषा वाली,
सुख देने वाली वरदायिनी मेरी माँ।
3.
तीस करोड़ कण्ठों की जोशीली आवाज़ें,
साठ करोड़ भुजाओं में तलवारों को
धारण किये हुए
क्या इतनी शक्ति के बाद भी,
हे माँ तू निर्बल है,
तू ही हमारी भुजाओं की शक्ति है,
मैं तेरी पद-वन्दना करता हूँ मेरी माँ।
4.
तू ही मेरा ज्ञान, तू ही मेरा धर्म है,
तू ही मेरा अन्तर्मन, तू ही मेरा लक्ष्य,
तू ही मेरे शरीर का प्राण,
तू ही भुजाओं की शक्ति है,
मन के भीतर तेरा ही सत्य है,
तेरी ही मन मोहिनी मूर्ति
एक-एक मन्दिर में,
5.
तू ही दुर्गा दश सशस्त्र भुजाओं वाली,
तू ही कमला है, कमल के फूलों की बहार,
तू ही ज्ञान गंगा है, परिपूर्ण करने वाली,
मैं तेरा दास हूँ, दासों का भी दास,
दासों के दास का भी दास,
अच्छे पानी अच्छे फलों वाली मेरी माँ,
मैं तेरी वन्दना करता हूँ।
6.
लहलहाते खेतों वाली, पवित्र, मोहिनी,
सुशोभित, शक्तिशालिनी, अजर-अमर
मैं तेरी वन्दना करता हूँ।
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राष्ट्रीयता के प्रश्न पर चर्चा करेगा अब ‘‘रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा’’ aziz-burney-final-shots-vande-matram
राष्ट्रीयता के प्रश्न पर चर्चा करेगा अब ‘‘रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा’’ aziz-burney-final-shots-vande-matram
रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के सम्पादक के रूप में मुझे भी इस बहस में शामिल होने की आवश्यकता पेश आएगी। बहरहाल आज का कड़वा सच यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर यह बहस जारी है और हमने इस बहस को अंतिम चरण तक पहुंचाने के इरादे से इसमें शामिल होना स्वीकार कर लिया है।
AZIZ BURNEY ---- Group Editor Roznama Rashtriya Sahara (Daily) Bazme Sahara (Weekly) Aalmi Sahara (Monthly)
पहली कडी
इस समय मैं केवल एक लेखक, एक पत्रकार या एक सम्पादक की हैसियत से ही स्वयं को नहीं देख रहा हूं, और इस समय मैं स्वयं को बस एक मुस्लिम प्रतिनिधि के रूप में भी नहीं महसूस कर रहा हूं, बल्कि मेरी इस बात को एक निष्पक्ष रिसर्च इस्कोलर के शोध पर ही आधारित समझें तो किसी सही नतीजे पर पहुंच सकेंगे। आज का यह लेख निःसन्देह मेरे नियमित पाठकों के लिए लिये तो है ही परन्तु साथ में इस लेख के द्वारा अपने हमवतन भाई बहनों का ध्यान भी आकर्षित करना चाहता हूं इसलिए कि मेरे सामने राष्ट्रीय चिन्ह पर लिखी वह पंक्ति है जिस पर दर्ज है ‘‘सत्यमेव जयते’’ अर्थात सच्चाई की जीत होती है।
अतः मुझे पूर्ण विश्वास है कि इंशाअल्लाह जीत सच्चाई की ही होगी, बस इसे सलीके और बुद्धिमानी के साथ पेश किये जाने की आवश्यकता है। हम मानते हैं कि पत्थर पर लिखी यह वह पंक्ति है जो भारत की सोच का आइना है। यही कारण है कि मैं राष्ट्रीय प्रतीक पर लिखे गये इन दो शब्दों को ही कसौटी मानकर अपनी बात समस्त भारतीयों की सेवा में पेश करने जा रहा हूं और यह निर्णय उन पर छोड़ता हूं कि राष्ट्रगीत वन्दे मात्रम के मामले में अभी तक जो दृष्टिकोण बना हुआ है क्या उस पर नये सिरे से चिन्तन मनन की आवश्यकता है या नहीं? इस बात को छोड़ दें कि यह आपत्ति मुसलमानों की तरफ से की जाती रही है।
इस बात को छोड़ दें कि 6 वर्ष पहले भारत के गौरवशाली शिक्षा संस्थान दारउल उलूम देवबन्द ने इसके गाये जाने को अनुचित ठहराया है। इस बात को छोड़ दें कि जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के 30वें अधिवेशन में पेश किये गये प्रस्तावों में दारउल उलूम देवबन्द के फतवे का समर्थन किया गया है। अब बात हो तथ्यों की रोशनी में, ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के हवालों के साथ, केवल भावनाओं की दुहाई देकर नहीं! मेरे सामने इस समय कुछ महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं और जो पहला दस्तावेज़ है वह है बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय का नोवेल ‘‘आनन्द मठ’’।
मैं इसका एक-एक शब्द आरंभ से अंत तक न केवल पढ़ चुका हूं बल्कि ध्यानपूवर्क अध्ययन कर चुका हूं और अभी भी यह मेरे अध्ययन में है, इसलिए कि मैं अब केवल वह ही नहीं पढ़ रहा हूं, जो शब्दों में लिखा गया है बल्कि अब वह भी पढ़ने का प्रयास कर रहा हूं, जिसे लिखा तो नहीं गया, मगर एक संदेश के रूप में पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास किया गया है।
इसके कुछ वाक्य मैं आज भी अपने पाठकों की सेवा में पेश करने जा रहा हूं और इस निवेदन के साथ कि ‘‘आनन्द मठ’’ के यह वाक्य हम सब अपने हमवतन भाईयों के सामने भी ससम्मान अवश्य रखें और उनसे निवेदन करें कि कृप्या इन्हें ईमानदारी की कसौटी पर परखें, उपन्यासकार की मानसिकता का अन्दाज़ा करें, फिर वन्दे मात्रम पर बात करें, उसके राष्ट्रगीत होने पर गौर करें, मुसलमानों की आपत्ति के कारण को समझें, तब सम्भवतः हम राष्ट्रहित में किसी नतीजे पर पहुंच सकें।
‘‘आनन्द मठ’’ के पृष्ठ-77 पर तीसरी और चैथी पंक्ति में लिखा हैः
‘‘हम राज्य नहीं चाहते- हम केवल मुसलमानों को भगवान का विद्वेषी मानकर उनका वंश-सहित नाश करना चाहते हैं।’’पृष्ठ-88-89 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय ने अपने उपन्यास ‘‘आनन्द मठ’’ में लिखा हैः
‘‘भवानंद ने कह दिया था, ‘‘भाई, अगर किसी घर में एक तरफ मणि-मणिक्य, हीरक, प्रवाल आदि देखो और दूसरी तरफ टूटी बंदूक देखो तो मणि-मणिक्य, हरिक और प्रवाल छोड़कर टूटी बंदूक ही लेकर आना।’’
इसके अलावा उन्होंने गांव-गांव में खोजी दस्ते भेजे। खोजी लोग जिस गांव में हिन्दू देखते, कहते, ‘‘विष्णुपूजा करोगे?’’ यह कहकर 20-25 आदमी साथ लेकर मुसलमानों के गांव में आते और उनके घरों में आग लगा देते। मुसलमान प्राण-रक्षा के लिए भागमभाग करते। सन्तान उनका सब कुछ लूटकर नए विष्णु-भक्तों में वितरित कर देते। लूट का माल पाकर ग्रामीण लोग बेहद खुश हो जाते तो उन्हें मंदिर में लाकर सन्तान बनाया जाता। लोगों ने देखा, सन्तान बनने में खूब लाभ है। खासकर सभी मुसलमान-राज्य की अराजकता तथा अकुशल शासन के कारण परेशान हो उठे थे।
हिन्दू-धर्म के विलोप होने से अनेक हिन्दू हिन्दुओं की पुनस्र्थापना के लिए आग्रहशील थे। अतएव दिन-ब-दिन सन्तानों की संख्या में वृद्धि होने लगी। हर दिन सौ-सौ, हर माह हज़ारो हज़ारों सन्तानें भवानंद-जीवानंद के चरणों को स्पर्श करने आ पहुंचती, दलबद्ध होकर वे दिग-दिगन्त से मुसलमानों को शासन करने से बेदखल करने लगी। जहां वे राजपुरूष पाते उन्हें पकड़ कर उनकी मारपीट करते। कभी-कभी उनकी हत्या तक कर देते। जहां वे सरकारी रूपया पाते, लूटकर उसे घर ले आते। जहां मुसलमानों का गांव पाते, आग लगाकर उसे भस्मीभूत कर देते।
यह विद्रोह देखकर तब स्थानीय राजपुरूषों ने सन्तानों को शासित करने के वास्ते भारी मात्रा में सेना भेजनी शुरू कर दी। मगर अब सन्तान लोग दलबद्ध थे, सशस्त्र थे और महापराक्रमी व अनुशासित थे। उनके दर्प के आगे मुसलमानों की सेना आगे नहीं बढ़ पाती। यदि आगे बढ़ती तो अमित अल के साथ सन्तान उनके ऊपर टूट पड़ती और उन्हें छिन्न-भिन्न करके हरि-ध्वनि का शोर गुंजा देती। यदि कभी किसी सन्तान सेना को यवन-सेना पराजित कर देती तो न जाने कहां से सन्तानों का एक दल आ धमकता और विजेताओं का सिर काटकर फेंक देता और हरि-ध्वनि करता हुआ चला जाता। इस समय में कीर्तिमान्य भारतीय अंग्रेज़-कुल के प्रातः सुर्य वारेन हेस्टिंग साहब भारतवर्ष के गवर्नर जनरल थे।
‘‘आनन्द मठ’’ के पृष्ठ-111 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय लिखते हैं:
‘‘भाई ऐसा भी दिन कभी नसीब में आएगा कि मस्जिद तोड़कर राधा-माधव का मन्दिर बना सकूं?’’
दस हज़ार नर-कंठों का कल-कल रत्र, मधुर वायु से संताड़ित वृक्षों के पत्तों का गर्मर स्वर, रेतीले तटों में बहती नदी की मृदुल सर्र-सर्र ध्वनि, नील आकाश में चन्द्रमा की आभार श्वेत मेघ-राशि, श्यामल धरणी-तले हरित कानन, स्वच्छ नदी, सफेद रेतीले कण, खिले हुए पुष्प! और बीच-बीच में समवेत स्वर में ‘‘वंदे मातरम’ की गूंज।’’
पाठकगण मेरे हमवतन भाईयों सहित आसानी से यह महसूस कर सकते हैं कि वन्दे मात्रम की यह गूंज किस बात की ओर इशारा करती थी। क्या मुसलमानों के नरसंहार के बाद यह जीत का नारा नहीं था? क्या मुसलमानों की मस्जिदों को तहस-नहस करने के बाद यह सफलता के जश्न का संकेत नहीं था?
एक और पैराग्राफ पाठकों की सेवा में:
‘‘आनंद मठ’’ के पृष्ठ-127 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय लिखते हैंः
‘‘उस एक रात में ही गांव-गांव और नगर-नगर में महाकोलाहल मच गया। सभी कह रहे थे ‘‘मुसलमान हार गए, देश दुबारा हिन्दुओं का हो गया है। सभी एक बार मुक्तकण्ठ में हरि-हरि बोलो।’’ गांव के लोग मुसलमान को देखते ही उसे मारने को दौड़ते। कोई-कोई उस रात दल बनाकर मुसलमानों के मुहल्ले में गया और उनके घरों में आग लगाकर सर्वस्व लूटने लगा। कई यवन मारे गए। अनेक मुसलमानों ने दाढ़ी मुंडवा ली और बदन पर मिट्टी मलकर हरिनाम का जाप करना शुरू कर दिया। पूछने पर कहते, ‘‘हम हिन्दू हैं।’’ दल के दल मुसलमान नगर की ओर भागने लगे।
और अब इस नोवेल का अंतिम पैराग्राफ एक बार फिर पाठकों की सेवा में, ताकि समझा जा सके कि इस नाविल के लिखने के पीछे बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय की मानसिकता क्या थी और वन्दे मात्रम से उनका मूल उद्देश्य क्या था।
‘‘सत्यानन्द ने जवाब दिया, ‘‘चलिए, मैं तैयार हूं। मगर हे महात्मन, मेरा एक संदेह दूर कीजिए। मैंने जिस पल युद्ध में जीतकर सन्तान-धर्म को निष्कंटक किया, उसी समय से मुझे प्रत्याख्यान का आदेश क्यों?’’
जो आए थे, वे बोले, ‘‘तुम्हारा कार्य सिद्ध हो गया, मुसलमानों का राज्य ध्वस्त हो गया। अब तुम्हारा और कोई काम नहीं। अनर्थक प्राणिहत्या की क्या ज़रूरत।’’
‘‘मुसलमानों का राज्य ध्वस्त हो गया, मगर हिन्दुओं का राज्य तो स्थापित नहीं हुआ। अब भी कलकत्ता में अंग्रेज़ों का राज्य है।
‘‘हिन्दुओं का राज्य अभी स्थापित नहीं होगा- तुम्हारे रहने से अनर्थक नर-हत्या होगी। इसलिए चलो...’’सुनकर सत्यानन्द तीव्र मर्मपीड़ा से कातर हो गए। बोले, ‘‘हे प्र्रभू। अगर हिन्दुओं का राज्य स्थापित नहीं होगा तो किसका राज्य होगा? क्या फिर मुसलमानों का राज्य होगा।वे बोले, ‘‘नहीं, अब अंग्रेज़ों का राज्य होगा। ’’
अब अंत में चन्द पंक्तियां सम्मान के साथ अपने उन भाईयों की सेवा में जिन्होंने वन्दे मात्रम की वकालत करते हुए उस के गाये जाने को राष्ट्रीय दायित्व बताने का प्रयास किया है। इस बात को छोड़ दें कि वह हिन्दु है या मुसलमान, क्या उन्होंने बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय के इस नोवेल को पढ़ा है? क्या उन्होंने बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय के जीवन का अध्ययन किया है?
क्या इस उपान्यास के पीछे छुपे उद्देश्य को समझा है? अगर ऐसे हर प्रश्न का उत्तर हां है और फिर भी उनका निर्णय वही है तो फिर मुझे उन लोगों से कुछ नहीं कहना, मगर न्यायप्रिय भारतीयों से अवश्य कहना है कि भारत का हर एक मुसलमान हमारे राष्ट्रीय ध्वज को स्वीकार करता है, इस पर कोई बात नहीं करता, राष्ट्र चिन्ह को दिल की गहराई से स्वीकार करता है कोई बहस नहीं करता, राष्ट्रगान जन गण मन गाने पर गर्व अनुभव करता है।
किसी को कोई आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय पंचाग अर्थात कलंडर का कोई विरोध नहीं। राष्ट्रीय पशु के रूप में शेर को स्वीकार करने पर कोई आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय पक्षी मोर को स्वीकार करने पर कोई बहस नहीं, राष्ट्रीय पुष्प अगर कमल है तो है, किसी को आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय वृक्ष का तम्ग़ा यदि बरगद के पास है तो यह भी स्वीकार है, राष्ट्रीय फल आम खुशी से स्वीकार है........फिर अगर इन सब के बीच केवल राष्ट्रगीत वन्दे मात्रम पर ही आपत्ति है तो आपत्ति के कारण को भी समझना होगा, ऐसे तमाम कारणों को वास्तविकता के आइने में देखना होगा, पूरी ईमानदारी के साथ राष्ट्रीय हितों, साम्प्रदायिक सौहार्द के महत्व को महसूस करते हुए कोई निर्णय लेना होगा।
मैं आज भी नहीं कहता कि वन्दे मात्रम गाया जाये या न गाया जाये, मैं तो पहले राष्ट्रीय स्तर पर तमाम तथ्यों को जनता के सामने रख देना चाहता हूं और फिर निवेदन वतन के जिम्मेदारों से यह करना चाहता हूं कि अगर यह बहस छिड़ ही गई है तो दोबारा इस पर गौर करें और किसी ऐसे नतीजे पर पहुंचे कि जिससे न किसी की भावनाएं आहत हों, न किसी को शर्मिन्दगी का अहसास हो और न किसी की आस्था को ठेस पहुंचे। यह समय की एक अहम आवश्यकता भी है और वतन से मोहब्बत का तकाज़ा भी......
-----आज बात राष्ट्रीयता पर। रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा का सम्पादक हूं मैं और वो भी पहले ही दिन से, इसलिए यह अधिकार तो बनता है मेरा, ‘‘राष्ट्रीयता’’ शब्द पर बात करने का। वैसे भी मैं अपने आपको पूरी तरह राष्ट्रीय मानता हूं। यहां मुसलमान होने की तुलना की जाने की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है, वह धर्म है मेरा और यह राष्ट्रीयता है मेरी। बहरहाल 1991 में जब ‘राष्ट्रीय सहारा’ आरम्भ हुआ तब हिन्दी के बाद उर्दू में नाम राष्ट्रीय सहारा ही रहे या राष्ट्रीय शब्द का उर्दू अनुवाद अर्थात ‘‘क़ौमी सहारा’’ रखा जाए, यह तय किया जाना था। परम आदरणीय सुब्रत राय सहारा अर्थात सहारा श्री जी ने यह निर्णय हम पर छोड़ते हुए कहा कि आप बताएं क्या उचित रहेगा?
उस समय यह मेरा ही फैसला था जिसे चेयरमैन साहब व अन्य सभी के द्वारा स्वीकार कर लिया गया और इस तरह तय पाया कि उर्दू में नाम ‘‘राष्ट्रीय सहारा’’ ही रहेगा। आज हमारी अंग्रेज़ी पत्रिका ‘सहारा टाइम’ और टीवी चैनल ‘सहारा समय’ के नाम से पहचाने जाते हैं लेकिन उर्दू ‘‘रोजनामा राष्ट्रीय सहारा’’ के नाम से ही। उस समय मुझे यह बिल्कुल अनुमान नहीं था कि 18 वर्ष बाद जब राष्ट्रीय गीत ‘‘वंदे मातृम’’ पर बहस छिड़ी होगी तो रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के सम्पादक के रूप में मुझे भी इस बहस में शामिल होने की आवश्यकता पेश आएगी। बहरहाल आज का कड़वा सच यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर यह बहस जारी है और हमने इस बहस को अंतिम चरण तक पहुंचाने के इरादे से इसमें शामिल होना स्वीकार कर लिया है।
दूसरी कडी
दारूल उलूम देवबन्द का सवाल कितना उचित कितना अनुचित ?
सबसे पहले तो मैं अपने तमाम पाठकों और देशवासियों की सेवा में यह निवेदन करना चाहता हूं कि वंदे मातृम की स्वीकार्यता या उसके गाए जाने को किसी धर्म की पृष्ठ भूमि में देखना उचित नहीं होगा, बल्कि इसे राष्ट्रीय परिदृश्य में देखना होगा, राष्ट्र प्रेम के दृष्टिकोण से देखना होगा और यह भी दिमाग में रखना होगा कि इस पर आपत्ति केवल मुसलमानों की तरफ़ से ही नहीं बल्कि स्वयं राबिन्दर नाथ टैगोर जिनकी रचना को राष्ट्रगान होने का सम्मान प्राप्त है। और जिन्होंने इसकी पहली दो पंक्तियों को 1896 में गाया था। उन्होंने इस पर आपत्ति भी जाहिर की थी, और इस आपत्ति में वह अकेले नहीं थे, बल्कि ‘‘ब्रह्मो समाज’’ से संबंध रखने वाले हिन्दू भद्रजन भी मुसलमानों के साथ-साथ आपत्ति करने वालों में शामिल थे।
निःसंदेह कि अब मेरा यह श्रृंखलाबद्ध लेख ‘‘वंदे मातृम’’ पर केन्द्रित है जिसे राष्ट्रगीत क़रार दिया गया है परन्तु मैं आज उन तमाम राष्ट्रीय प्रतीकों से अपनी बात शुरू करना चाहता हूं जिन्हें राष्ट्रीय प्रतीक का स्थान प्राप्त है। अतएव सबसे पहले ‘‘राष्ट्रीय ध्वज’’ की बात करना चाहूंगा। हमारे राष्ट्रीय ध्वज में तीन अलग-अलग रंग की सीधी पट्टियां हैं, जिनमें समान अनुपात में गहरा केसरिया रंग सबसे ऊपर है, बीच में सफ़ेद और सबसे नीचे हरा। सफ़ेद पट्टी के बीच में नीले रंग का चक्कर, जिसे अशोक के चक्र से लिया गया है, जिसमें 24 तीलियां हैं, इसे राष्ट्रीय ध्वज की हैसियत से 22 जुलाई 1947 को अपनाया गया।
यूं तो रंगों का कोई धर्म नहीं होता फिर भी रंगों को धर्मों की पहचान से जोड़ कर भी देखा जाता है और इस दृष्टि से अगर देखें तो हरे रंग को मुसलमानों से और केसरिया रंग को हिन्दुओं से जोड़ कर देखा जाता है। जिस समय हमारे राष्ट्रीय ध्वज को स्वीकार किया गया क्या मुसलमानों ने इस बात पर आपत्ति की कि हरा रंग सबसे नीचे क्यों है? स्वाधीनता की लड़ाई में हम किसी से पीछे तो न थे और क्या इस बात पर आपत्ति की गई कि भगवा रंग सबसे ऊपर क्यों है? क्या किसी ने कहा कि चलो सफ़ेद रंग जो अमन व शान्ति का प्रतीक है उसे ही सबसे ऊपर रखा जाए, या झंडे की शक्ल कुछ ऐसी हो कि केसरया और हरा रंग बराबरी के महत्व के साथ शामिल किए जाएं न कोई ऊपर न कोई नीचे, शायद नहीं।
यह भी ध्यान में रहे कि जिस समय अर्थात 22 जुलाई 1947 को इसे हमारे राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार किया गया उस समय तक पाकिस्तान अस्तित्व में नहीं आया था, अर्थात यह राष्ट्रीय ध्वज सभी के लिए स्वीकार्य था, सभी की रज़ामंदी से स्वीकार किया गया था, अर्थात इस निर्णय में पंडित जवाहर लाल नेहरू भी शामिल थे सरदार पटेल भी और मुहम्मद अली जिन्ना भी और बात केवल एक जिन्ना की नहीं, बल्कि वह समस्त मुसलमान भी शामिल थे जो बाद में पाकिस्तान के नागरिक कहलाए, किसी को भी इस ध्वज पर कोई आपत्ति नहीं थी।
अब बात राष्ट्रीय चिन्ह की- हमारा राष्ट्रीय चिन्ह जो कि अशोक के सिंह इस्तम्भ, शेरों वाली लाठ से लिया गया है, जिसमें चार शेर एक दूसरे की ओर पीठ किए हुए हैं, नीचे घण्टे की शक्ल के पदम के ऊपर एक चित्र, वल्लरी में एक हाथी चैकड़ी भरता हुआ, एक घोड़ा, एक सांड और एक शेर की उभरी हुई मूर्तियां हैं इसके बीच-बीच में चक्र बने हुए हैं जो लोहे के पत्तल को काट-काट कर बनाए गए हैं। संग स्तम्भ के ऊपर धर्म चक्र रखा हुआ है। इसमें केवल तीन शेर दिखाए देते हैं चैथा दिखाई नहीं देता, पट्टी के बीचों-बीच उभरी हुई नक्काशी में चक्कर है जिसके दाईं ओर एक सांड और बाईं ओर एक घोड़ा है। दाएं और बाएं किनारों पर अन्य चक्करों के किनारे हैं। भारत सरकार ने इस चिन्ह को 26 जनवरी 1950 को अपनाया
‘‘मंडिकोपनिषद (उपनिषद का नाम) का सूत्र के बाद ‘सत्यमेव जयते’ देवनागरी लिपि में अंकित है जिसका अर्थ है सत्य की ही विजय होती है।’’
इस राष्ट्रीय प्रतीक पर कोई टिप्पणी न करते हुए मैं केवल इतना कहना चाहूंगा कि क्या कोई आपत्ति किसी भी ओर से देखने या सुनने को मिली? किसी इस्लामी संस्था या मुसलमानों के प्रतिनिधियों ने कभी इसे वाद-विवाद का विषय बनाया? शायद कभी नहीं?
यह बात कुछ केन्द्रीय विषय से अलग लग सकती है मगर मैं अपने पाठकों से निवेदन करना चाहता हूं कि इस शुष्क लेख को इसलिए सहन कर लें कि इन पंक्तियों के द्वारा मैं कोई महत्वपूर्ण बात करने का इरादा रखता हूं। शायद इसे उस समय तक नहीं समझा जा सकता जब तक कि बात पूरी न हो जाए। अलबत्ता इरादा क्या है यह मैं शुरू में ही सामने रख देना चाहता हूं ताकि पढ़ने वालों और सुनने वालों की दिलचस्पी बनी रहे इस लेख के अन्तर्गत, मैं इन तमाम प्रतीकों पर बात करना चाहता हूं जिन्हें हम अपना राष्ट्रीय प्रतीक स्वीकार करते हैं जो हमारी राष्ट्रीय निशानियां हैं।
उसके बाद मैं साबित यह करना चाहता हूं कि यदि तमाम राष्ट्रीय निशानियों में से किसी एक पर भी ऐसी आपत्ति देखने को नहीं मिली जैसी कि वंदे मातृम पर देखने को मिल रही हैतो हमें पूरी ईमानदारी से इस पर ध्यान देना होगा कि आख़िर इसका कारण क्या है और हमें इस सच्चाई पर भी ध्यान देना होगा कि हमारी इन सभी राष्ट्रीय निशानियों के से ऐसी कोई भी निशानी नहीं है, सिवाए वंदे मातृम के जहां हमने किन्हीं दो राष्ट्रीय निशानियों को एक ही श्रेणी में रखा हो।
उदाहरणतः हमारा राष्ट्रीय ध्वज एक है तो है, दो राष्ट्रीय ध्वजों को यह सम्मान प्राप्त नहीं है कि हम दोनों को अपना राष्ट्रीय ध्वज मानें। अगर हमारा राष्ट्रीय चिन्ह जिसका अभी उल्लेख किया एक है तो है, जो सभी के लिए स्वीकार्य है, ऐसा नहीं कि हमने दो राष्ट्रीय चिन्ह अर्थात राष्ट्रीय निशान स्वीकार कर लिए हों और दोनों को एक जैसी हेसियत प्राप्त हो, तब फिर ऐसी क्या विवश्ता हमारे सामने आई कि हमारे एक राष्ट्रगान के होते हुए हमें एक और राष्ट्रीय गीत की आवश्यकता महसूस हुई? यह उल्लेख मैं इसलिए कर रहा हूं कि हमने राष्ट्रीय पंचांग अर्थात केलण्डर भी एक ही माना है, जबकि एक से अधिक केलण्डर भारत में आज भी मौजूद हैं और प्रयोग में भी। राष्ट्रीय पशु एक ही है, किसी ने यह बहस नहीं की कि उसके पसंदीदा अन्य किसी पशु को भी राष्ट्रीय पशु का स्थान प्राप्त हो।
राष्ट्रीय पक्षी वह भी एक ही सबको स्वीकार्य है, यहां तक कि राष्ट्रीय फूल, राष्ट्रीय वृक्ष, राष्ट्रीय फल किसी पर न कोई विवाद न बहस न एक साथ दो वृक्ष, दो फूल या दो फल एक जैसे महत्व वाले। अर्थात तमाम राष्ट्रीय प्रतीकों में केवल एक राष्ट्रीय गान और राष्ट्रीय गीत यही दो हैं और इनमें से भी विवाद केवल ‘‘वंदे मातृम पर है और यह विवाद भी इतना कि इसे राष्ट्र से प्रेम की कसौटी बनाकर पेश किया जा रहा है। अगर ऐसा न होता तो सम्भवतः हमारी बहस इतनी लम्बी न होती, मगर अब चूंकि यह राष्ट्रीय स्तर पर बहस का विषय है और हमारे बनाए बिना है तो फिर यह हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है कि तमाम सच्चाइयों के साथ इसे राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय परिपेक्ष में राष्ट्र के सामने रख दें फिर जो निर्णय राष्ट्र का।
नोटः आज से हम रोज़ एक ऐसा गीत भी प्रकाशित करने जा रहे हैं जो स्वाधीनता संघर्ष के दौरान लिखा गया और गाया गया ताकि हमारे पाठक अनुमान कर सकें कि किस-किस गीत ने आज़ादी के मतवालों के दिलों में वह स्थिति पैदा की होगी कि हमारी आज़ादी का सपना वास्तविकता में बदल गया और हम गुलामी की ज़ंजीरें तोड़ने में कामयाब हुए, और साथ ही यह भी कि वह आज़ादी के गीत किस-किस ने लिखे और किस-किस भाषा में। हमें यह भी याद रखना होगा कि उस समय वह कौन-कौन सी भाषाएं थीं जो लोकप्रिय थीं और किन-किन भाषाओं में कही जाने वाली बात कितना प्रभाव रखती थी। अगर हमारी बात को समझना ज़रा भी कठिन लगे तो याद करें लता मंगेशकर की आवाज़ में गूंजने वाला यह गीत:
‘‘ऐ मेरे वतन के लोगों! ज़रा आँख में भर लो पानी,
जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कु़रबानी’’।
..............(जारी)
हमारा देस
जग से भला संसार से प्यारा।
दिल की ठन्डक आंख का तारा।
सबसे अनोखा सबसे नियारा।
दुनिया के जीने का सहारा।
प्यारा भारत देस हमारा।।
इसके दरया, इसके समुन्दर।
इसके संगम, इसके बंदर1।
प्रेम की मूरत, प्रीत का मंदर।
हुस्नो मुहब्बत का गहवारा2।
प्यारा भारत देस हमारा।।
कितनी पुर क़ैफ़3 इसकी अदाएं।
कितनी दिलकश इसकी फ़िज़ाएं।
मुश्क से बढ़कर इसकी हवाएं।
ख़ुल्द4 से बेहतर इसका नज़ारा।
प्यारा भारत देस हमारा।।
मुल्क को हासिल हो आज़ादी।
ख़त्म हो दौरे सितम ईजादी5।
दूर हो इसकी सब बरबादी।
चर्ख़े6 पे चमके बन के तारा।
प्यारा भारत देस हमारा।।
हम में पैदा हो यक जाई।
सब हों बाहम भाई भाई।
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई।
गाएं मिलकर गीत यह प्यारा।
प्यारा भारत देस हमारा।।
हकीम मोहम्मद मुस्तफा ख़ां
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हमारे राष्ट्रीय प्रतीक हिन्दू धर्म के प्रतीक भी हैंक़ुरआने करीम पूर्ण जीवन दर्शन है, मानव जीवन के लिए। विश्व की कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे क़ुरआने करीम की रोशनी में समझा न जा सके। आयाते क़ुरआनी को समझना जब हमारे लिए मुश्किल होता है तो हम हदीस की तरफ़ लौटते हैं और जब कोई हदीस समझ से ऊपर होती है तो हम क़ुरआन की तरफ़ लौटते हैं। क़ुरआने करीम के द्वारा ईश्वर ने क्या संदेश दिया है इसे समझने के लिए कभी-कभी केवल आयाते क़ुरआनी को पढ़ लेना ही पर्याप्त नहीं होता बल्कि हमें अनुवाद, टीकाऐं और उसके उतरने के कारण का भी सहारा लेना पड़ता है। जब हम इस दृष्टिकोण से ध्यान पूर्वक अध्य्यन कर लेते हैं तब उस संदेश तक पहुंचना बहुत सरल हो जाता है।यही कार्य पद्धति यदि हम विश्व के सभी मामलों में गूढ़ समस्याओं को सुलझाने के लिए व्यवहार में लाएं तो इस पवित्र आकाशीय पुस्तक का प्रकाश हर दृष्टिकोण से हर पक्ष को स्पष्ट कर देता है। ‘वन्दे मातरम’ भारतीय समाज के लिए पिछले लम्बे समय से अनसुल्झी पहेली बना हुआ है। अक्सर इस पर विवाद खड़ा हो जाता है, लम्बी बहस चलती है, फिर लोग थक जाते हैं, नई समस्याऐं अपनी ओर ध्यान केन्द्रित कर लेती हैं और यह समस्या पीछे चली जाती है। आज़ादी के पूर्व से लेकर अब तक इसी प्रकार यह सिलसिला जारी है।यदि दारूल उलूम बेवबंद की गरिमा को निशाना न बनाया जाता तो शायद हमें इतनी गहराई से शोध की आवश्यक्ता पेश न आती। परन्तु अब जबकि देशवासियों के एक वर्ग विश्ेष ने देशप्रेम का पैमाना वन्दे मातरम को ही मान लिया है तो हमें ज़रूरी लगा कि क़ौम के दामन पर दाग़ लगाने की इस कोशिश को असफ़ल बनाने के लिए पूरी ईमानदारी के साथ तमाम तथ्यों को भारत सरकार और जनता के सामने रख दिया जाये। मैं फिर यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि वन्दे मातरम के सम्बंध में मेरे लेख न तो इसके विरोध में हैं और न इसके समर्थन में। हमारा प्रयास तो बस इतना है कि हम सब तमाम सच्चाइयों को खुली आंखों से देख लें फिर जिसकी सद्बृद्धि जो उचित समझे.कोई भी बात कब कही गई, किन परिस्थितियों में कही गई, किस काल में कही गई और किस अवसर पर कही गई, जब तक हम इसका अध्य्यन नहीं करेंगे, बात की गहराई तक पहुंचना आसान नहीं होगा। राष्ट्र गीत की हैसियत रखने वाले वन्दे मातरम पर बहस आरम्भ करने के तुरन्त बाद मैंने आवश्यक समझा कि इस ऐतिहासिक परिदृश्य की ध्यान पूर्वक विवेचना की जाये, कि जब इसे लिखा गया वह परिस्थितियाँ किया थीं? लिखने का कारण क्या था? काल क्या था और कब इसे ‘राष्ट्र गीत’ का दर्जा दिया गया? साथ ही हमारी राष्ट्रीय पहचान से सम्बद्ध जितनी भी निशानियाँ हैं उनका भी गहराई से अध्य्यन किया जाये।
यह भी देखा जाये कि केवल राष्ट्र गीत ही दो हैं या हमारी अन्य राष्ट्रीय निशानियाँ भी दो-दो हैं फिर जब हम किसी एक का चुनाव करते हैं तो हमारी नज़र इस वर्ग में आने वाली अन्य अनेक चीज़ों पर भी होती है, उदाहरण स्वरूप मैं अपने लेख के साथ पिछले कई दिन से एक-एक कविता भी प्रकाशित कर रहा हूँ। यह कविता, गीत, तराना या आज की लोरी सब के सब स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन कविगण द्वारा लिखे गए जिनमें हिन्दू और मुसलमान दोनों का काव्य है, जो स्वतंत्रता सैनानियों के उत्साह को बढ़ाने के इरादे से लिखी गयीं।
आज इस लेख के साथ प्रकाशित की जाने वाली लोरी मोहतरम अख़तर शीरानी की कृति है और इसकी सबसे बड़ी विशेषता मुझे यह लगी कि इस दौर में एक माँ अपने अल्पायु बच्चे को नींद की गोद में पहुंचने से पूर्व भी उसे देशभक्ति का गीत सुनाती थी और उसके मन व मस्तिष्क में वह उत्साह पैदा करती थी कि वह अपने देश की स्वतंत्रता को अपने जीवन का उद्देश्य बनाकर जीवन बिताये। यह भावना थी हमारे शायरों की और यह वह गीत हैं जिनसे घबरा कर अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें ज़ब्त कर लिया था। इसलिए कि वह समझते थे कि उनका प्रभाव इतना गहरा है कि उनकी सरकार की चूलें हिल सकती हैं। मुझे नहीं मालूम कि क्या ‘वन्दे मातरम्’ भी अंग्रेज़ सरकार द्वारा ज़ब्त किया गया?
शोध जारी है, वैसे भी अभी मैंने सीधे रूप में वन्दे मातरम् पर बहस का सिलसिला शुरू नहीं किया है, हां अल्बत्ता आनन्द मठ के कुछ हवाले ज़रूर पेश किये हैं। इन्शा अल्लाह जल्द ही तमाम विस्तार के साथ इस पर भी क़ल्म उठाया जायेगा। अभी तक तो राष्ट्रीय प्रतीकों पर बातचीत जारी थी, इनमें से जिन तीन का उल्लेख शेष रह गया आज उस पर बात समाप्त करना चाहता हूँ और वह तीन प्रतीक हैं हमारा राष्ट्रीय फल, राष्ट्रीय फूल और राष्ट्रीय वृक्ष।हमारा राष्ट्रीय फल ‘आम’ है वेदों में आम को भगवान का फल बताया गया है, मैं इस पर कोई बहस नहीं करना चाहता, मिर्ज़ा ग़ालिब को भी आम बहुत पसन्द थे और शायद सभी भारतियों की पहली पसन्द भी आम हैं। हां फूल पर कुछ वाक्य अवश्य लिखना चाहेंगे। ‘कमल’ के फूल को भारत मंे प्राचीन काल से ही पवित्र माना जाता रहा है और भारतीय देवमाला में इसे विशेष स्थान प्राप्त है। हिन्दू धर्म के अनुयाइयों के लिए यह फूल विशेष महत्व रखता है। इस धर्म के अनुसार कमल को भगवान विष्णु, ब्रह्मा, लक्ष्मी और पार्वती से जोड़ा जाता है। भगवान विष्णु के सौन्र्दय का उल्लेख करने के लिए कमल से उनको उपमा दी जाती है, अनेक धार्मिक रीतियों को पूरा करने में भी कमल के फूल का प्रयोग किया जाता है।वेदों में भी कमल का उल्लेख मिलता है। सम्भव है कि इन्ही विशेषताओं के आधार पर भारतीय जनता पार्टी ने इसे अपना चुनाव चिन्ह चुना है। अन्यथा पण्डित जवाहर लाल नेहरू की शेरवानी पर मुस्कराने वाला गुलाब का फूल भी अपने सौन्र्दय और सुगन्ध के लिए तमाम फूलों में एक विशेष स्थान रखता है और वर्ष में एक दिन ऐसा भी आता है जब प्रेम करने वाले युवा लड़के लड़कियों के द्वारा फूल उनका प्रेम सन्देश बन कर उनके प्रेमी तक पहुंचता है और हमारे लिए तो इसका महत्व यूँ भी बढ़ जाता है कि ख़वाजा ग़रीब नवाज़ (रह।) की दरगाह हर समय इसी गुलाब की सुगन्ध से महकती रहती है और यह फूल तीर्थ स्थल ‘पुष्कर’ से आता है।
बहरहाल अब उल्लेख राष्ट्रीय वृक्ष ‘बरगद’ का। नीम के हवाले से आयुर्वेद और यूनानी दवाइयों के विशेषज्ञ बहुत कुछ कहते हैं, हमारे पूर्वज भी नीम के वृक्ष को आंगन में लगाना स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक समझते हों, यह सब अलग बात है, परन्तु हमारा राष्ट्रीय वृक्ष ‘बरगद’ है। जब मैं बरगद की विशेषताओं का अध्य्यन कर रहा था तो इतनी सामग्री मेरे सामने थी कि कई लेख केवल बरगद के धार्मिक पहलू को सामने रख कर लिखे जा सकते हैं। फल और फूल की दृष्टि से तो बरगद का उल्लेख निरर्थक है, इसलिए कि इस पर लगने वाले फूल और फल उल्लेखनीय नहीं, हां अल्बत्ता इसकी विशालता शेष सभी वृक्षों से बढ़कर है।अब रहा प्रश्न इसे हिन्दू धर्म के महत्व के रूप में देखने का तो प्राचीन काल से ही भारत में इसकी पूजा की जाती रही है। ऋज्ञ वेद और अथर वेद ने इसकी पूजा को अनिवार्य क़रार दिया है। हिन्दू देव माला में भगवान शिव को बरगद के वृक्ष के नीचे बैठा हुआ बताया गया है। हिन्दू धर्म के अनुयायी इसे ‘कल्प वृक्ष’ भी कहते हैं जिसका अर्थ है कि एक ऐसा वृक्ष जो तमाम मुरादों को पूरा करता है। सम्भव है इसका एक कारण यह भी रहा हो कि जब चित्रकूट की ओर जाते हुए सीता जी के रास्ते में यह वृक्ष पड़ा तो उन्होनें इसे नमस्कार किया और अपने पतिव्रत धर्म के पालन के लिए इस वृक्ष से प्रार्थना की। हाथ जोड़ कर सीता जी बहुत देर तक मौन इसके सामने खड़ी रहीं और अपनी मुराद को पूरा करने की प्रार्थना की जिसे संस्कृत के इस श्लोक में दर्शाया गया हैतेषु ते प्लवमुत्सृज्य प्रस्थाय यमुनावनात् ।श्यामं न्यग्रोधमासेदुः शीतलं हरितच्छदम् ।।न्यग्रोधं समुपागम्य वैदेही चाभ्यवन्दत ।नमस्तेऽस्तु महावृक्ष पारयेन्मे पतिव्रतम् ।।
रामायण, अयोध्या काण्ड, 2, पृष्ठ 23-24, 55
‘हे महावट वृक्ष जो यमुना के किनारे स्थित है और शीतल छाया से आच्छादित है, मुझे पतिव्रता धर्म का पालन करने की सार्मथ्य दो और निर्विधनता का आर्शीवाद दो।’और जब बनवास से सीता जी श्रीराम जी के साथ वापस लौट रही थीं तो इस सृन्दर वृक्ष को देख कर श्रीराम जी ने सीता जी को सम्बोधित करके कहा कि तुम ने जिस वृक्ष से प्रार्थना की थी, यह अन्य वृक्षों के बीच इस समय ऐसा ही स्पष्ट नज़र आ रहा है जैसे अनेक नीलमों के बीच पुखराज जड़ा हो। सम्भवतः सही कारण है कि आज भी विवाहित हिन्दू महिलाएं लम्बे और ख़ुशहाल गृहस्थ जीवन के लिए बरगद की पूजा करती हैं।अपने इन राष्ट्रीय चिन्हों के सम्बंध में और भी कुछ लिखा जा सकता है परन्तु हम बात को और लम्बा नहीं करना चाहते, इसलिए कि हमें अब वन्दे मातरम् की तरफ़ लौटना है, हां इतना लिखने के पीछे भी उद्देश्य केवल यह था कि इस खोज से जो सच्चाई सामने आती है उससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि तमाम राष्ट्रीय चिन्हों का चुनाव करते समय हमारे धर्मनिरपेक्ष भारत के भाग्य विधाताओं ने क़दम-क़दम पर एक धर्म विशेष के प्रतिनिधित्व का ख़याल रखा था।
लोरीकभी तो रहम पर आमादा बे रहम आसमाँ होगा।
कभी तो ये जफ़ा पेशा मुक़द्दर मेहरबाँ होगा।
कभी तो सर पे अब्रे रहमते हक़ गुलफ़िशां होगा।
मुसर्रत का समाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
किसी दिन तो भला होगा ग़रीबों की दुआओं का
असर ख़ाली न जाएगा ग़म आलूद इलतिजाओं का।
नतीजा कुछ तो निकलेगा फकीराना सदाओं का।
ख़ुदा गर मेहरबाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।
ख़ुदा रख्खे जवाँ होगा तो ऐसा नौजवाँ होगा।
हुसैन व फ़हमदाँ होगा दिलेरो तैग़रां होगा।
बहुत शीरी जुबाँ होगा बहुत शीरी बयाँ होगा।
यह महबूबे जहाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।
वतन और क़ौम की सौ जान से ख़िदमत करेगा यह।
ख़ुदा की और ख़ुदा के हुक्म की इज़्ज़त करेगा यह।
हर अपने और पराए से सदा उल्फ़त करेगा यह।
हर इक पर मेहरबाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
मेरा नन्हा बहादुर एक दिन हथियार उठाएगा।
सिपाही बनके सूए अर्सा गाहे रज़्म जाएगा।
वतन के दुश्मनों की ख़ून की नहरें बहाएगा।
और आख़िर कामरां होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
वतन की जंगे आज़ादी में जिसने सर कटाया है।
ये उस शैदाए मिल्लत बाप का पुरजोश बेटा है।
अभी से आलमें तिफ़ली का हर अन्दाज़ कहता है।
वतन का पासबां होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
है उसके बाप के घोड़े को कब से इन्तिज़ार उसका।
है रस्ता देखती कब से फ़िज़ाए कारज़ार उसका।
हमेशा हाफ़िज़ो नासिर रहे परवरदिगार उसका।
बहादुर पहलवाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
वतन के नाम पर इक रोज़ यह तलवार उठाएगा।
वतन के दुश्मनों को कुन्जे तुरबत में सुलाएगा।
और अपने मुल्क को ग़ैरों के पंजे से छुड़ाएगा।
ग़ुरूरे ख़ान्दाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
सफ़े दुश्मन में तलवार उसकी जब शोले गिराएगी।
शुजाअत बाज़ुओं में (आग) बन के लहलहाएगी।
जबीं की हर शिकन में मर्गे दुश्मन थरथराएगी।
यह ऐसा तेग़ रां होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
सरे मैदान जिस दम दुश्मन उसको घेरते होंगे।
बाजाए ख़ूं रगों में उसकी शोले तैरते होंगे।
सब उसके हमला ऐ शेराना से मुंह फेरते होंगे।
तहो बाला जहां होगा।
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
अख़्तर शीरानी
देश प्रेमी क्यों न गाएँ वन्दे मातरम् ?
मुस्लिम विद्वानों को बुद्धिद्रोही कहने वाले वैदिक जी खुद ही अवैदिक हैं क्योंकि वेदों मे मूर्तिपूजा और बहुदेववाद नहीं है लेकिन वंदे मातरम् गीत के पाँचवे पद में दुर्गा देवी की उपासना व स्तुति की गई है। पाप का समर्थन क्यों ? नाम के साथ वैदिक लिखने मात्र से ही कोई व्यक्ति वैदिक नहीं बन सकता जब तक कि उसकी सोच भी वैदिक न हो।
वैदिक जी प्रज्ञापराधी भी हैं क्योंकि उन्होंने यह तो बताया कि ‘आनन्द मठ’ के पहले संस्करण में मूल खलनायक ब्रिटिश थे लेकिन उन्होंने यह तथ्य छिपाया है कि उसका लेखक हरेक संस्करण में संशोधन करता रहा। पाँचवे संस्करण तक आते-आते मूल खलनायक मुस्लिमों को बना दिया गया था। यही पाँचवा संस्करण देश-विदेश में प्रचारित हुआ।
वैदिक जी खुद बुद्धिद्रोही क्योंकि यह एक कॉमन सेंस की बात है कि आनन्द मठ के सन्यासी विष्णु पूजा के नाम पर हिन्दुओं को इकठ्ठा करते थे और मुसलमानों की बस्ती में पहुँचकर मुसलमानों को लूटते और क़त्ल करते थे, उनकी औरतों की बेहुरमती करते थे। ऐसे समय पर वे वन्दे मातरम् गाते थे। अपने ऊपर ज़ुल्म ढाने वाले दस्युओं का गीत भला कौन गायेगा ? बुद्धिद्रोही मुस्लिम आलिम हैं या खुद वैदिक जी?
वैदिक जी बुद्धिराक्षस भी हैं क्योंकि मुसलमान आलिमों ने देश की आज़ादी के लिए फाँसी के फंदों पर झूलकर अपनी जानें, क़ुर्बान की हैं बल्कि आज़ादी की लड़ाई का पहला सिपाही एक मदरसे का पढ़ा हुआ आलिम ‘टीपू सुल्तान’ ही था। सन् 1857 की क्रान्ति का नायक बहादुर शाह ज़फ़र भी मुल्ला मौलवियों का ही पढ़ाया हुआ था। आज़ादी की तीसरी लड़ाई भी ‘रेशम रूमाल आन्दोलन’ के नायक शेखुल हिन्द मौलाना महमूद उल हसन के नेतृत्व में लड़ी गई। मौलाना को अंग्रेजों ने माल्टा की जेल में कैद कर दिया। सन् 1920 में उनकी जेल में ही मौत हो गई। मौलाना उबैदुल्लाह सिन्धी, अमीर हबीबुल्लाह व उनके साथी सैकड़ों आलिमों व हज़ारों मुरीदों को अंग्रेजों द्वारा फाँसी पर लटका दिया गया। दारूल उलूम के सद्र शेखुल हिन्द ने ही महात्मा गांधी को लीडर बनाया। वैदिक जी आज जिस आज़ादी की फ़िज़ा में सांस ले रहे हैं अपनी हर सांस में वे मुस्लिम आलिमों के ऋणी हैं लेकिन उन्होंने उनके प्रति दो वचन-सुमन भी अर्पित नहीं किए।
जमीयतुल उलमाए हिन्द मुस्लिम लीग के टोटकों की लाश नहीं ढो रही है जैसा कि उनका विचार है बल्कि एकेश्वरवाद की आत्मा से प्रायः खाली भारतीय जाति के रूग्ण शरीर में ईमान व सत्य के यक़ीन की जान फूंक रही है। जबकि दारूल उलूम का पुतला फूंकने वाले लोग भारतीय समाज की शांति, एकता और तरक्क़ी को जला रहें है। नफ़रतों ने तो वृहत्तर भारत को, जिसमें ईरान आदि तक थे, खण्डित कर दिया तो क्या फिर राजनीतिक संकीर्ण स्वार्थों की खातिर मतान्ध लोग नफ़रतें फैलाकर देश की अखण्डता को खतरे में डालना चाहते हैं?
‘आनन्द मठ उपन्यास हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन पर एक कलंक है। डा0 राम मनोहर लोहिया ने सच ही कहा था। मुसलमानों के साथ-साथ हिन्दुओं को भी इस गीत का विरोध करना चाहिए क्योंकि
1- यह गीत अवैदिक सोच की उपज है।
2- इसे दस्यु लूटमार के समय गाया करते थे।
3- मुसलमानों को मारने काटने का नाम विष्णु पूजा रखकर विष्णु पूजा को बदनाम किया गया है।
4- यह गीत अंग्रेजों के चाटुकार नौकर बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा लिख गया है जिसने न कभी खुद देश की आज़ादी के लिए प्रयास किया और न ही कभी क्रान्तिकारियों की मदद् की।
5- यह गीत अंग्रेजों के वेतनभोगी सेवक और सहायक की याद दिलाता है।
6- यह गीत सन्यासियों के वैराग्य और त्याग के स्वरूप को विकृत करके भारतीय मानवतावादी परम्परा को कलंकित करता है।
इसके बावजूद भी सत्य से आँखें मूंदकर जो लोग वन्दे मातरम् गाना चाहें गायें लेकिन यह समझ लें कि सत्य का इनकार करना ईश्वर के प्रति द्रोह करना और अपनी आत्मा का हनन करना है। ऐसे लोग कल्याण को प्राप्त नहीं करते हैं और मरने के बाद अंधकारमय असुरों के लोक को जाते हैं। वेद-कुरआन यही बताते हैं और मुस्लिम आलिम भी यही समझाते हैं यही सनातन और शाश्वत सत्य है।
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कहो वन्दे ईश्वरम
राष्ट्रीयता के प्रश्न पर चर्चा करेगा अब ‘‘रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा’’ aziz-burney-final-shots-vande-matram
रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के सम्पादक के रूप में मुझे भी इस बहस में शामिल होने की आवश्यकता पेश आएगी। बहरहाल आज का कड़वा सच यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर यह बहस जारी है और हमने इस बहस को अंतिम चरण तक पहुंचाने के इरादे से इसमें शामिल होना स्वीकार कर लिया है।
AZIZ BURNEY ---- Group Editor Roznama Rashtriya Sahara (Daily) Bazme Sahara (Weekly) Aalmi Sahara (Monthly)
पहली कडी
इस समय मैं केवल एक लेखक, एक पत्रकार या एक सम्पादक की हैसियत से ही स्वयं को नहीं देख रहा हूं, और इस समय मैं स्वयं को बस एक मुस्लिम प्रतिनिधि के रूप में भी नहीं महसूस कर रहा हूं, बल्कि मेरी इस बात को एक निष्पक्ष रिसर्च इस्कोलर के शोध पर ही आधारित समझें तो किसी सही नतीजे पर पहुंच सकेंगे। आज का यह लेख निःसन्देह मेरे नियमित पाठकों के लिए लिये तो है ही परन्तु साथ में इस लेख के द्वारा अपने हमवतन भाई बहनों का ध्यान भी आकर्षित करना चाहता हूं इसलिए कि मेरे सामने राष्ट्रीय चिन्ह पर लिखी वह पंक्ति है जिस पर दर्ज है ‘‘सत्यमेव जयते’’ अर्थात सच्चाई की जीत होती है।
अतः मुझे पूर्ण विश्वास है कि इंशाअल्लाह जीत सच्चाई की ही होगी, बस इसे सलीके और बुद्धिमानी के साथ पेश किये जाने की आवश्यकता है। हम मानते हैं कि पत्थर पर लिखी यह वह पंक्ति है जो भारत की सोच का आइना है। यही कारण है कि मैं राष्ट्रीय प्रतीक पर लिखे गये इन दो शब्दों को ही कसौटी मानकर अपनी बात समस्त भारतीयों की सेवा में पेश करने जा रहा हूं और यह निर्णय उन पर छोड़ता हूं कि राष्ट्रगीत वन्दे मात्रम के मामले में अभी तक जो दृष्टिकोण बना हुआ है क्या उस पर नये सिरे से चिन्तन मनन की आवश्यकता है या नहीं? इस बात को छोड़ दें कि यह आपत्ति मुसलमानों की तरफ से की जाती रही है।
इस बात को छोड़ दें कि 6 वर्ष पहले भारत के गौरवशाली शिक्षा संस्थान दारउल उलूम देवबन्द ने इसके गाये जाने को अनुचित ठहराया है। इस बात को छोड़ दें कि जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के 30वें अधिवेशन में पेश किये गये प्रस्तावों में दारउल उलूम देवबन्द के फतवे का समर्थन किया गया है। अब बात हो तथ्यों की रोशनी में, ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के हवालों के साथ, केवल भावनाओं की दुहाई देकर नहीं! मेरे सामने इस समय कुछ महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं और जो पहला दस्तावेज़ है वह है बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय का नोवेल ‘‘आनन्द मठ’’।
मैं इसका एक-एक शब्द आरंभ से अंत तक न केवल पढ़ चुका हूं बल्कि ध्यानपूवर्क अध्ययन कर चुका हूं और अभी भी यह मेरे अध्ययन में है, इसलिए कि मैं अब केवल वह ही नहीं पढ़ रहा हूं, जो शब्दों में लिखा गया है बल्कि अब वह भी पढ़ने का प्रयास कर रहा हूं, जिसे लिखा तो नहीं गया, मगर एक संदेश के रूप में पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास किया गया है।
इसके कुछ वाक्य मैं आज भी अपने पाठकों की सेवा में पेश करने जा रहा हूं और इस निवेदन के साथ कि ‘‘आनन्द मठ’’ के यह वाक्य हम सब अपने हमवतन भाईयों के सामने भी ससम्मान अवश्य रखें और उनसे निवेदन करें कि कृप्या इन्हें ईमानदारी की कसौटी पर परखें, उपन्यासकार की मानसिकता का अन्दाज़ा करें, फिर वन्दे मात्रम पर बात करें, उसके राष्ट्रगीत होने पर गौर करें, मुसलमानों की आपत्ति के कारण को समझें, तब सम्भवतः हम राष्ट्रहित में किसी नतीजे पर पहुंच सकें।
‘‘आनन्द मठ’’ के पृष्ठ-77 पर तीसरी और चैथी पंक्ति में लिखा हैः
‘‘हम राज्य नहीं चाहते- हम केवल मुसलमानों को भगवान का विद्वेषी मानकर उनका वंश-सहित नाश करना चाहते हैं।’’पृष्ठ-88-89 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय ने अपने उपन्यास ‘‘आनन्द मठ’’ में लिखा हैः
‘‘भवानंद ने कह दिया था, ‘‘भाई, अगर किसी घर में एक तरफ मणि-मणिक्य, हीरक, प्रवाल आदि देखो और दूसरी तरफ टूटी बंदूक देखो तो मणि-मणिक्य, हरिक और प्रवाल छोड़कर टूटी बंदूक ही लेकर आना।’’
इसके अलावा उन्होंने गांव-गांव में खोजी दस्ते भेजे। खोजी लोग जिस गांव में हिन्दू देखते, कहते, ‘‘विष्णुपूजा करोगे?’’ यह कहकर 20-25 आदमी साथ लेकर मुसलमानों के गांव में आते और उनके घरों में आग लगा देते। मुसलमान प्राण-रक्षा के लिए भागमभाग करते। सन्तान उनका सब कुछ लूटकर नए विष्णु-भक्तों में वितरित कर देते। लूट का माल पाकर ग्रामीण लोग बेहद खुश हो जाते तो उन्हें मंदिर में लाकर सन्तान बनाया जाता। लोगों ने देखा, सन्तान बनने में खूब लाभ है। खासकर सभी मुसलमान-राज्य की अराजकता तथा अकुशल शासन के कारण परेशान हो उठे थे।
हिन्दू-धर्म के विलोप होने से अनेक हिन्दू हिन्दुओं की पुनस्र्थापना के लिए आग्रहशील थे। अतएव दिन-ब-दिन सन्तानों की संख्या में वृद्धि होने लगी। हर दिन सौ-सौ, हर माह हज़ारो हज़ारों सन्तानें भवानंद-जीवानंद के चरणों को स्पर्श करने आ पहुंचती, दलबद्ध होकर वे दिग-दिगन्त से मुसलमानों को शासन करने से बेदखल करने लगी। जहां वे राजपुरूष पाते उन्हें पकड़ कर उनकी मारपीट करते। कभी-कभी उनकी हत्या तक कर देते। जहां वे सरकारी रूपया पाते, लूटकर उसे घर ले आते। जहां मुसलमानों का गांव पाते, आग लगाकर उसे भस्मीभूत कर देते।
यह विद्रोह देखकर तब स्थानीय राजपुरूषों ने सन्तानों को शासित करने के वास्ते भारी मात्रा में सेना भेजनी शुरू कर दी। मगर अब सन्तान लोग दलबद्ध थे, सशस्त्र थे और महापराक्रमी व अनुशासित थे। उनके दर्प के आगे मुसलमानों की सेना आगे नहीं बढ़ पाती। यदि आगे बढ़ती तो अमित अल के साथ सन्तान उनके ऊपर टूट पड़ती और उन्हें छिन्न-भिन्न करके हरि-ध्वनि का शोर गुंजा देती। यदि कभी किसी सन्तान सेना को यवन-सेना पराजित कर देती तो न जाने कहां से सन्तानों का एक दल आ धमकता और विजेताओं का सिर काटकर फेंक देता और हरि-ध्वनि करता हुआ चला जाता। इस समय में कीर्तिमान्य भारतीय अंग्रेज़-कुल के प्रातः सुर्य वारेन हेस्टिंग साहब भारतवर्ष के गवर्नर जनरल थे।
‘‘आनन्द मठ’’ के पृष्ठ-111 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय लिखते हैं:
‘‘भाई ऐसा भी दिन कभी नसीब में आएगा कि मस्जिद तोड़कर राधा-माधव का मन्दिर बना सकूं?’’
दस हज़ार नर-कंठों का कल-कल रत्र, मधुर वायु से संताड़ित वृक्षों के पत्तों का गर्मर स्वर, रेतीले तटों में बहती नदी की मृदुल सर्र-सर्र ध्वनि, नील आकाश में चन्द्रमा की आभार श्वेत मेघ-राशि, श्यामल धरणी-तले हरित कानन, स्वच्छ नदी, सफेद रेतीले कण, खिले हुए पुष्प! और बीच-बीच में समवेत स्वर में ‘‘वंदे मातरम’ की गूंज।’’
पाठकगण मेरे हमवतन भाईयों सहित आसानी से यह महसूस कर सकते हैं कि वन्दे मात्रम की यह गूंज किस बात की ओर इशारा करती थी। क्या मुसलमानों के नरसंहार के बाद यह जीत का नारा नहीं था? क्या मुसलमानों की मस्जिदों को तहस-नहस करने के बाद यह सफलता के जश्न का संकेत नहीं था?
एक और पैराग्राफ पाठकों की सेवा में:
‘‘आनंद मठ’’ के पृष्ठ-127 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय लिखते हैंः
‘‘उस एक रात में ही गांव-गांव और नगर-नगर में महाकोलाहल मच गया। सभी कह रहे थे ‘‘मुसलमान हार गए, देश दुबारा हिन्दुओं का हो गया है। सभी एक बार मुक्तकण्ठ में हरि-हरि बोलो।’’ गांव के लोग मुसलमान को देखते ही उसे मारने को दौड़ते। कोई-कोई उस रात दल बनाकर मुसलमानों के मुहल्ले में गया और उनके घरों में आग लगाकर सर्वस्व लूटने लगा। कई यवन मारे गए। अनेक मुसलमानों ने दाढ़ी मुंडवा ली और बदन पर मिट्टी मलकर हरिनाम का जाप करना शुरू कर दिया। पूछने पर कहते, ‘‘हम हिन्दू हैं।’’ दल के दल मुसलमान नगर की ओर भागने लगे।
और अब इस नोवेल का अंतिम पैराग्राफ एक बार फिर पाठकों की सेवा में, ताकि समझा जा सके कि इस नाविल के लिखने के पीछे बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय की मानसिकता क्या थी और वन्दे मात्रम से उनका मूल उद्देश्य क्या था।
‘‘सत्यानन्द ने जवाब दिया, ‘‘चलिए, मैं तैयार हूं। मगर हे महात्मन, मेरा एक संदेह दूर कीजिए। मैंने जिस पल युद्ध में जीतकर सन्तान-धर्म को निष्कंटक किया, उसी समय से मुझे प्रत्याख्यान का आदेश क्यों?’’
जो आए थे, वे बोले, ‘‘तुम्हारा कार्य सिद्ध हो गया, मुसलमानों का राज्य ध्वस्त हो गया। अब तुम्हारा और कोई काम नहीं। अनर्थक प्राणिहत्या की क्या ज़रूरत।’’
‘‘मुसलमानों का राज्य ध्वस्त हो गया, मगर हिन्दुओं का राज्य तो स्थापित नहीं हुआ। अब भी कलकत्ता में अंग्रेज़ों का राज्य है।
‘‘हिन्दुओं का राज्य अभी स्थापित नहीं होगा- तुम्हारे रहने से अनर्थक नर-हत्या होगी। इसलिए चलो...’’सुनकर सत्यानन्द तीव्र मर्मपीड़ा से कातर हो गए। बोले, ‘‘हे प्र्रभू। अगर हिन्दुओं का राज्य स्थापित नहीं होगा तो किसका राज्य होगा? क्या फिर मुसलमानों का राज्य होगा।वे बोले, ‘‘नहीं, अब अंग्रेज़ों का राज्य होगा। ’’
अब अंत में चन्द पंक्तियां सम्मान के साथ अपने उन भाईयों की सेवा में जिन्होंने वन्दे मात्रम की वकालत करते हुए उस के गाये जाने को राष्ट्रीय दायित्व बताने का प्रयास किया है। इस बात को छोड़ दें कि वह हिन्दु है या मुसलमान, क्या उन्होंने बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय के इस नोवेल को पढ़ा है? क्या उन्होंने बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय के जीवन का अध्ययन किया है?
क्या इस उपान्यास के पीछे छुपे उद्देश्य को समझा है? अगर ऐसे हर प्रश्न का उत्तर हां है और फिर भी उनका निर्णय वही है तो फिर मुझे उन लोगों से कुछ नहीं कहना, मगर न्यायप्रिय भारतीयों से अवश्य कहना है कि भारत का हर एक मुसलमान हमारे राष्ट्रीय ध्वज को स्वीकार करता है, इस पर कोई बात नहीं करता, राष्ट्र चिन्ह को दिल की गहराई से स्वीकार करता है कोई बहस नहीं करता, राष्ट्रगान जन गण मन गाने पर गर्व अनुभव करता है।
किसी को कोई आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय पंचाग अर्थात कलंडर का कोई विरोध नहीं। राष्ट्रीय पशु के रूप में शेर को स्वीकार करने पर कोई आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय पक्षी मोर को स्वीकार करने पर कोई बहस नहीं, राष्ट्रीय पुष्प अगर कमल है तो है, किसी को आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय वृक्ष का तम्ग़ा यदि बरगद के पास है तो यह भी स्वीकार है, राष्ट्रीय फल आम खुशी से स्वीकार है........फिर अगर इन सब के बीच केवल राष्ट्रगीत वन्दे मात्रम पर ही आपत्ति है तो आपत्ति के कारण को भी समझना होगा, ऐसे तमाम कारणों को वास्तविकता के आइने में देखना होगा, पूरी ईमानदारी के साथ राष्ट्रीय हितों, साम्प्रदायिक सौहार्द के महत्व को महसूस करते हुए कोई निर्णय लेना होगा।
मैं आज भी नहीं कहता कि वन्दे मात्रम गाया जाये या न गाया जाये, मैं तो पहले राष्ट्रीय स्तर पर तमाम तथ्यों को जनता के सामने रख देना चाहता हूं और फिर निवेदन वतन के जिम्मेदारों से यह करना चाहता हूं कि अगर यह बहस छिड़ ही गई है तो दोबारा इस पर गौर करें और किसी ऐसे नतीजे पर पहुंचे कि जिससे न किसी की भावनाएं आहत हों, न किसी को शर्मिन्दगी का अहसास हो और न किसी की आस्था को ठेस पहुंचे। यह समय की एक अहम आवश्यकता भी है और वतन से मोहब्बत का तकाज़ा भी......
रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के सम्पादक के रूप में मुझे भी इस बहस में शामिल होने की आवश्यकता पेश आएगी। बहरहाल आज का कड़वा सच यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर यह बहस जारी है और हमने इस बहस को अंतिम चरण तक पहुंचाने के इरादे से इसमें शामिल होना स्वीकार कर लिया है।
AZIZ BURNEY ---- Group Editor Roznama Rashtriya Sahara (Daily) Bazme Sahara (Weekly) Aalmi Sahara (Monthly)
पहली कडी
इस समय मैं केवल एक लेखक, एक पत्रकार या एक सम्पादक की हैसियत से ही स्वयं को नहीं देख रहा हूं, और इस समय मैं स्वयं को बस एक मुस्लिम प्रतिनिधि के रूप में भी नहीं महसूस कर रहा हूं, बल्कि मेरी इस बात को एक निष्पक्ष रिसर्च इस्कोलर के शोध पर ही आधारित समझें तो किसी सही नतीजे पर पहुंच सकेंगे। आज का यह लेख निःसन्देह मेरे नियमित पाठकों के लिए लिये तो है ही परन्तु साथ में इस लेख के द्वारा अपने हमवतन भाई बहनों का ध्यान भी आकर्षित करना चाहता हूं इसलिए कि मेरे सामने राष्ट्रीय चिन्ह पर लिखी वह पंक्ति है जिस पर दर्ज है ‘‘सत्यमेव जयते’’ अर्थात सच्चाई की जीत होती है।
अतः मुझे पूर्ण विश्वास है कि इंशाअल्लाह जीत सच्चाई की ही होगी, बस इसे सलीके और बुद्धिमानी के साथ पेश किये जाने की आवश्यकता है। हम मानते हैं कि पत्थर पर लिखी यह वह पंक्ति है जो भारत की सोच का आइना है। यही कारण है कि मैं राष्ट्रीय प्रतीक पर लिखे गये इन दो शब्दों को ही कसौटी मानकर अपनी बात समस्त भारतीयों की सेवा में पेश करने जा रहा हूं और यह निर्णय उन पर छोड़ता हूं कि राष्ट्रगीत वन्दे मात्रम के मामले में अभी तक जो दृष्टिकोण बना हुआ है क्या उस पर नये सिरे से चिन्तन मनन की आवश्यकता है या नहीं? इस बात को छोड़ दें कि यह आपत्ति मुसलमानों की तरफ से की जाती रही है।
इस बात को छोड़ दें कि 6 वर्ष पहले भारत के गौरवशाली शिक्षा संस्थान दारउल उलूम देवबन्द ने इसके गाये जाने को अनुचित ठहराया है। इस बात को छोड़ दें कि जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के 30वें अधिवेशन में पेश किये गये प्रस्तावों में दारउल उलूम देवबन्द के फतवे का समर्थन किया गया है। अब बात हो तथ्यों की रोशनी में, ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के हवालों के साथ, केवल भावनाओं की दुहाई देकर नहीं! मेरे सामने इस समय कुछ महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं और जो पहला दस्तावेज़ है वह है बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय का नोवेल ‘‘आनन्द मठ’’।
मैं इसका एक-एक शब्द आरंभ से अंत तक न केवल पढ़ चुका हूं बल्कि ध्यानपूवर्क अध्ययन कर चुका हूं और अभी भी यह मेरे अध्ययन में है, इसलिए कि मैं अब केवल वह ही नहीं पढ़ रहा हूं, जो शब्दों में लिखा गया है बल्कि अब वह भी पढ़ने का प्रयास कर रहा हूं, जिसे लिखा तो नहीं गया, मगर एक संदेश के रूप में पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास किया गया है।
इसके कुछ वाक्य मैं आज भी अपने पाठकों की सेवा में पेश करने जा रहा हूं और इस निवेदन के साथ कि ‘‘आनन्द मठ’’ के यह वाक्य हम सब अपने हमवतन भाईयों के सामने भी ससम्मान अवश्य रखें और उनसे निवेदन करें कि कृप्या इन्हें ईमानदारी की कसौटी पर परखें, उपन्यासकार की मानसिकता का अन्दाज़ा करें, फिर वन्दे मात्रम पर बात करें, उसके राष्ट्रगीत होने पर गौर करें, मुसलमानों की आपत्ति के कारण को समझें, तब सम्भवतः हम राष्ट्रहित में किसी नतीजे पर पहुंच सकें।
‘‘आनन्द मठ’’ के पृष्ठ-77 पर तीसरी और चैथी पंक्ति में लिखा हैः
‘‘हम राज्य नहीं चाहते- हम केवल मुसलमानों को भगवान का विद्वेषी मानकर उनका वंश-सहित नाश करना चाहते हैं।’’पृष्ठ-88-89 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय ने अपने उपन्यास ‘‘आनन्द मठ’’ में लिखा हैः
‘‘भवानंद ने कह दिया था, ‘‘भाई, अगर किसी घर में एक तरफ मणि-मणिक्य, हीरक, प्रवाल आदि देखो और दूसरी तरफ टूटी बंदूक देखो तो मणि-मणिक्य, हरिक और प्रवाल छोड़कर टूटी बंदूक ही लेकर आना।’’
इसके अलावा उन्होंने गांव-गांव में खोजी दस्ते भेजे। खोजी लोग जिस गांव में हिन्दू देखते, कहते, ‘‘विष्णुपूजा करोगे?’’ यह कहकर 20-25 आदमी साथ लेकर मुसलमानों के गांव में आते और उनके घरों में आग लगा देते। मुसलमान प्राण-रक्षा के लिए भागमभाग करते। सन्तान उनका सब कुछ लूटकर नए विष्णु-भक्तों में वितरित कर देते। लूट का माल पाकर ग्रामीण लोग बेहद खुश हो जाते तो उन्हें मंदिर में लाकर सन्तान बनाया जाता। लोगों ने देखा, सन्तान बनने में खूब लाभ है। खासकर सभी मुसलमान-राज्य की अराजकता तथा अकुशल शासन के कारण परेशान हो उठे थे।
हिन्दू-धर्म के विलोप होने से अनेक हिन्दू हिन्दुओं की पुनस्र्थापना के लिए आग्रहशील थे। अतएव दिन-ब-दिन सन्तानों की संख्या में वृद्धि होने लगी। हर दिन सौ-सौ, हर माह हज़ारो हज़ारों सन्तानें भवानंद-जीवानंद के चरणों को स्पर्श करने आ पहुंचती, दलबद्ध होकर वे दिग-दिगन्त से मुसलमानों को शासन करने से बेदखल करने लगी। जहां वे राजपुरूष पाते उन्हें पकड़ कर उनकी मारपीट करते। कभी-कभी उनकी हत्या तक कर देते। जहां वे सरकारी रूपया पाते, लूटकर उसे घर ले आते। जहां मुसलमानों का गांव पाते, आग लगाकर उसे भस्मीभूत कर देते।
यह विद्रोह देखकर तब स्थानीय राजपुरूषों ने सन्तानों को शासित करने के वास्ते भारी मात्रा में सेना भेजनी शुरू कर दी। मगर अब सन्तान लोग दलबद्ध थे, सशस्त्र थे और महापराक्रमी व अनुशासित थे। उनके दर्प के आगे मुसलमानों की सेना आगे नहीं बढ़ पाती। यदि आगे बढ़ती तो अमित अल के साथ सन्तान उनके ऊपर टूट पड़ती और उन्हें छिन्न-भिन्न करके हरि-ध्वनि का शोर गुंजा देती। यदि कभी किसी सन्तान सेना को यवन-सेना पराजित कर देती तो न जाने कहां से सन्तानों का एक दल आ धमकता और विजेताओं का सिर काटकर फेंक देता और हरि-ध्वनि करता हुआ चला जाता। इस समय में कीर्तिमान्य भारतीय अंग्रेज़-कुल के प्रातः सुर्य वारेन हेस्टिंग साहब भारतवर्ष के गवर्नर जनरल थे।
‘‘आनन्द मठ’’ के पृष्ठ-111 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय लिखते हैं:
‘‘भाई ऐसा भी दिन कभी नसीब में आएगा कि मस्जिद तोड़कर राधा-माधव का मन्दिर बना सकूं?’’
दस हज़ार नर-कंठों का कल-कल रत्र, मधुर वायु से संताड़ित वृक्षों के पत्तों का गर्मर स्वर, रेतीले तटों में बहती नदी की मृदुल सर्र-सर्र ध्वनि, नील आकाश में चन्द्रमा की आभार श्वेत मेघ-राशि, श्यामल धरणी-तले हरित कानन, स्वच्छ नदी, सफेद रेतीले कण, खिले हुए पुष्प! और बीच-बीच में समवेत स्वर में ‘‘वंदे मातरम’ की गूंज।’’
पाठकगण मेरे हमवतन भाईयों सहित आसानी से यह महसूस कर सकते हैं कि वन्दे मात्रम की यह गूंज किस बात की ओर इशारा करती थी। क्या मुसलमानों के नरसंहार के बाद यह जीत का नारा नहीं था? क्या मुसलमानों की मस्जिदों को तहस-नहस करने के बाद यह सफलता के जश्न का संकेत नहीं था?
एक और पैराग्राफ पाठकों की सेवा में:
‘‘आनंद मठ’’ के पृष्ठ-127 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय लिखते हैंः
‘‘उस एक रात में ही गांव-गांव और नगर-नगर में महाकोलाहल मच गया। सभी कह रहे थे ‘‘मुसलमान हार गए, देश दुबारा हिन्दुओं का हो गया है। सभी एक बार मुक्तकण्ठ में हरि-हरि बोलो।’’ गांव के लोग मुसलमान को देखते ही उसे मारने को दौड़ते। कोई-कोई उस रात दल बनाकर मुसलमानों के मुहल्ले में गया और उनके घरों में आग लगाकर सर्वस्व लूटने लगा। कई यवन मारे गए। अनेक मुसलमानों ने दाढ़ी मुंडवा ली और बदन पर मिट्टी मलकर हरिनाम का जाप करना शुरू कर दिया। पूछने पर कहते, ‘‘हम हिन्दू हैं।’’ दल के दल मुसलमान नगर की ओर भागने लगे।
और अब इस नोवेल का अंतिम पैराग्राफ एक बार फिर पाठकों की सेवा में, ताकि समझा जा सके कि इस नाविल के लिखने के पीछे बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय की मानसिकता क्या थी और वन्दे मात्रम से उनका मूल उद्देश्य क्या था।
‘‘सत्यानन्द ने जवाब दिया, ‘‘चलिए, मैं तैयार हूं। मगर हे महात्मन, मेरा एक संदेह दूर कीजिए। मैंने जिस पल युद्ध में जीतकर सन्तान-धर्म को निष्कंटक किया, उसी समय से मुझे प्रत्याख्यान का आदेश क्यों?’’
जो आए थे, वे बोले, ‘‘तुम्हारा कार्य सिद्ध हो गया, मुसलमानों का राज्य ध्वस्त हो गया। अब तुम्हारा और कोई काम नहीं। अनर्थक प्राणिहत्या की क्या ज़रूरत।’’
‘‘मुसलमानों का राज्य ध्वस्त हो गया, मगर हिन्दुओं का राज्य तो स्थापित नहीं हुआ। अब भी कलकत्ता में अंग्रेज़ों का राज्य है।
‘‘हिन्दुओं का राज्य अभी स्थापित नहीं होगा- तुम्हारे रहने से अनर्थक नर-हत्या होगी। इसलिए चलो...’’सुनकर सत्यानन्द तीव्र मर्मपीड़ा से कातर हो गए। बोले, ‘‘हे प्र्रभू। अगर हिन्दुओं का राज्य स्थापित नहीं होगा तो किसका राज्य होगा? क्या फिर मुसलमानों का राज्य होगा।वे बोले, ‘‘नहीं, अब अंग्रेज़ों का राज्य होगा। ’’
अब अंत में चन्द पंक्तियां सम्मान के साथ अपने उन भाईयों की सेवा में जिन्होंने वन्दे मात्रम की वकालत करते हुए उस के गाये जाने को राष्ट्रीय दायित्व बताने का प्रयास किया है। इस बात को छोड़ दें कि वह हिन्दु है या मुसलमान, क्या उन्होंने बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय के इस नोवेल को पढ़ा है? क्या उन्होंने बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय के जीवन का अध्ययन किया है?
क्या इस उपान्यास के पीछे छुपे उद्देश्य को समझा है? अगर ऐसे हर प्रश्न का उत्तर हां है और फिर भी उनका निर्णय वही है तो फिर मुझे उन लोगों से कुछ नहीं कहना, मगर न्यायप्रिय भारतीयों से अवश्य कहना है कि भारत का हर एक मुसलमान हमारे राष्ट्रीय ध्वज को स्वीकार करता है, इस पर कोई बात नहीं करता, राष्ट्र चिन्ह को दिल की गहराई से स्वीकार करता है कोई बहस नहीं करता, राष्ट्रगान जन गण मन गाने पर गर्व अनुभव करता है।
किसी को कोई आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय पंचाग अर्थात कलंडर का कोई विरोध नहीं। राष्ट्रीय पशु के रूप में शेर को स्वीकार करने पर कोई आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय पक्षी मोर को स्वीकार करने पर कोई बहस नहीं, राष्ट्रीय पुष्प अगर कमल है तो है, किसी को आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय वृक्ष का तम्ग़ा यदि बरगद के पास है तो यह भी स्वीकार है, राष्ट्रीय फल आम खुशी से स्वीकार है........फिर अगर इन सब के बीच केवल राष्ट्रगीत वन्दे मात्रम पर ही आपत्ति है तो आपत्ति के कारण को भी समझना होगा, ऐसे तमाम कारणों को वास्तविकता के आइने में देखना होगा, पूरी ईमानदारी के साथ राष्ट्रीय हितों, साम्प्रदायिक सौहार्द के महत्व को महसूस करते हुए कोई निर्णय लेना होगा।
मैं आज भी नहीं कहता कि वन्दे मात्रम गाया जाये या न गाया जाये, मैं तो पहले राष्ट्रीय स्तर पर तमाम तथ्यों को जनता के सामने रख देना चाहता हूं और फिर निवेदन वतन के जिम्मेदारों से यह करना चाहता हूं कि अगर यह बहस छिड़ ही गई है तो दोबारा इस पर गौर करें और किसी ऐसे नतीजे पर पहुंचे कि जिससे न किसी की भावनाएं आहत हों, न किसी को शर्मिन्दगी का अहसास हो और न किसी की आस्था को ठेस पहुंचे। यह समय की एक अहम आवश्यकता भी है और वतन से मोहब्बत का तकाज़ा भी......
अतः मुझे पूर्ण विश्वास है कि इंशाअल्लाह जीत सच्चाई की ही होगी, बस इसे सलीके और बुद्धिमानी के साथ पेश किये जाने की आवश्यकता है। हम मानते हैं कि पत्थर पर लिखी यह वह पंक्ति है जो भारत की सोच का आइना है। यही कारण है कि मैं राष्ट्रीय प्रतीक पर लिखे गये इन दो शब्दों को ही कसौटी मानकर अपनी बात समस्त भारतीयों की सेवा में पेश करने जा रहा हूं और यह निर्णय उन पर छोड़ता हूं कि राष्ट्रगीत वन्दे मात्रम के मामले में अभी तक जो दृष्टिकोण बना हुआ है क्या उस पर नये सिरे से चिन्तन मनन की आवश्यकता है या नहीं? इस बात को छोड़ दें कि यह आपत्ति मुसलमानों की तरफ से की जाती रही है।
इस बात को छोड़ दें कि 6 वर्ष पहले भारत के गौरवशाली शिक्षा संस्थान दारउल उलूम देवबन्द ने इसके गाये जाने को अनुचित ठहराया है। इस बात को छोड़ दें कि जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के 30वें अधिवेशन में पेश किये गये प्रस्तावों में दारउल उलूम देवबन्द के फतवे का समर्थन किया गया है। अब बात हो तथ्यों की रोशनी में, ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के हवालों के साथ, केवल भावनाओं की दुहाई देकर नहीं! मेरे सामने इस समय कुछ महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं और जो पहला दस्तावेज़ है वह है बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय का नोवेल ‘‘आनन्द मठ’’।
मैं इसका एक-एक शब्द आरंभ से अंत तक न केवल पढ़ चुका हूं बल्कि ध्यानपूवर्क अध्ययन कर चुका हूं और अभी भी यह मेरे अध्ययन में है, इसलिए कि मैं अब केवल वह ही नहीं पढ़ रहा हूं, जो शब्दों में लिखा गया है बल्कि अब वह भी पढ़ने का प्रयास कर रहा हूं, जिसे लिखा तो नहीं गया, मगर एक संदेश के रूप में पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास किया गया है।
इसके कुछ वाक्य मैं आज भी अपने पाठकों की सेवा में पेश करने जा रहा हूं और इस निवेदन के साथ कि ‘‘आनन्द मठ’’ के यह वाक्य हम सब अपने हमवतन भाईयों के सामने भी ससम्मान अवश्य रखें और उनसे निवेदन करें कि कृप्या इन्हें ईमानदारी की कसौटी पर परखें, उपन्यासकार की मानसिकता का अन्दाज़ा करें, फिर वन्दे मात्रम पर बात करें, उसके राष्ट्रगीत होने पर गौर करें, मुसलमानों की आपत्ति के कारण को समझें, तब सम्भवतः हम राष्ट्रहित में किसी नतीजे पर पहुंच सकें।
‘‘आनन्द मठ’’ के पृष्ठ-77 पर तीसरी और चैथी पंक्ति में लिखा हैः
‘‘हम राज्य नहीं चाहते- हम केवल मुसलमानों को भगवान का विद्वेषी मानकर उनका वंश-सहित नाश करना चाहते हैं।’’पृष्ठ-88-89 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय ने अपने उपन्यास ‘‘आनन्द मठ’’ में लिखा हैः
‘‘भवानंद ने कह दिया था, ‘‘भाई, अगर किसी घर में एक तरफ मणि-मणिक्य, हीरक, प्रवाल आदि देखो और दूसरी तरफ टूटी बंदूक देखो तो मणि-मणिक्य, हरिक और प्रवाल छोड़कर टूटी बंदूक ही लेकर आना।’’
इसके अलावा उन्होंने गांव-गांव में खोजी दस्ते भेजे। खोजी लोग जिस गांव में हिन्दू देखते, कहते, ‘‘विष्णुपूजा करोगे?’’ यह कहकर 20-25 आदमी साथ लेकर मुसलमानों के गांव में आते और उनके घरों में आग लगा देते। मुसलमान प्राण-रक्षा के लिए भागमभाग करते। सन्तान उनका सब कुछ लूटकर नए विष्णु-भक्तों में वितरित कर देते। लूट का माल पाकर ग्रामीण लोग बेहद खुश हो जाते तो उन्हें मंदिर में लाकर सन्तान बनाया जाता। लोगों ने देखा, सन्तान बनने में खूब लाभ है। खासकर सभी मुसलमान-राज्य की अराजकता तथा अकुशल शासन के कारण परेशान हो उठे थे।
हिन्दू-धर्म के विलोप होने से अनेक हिन्दू हिन्दुओं की पुनस्र्थापना के लिए आग्रहशील थे। अतएव दिन-ब-दिन सन्तानों की संख्या में वृद्धि होने लगी। हर दिन सौ-सौ, हर माह हज़ारो हज़ारों सन्तानें भवानंद-जीवानंद के चरणों को स्पर्श करने आ पहुंचती, दलबद्ध होकर वे दिग-दिगन्त से मुसलमानों को शासन करने से बेदखल करने लगी। जहां वे राजपुरूष पाते उन्हें पकड़ कर उनकी मारपीट करते। कभी-कभी उनकी हत्या तक कर देते। जहां वे सरकारी रूपया पाते, लूटकर उसे घर ले आते। जहां मुसलमानों का गांव पाते, आग लगाकर उसे भस्मीभूत कर देते।
यह विद्रोह देखकर तब स्थानीय राजपुरूषों ने सन्तानों को शासित करने के वास्ते भारी मात्रा में सेना भेजनी शुरू कर दी। मगर अब सन्तान लोग दलबद्ध थे, सशस्त्र थे और महापराक्रमी व अनुशासित थे। उनके दर्प के आगे मुसलमानों की सेना आगे नहीं बढ़ पाती। यदि आगे बढ़ती तो अमित अल के साथ सन्तान उनके ऊपर टूट पड़ती और उन्हें छिन्न-भिन्न करके हरि-ध्वनि का शोर गुंजा देती। यदि कभी किसी सन्तान सेना को यवन-सेना पराजित कर देती तो न जाने कहां से सन्तानों का एक दल आ धमकता और विजेताओं का सिर काटकर फेंक देता और हरि-ध्वनि करता हुआ चला जाता। इस समय में कीर्तिमान्य भारतीय अंग्रेज़-कुल के प्रातः सुर्य वारेन हेस्टिंग साहब भारतवर्ष के गवर्नर जनरल थे।
‘‘आनन्द मठ’’ के पृष्ठ-111 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय लिखते हैं:
‘‘भाई ऐसा भी दिन कभी नसीब में आएगा कि मस्जिद तोड़कर राधा-माधव का मन्दिर बना सकूं?’’
दस हज़ार नर-कंठों का कल-कल रत्र, मधुर वायु से संताड़ित वृक्षों के पत्तों का गर्मर स्वर, रेतीले तटों में बहती नदी की मृदुल सर्र-सर्र ध्वनि, नील आकाश में चन्द्रमा की आभार श्वेत मेघ-राशि, श्यामल धरणी-तले हरित कानन, स्वच्छ नदी, सफेद रेतीले कण, खिले हुए पुष्प! और बीच-बीच में समवेत स्वर में ‘‘वंदे मातरम’ की गूंज।’’
पाठकगण मेरे हमवतन भाईयों सहित आसानी से यह महसूस कर सकते हैं कि वन्दे मात्रम की यह गूंज किस बात की ओर इशारा करती थी। क्या मुसलमानों के नरसंहार के बाद यह जीत का नारा नहीं था? क्या मुसलमानों की मस्जिदों को तहस-नहस करने के बाद यह सफलता के जश्न का संकेत नहीं था?
एक और पैराग्राफ पाठकों की सेवा में:
‘‘आनंद मठ’’ के पृष्ठ-127 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय लिखते हैंः
‘‘उस एक रात में ही गांव-गांव और नगर-नगर में महाकोलाहल मच गया। सभी कह रहे थे ‘‘मुसलमान हार गए, देश दुबारा हिन्दुओं का हो गया है। सभी एक बार मुक्तकण्ठ में हरि-हरि बोलो।’’ गांव के लोग मुसलमान को देखते ही उसे मारने को दौड़ते। कोई-कोई उस रात दल बनाकर मुसलमानों के मुहल्ले में गया और उनके घरों में आग लगाकर सर्वस्व लूटने लगा। कई यवन मारे गए। अनेक मुसलमानों ने दाढ़ी मुंडवा ली और बदन पर मिट्टी मलकर हरिनाम का जाप करना शुरू कर दिया। पूछने पर कहते, ‘‘हम हिन्दू हैं।’’ दल के दल मुसलमान नगर की ओर भागने लगे।
और अब इस नोवेल का अंतिम पैराग्राफ एक बार फिर पाठकों की सेवा में, ताकि समझा जा सके कि इस नाविल के लिखने के पीछे बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय की मानसिकता क्या थी और वन्दे मात्रम से उनका मूल उद्देश्य क्या था।
‘‘सत्यानन्द ने जवाब दिया, ‘‘चलिए, मैं तैयार हूं। मगर हे महात्मन, मेरा एक संदेह दूर कीजिए। मैंने जिस पल युद्ध में जीतकर सन्तान-धर्म को निष्कंटक किया, उसी समय से मुझे प्रत्याख्यान का आदेश क्यों?’’
जो आए थे, वे बोले, ‘‘तुम्हारा कार्य सिद्ध हो गया, मुसलमानों का राज्य ध्वस्त हो गया। अब तुम्हारा और कोई काम नहीं। अनर्थक प्राणिहत्या की क्या ज़रूरत।’’
‘‘मुसलमानों का राज्य ध्वस्त हो गया, मगर हिन्दुओं का राज्य तो स्थापित नहीं हुआ। अब भी कलकत्ता में अंग्रेज़ों का राज्य है।
‘‘हिन्दुओं का राज्य अभी स्थापित नहीं होगा- तुम्हारे रहने से अनर्थक नर-हत्या होगी। इसलिए चलो...’’सुनकर सत्यानन्द तीव्र मर्मपीड़ा से कातर हो गए। बोले, ‘‘हे प्र्रभू। अगर हिन्दुओं का राज्य स्थापित नहीं होगा तो किसका राज्य होगा? क्या फिर मुसलमानों का राज्य होगा।वे बोले, ‘‘नहीं, अब अंग्रेज़ों का राज्य होगा। ’’
अब अंत में चन्द पंक्तियां सम्मान के साथ अपने उन भाईयों की सेवा में जिन्होंने वन्दे मात्रम की वकालत करते हुए उस के गाये जाने को राष्ट्रीय दायित्व बताने का प्रयास किया है। इस बात को छोड़ दें कि वह हिन्दु है या मुसलमान, क्या उन्होंने बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय के इस नोवेल को पढ़ा है? क्या उन्होंने बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय के जीवन का अध्ययन किया है?
क्या इस उपान्यास के पीछे छुपे उद्देश्य को समझा है? अगर ऐसे हर प्रश्न का उत्तर हां है और फिर भी उनका निर्णय वही है तो फिर मुझे उन लोगों से कुछ नहीं कहना, मगर न्यायप्रिय भारतीयों से अवश्य कहना है कि भारत का हर एक मुसलमान हमारे राष्ट्रीय ध्वज को स्वीकार करता है, इस पर कोई बात नहीं करता, राष्ट्र चिन्ह को दिल की गहराई से स्वीकार करता है कोई बहस नहीं करता, राष्ट्रगान जन गण मन गाने पर गर्व अनुभव करता है।
किसी को कोई आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय पंचाग अर्थात कलंडर का कोई विरोध नहीं। राष्ट्रीय पशु के रूप में शेर को स्वीकार करने पर कोई आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय पक्षी मोर को स्वीकार करने पर कोई बहस नहीं, राष्ट्रीय पुष्प अगर कमल है तो है, किसी को आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय वृक्ष का तम्ग़ा यदि बरगद के पास है तो यह भी स्वीकार है, राष्ट्रीय फल आम खुशी से स्वीकार है........फिर अगर इन सब के बीच केवल राष्ट्रगीत वन्दे मात्रम पर ही आपत्ति है तो आपत्ति के कारण को भी समझना होगा, ऐसे तमाम कारणों को वास्तविकता के आइने में देखना होगा, पूरी ईमानदारी के साथ राष्ट्रीय हितों, साम्प्रदायिक सौहार्द के महत्व को महसूस करते हुए कोई निर्णय लेना होगा।
मैं आज भी नहीं कहता कि वन्दे मात्रम गाया जाये या न गाया जाये, मैं तो पहले राष्ट्रीय स्तर पर तमाम तथ्यों को जनता के सामने रख देना चाहता हूं और फिर निवेदन वतन के जिम्मेदारों से यह करना चाहता हूं कि अगर यह बहस छिड़ ही गई है तो दोबारा इस पर गौर करें और किसी ऐसे नतीजे पर पहुंचे कि जिससे न किसी की भावनाएं आहत हों, न किसी को शर्मिन्दगी का अहसास हो और न किसी की आस्था को ठेस पहुंचे। यह समय की एक अहम आवश्यकता भी है और वतन से मोहब्बत का तकाज़ा भी......
-----आज बात राष्ट्रीयता पर। रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा का सम्पादक हूं मैं और वो भी पहले ही दिन से, इसलिए यह अधिकार तो बनता है मेरा, ‘‘राष्ट्रीयता’’ शब्द पर बात करने का। वैसे भी मैं अपने आपको पूरी तरह राष्ट्रीय मानता हूं। यहां मुसलमान होने की तुलना की जाने की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है, वह धर्म है मेरा और यह राष्ट्रीयता है मेरी। बहरहाल 1991 में जब ‘राष्ट्रीय सहारा’ आरम्भ हुआ तब हिन्दी के बाद उर्दू में नाम राष्ट्रीय सहारा ही रहे या राष्ट्रीय शब्द का उर्दू अनुवाद अर्थात ‘‘क़ौमी सहारा’’ रखा जाए, यह तय किया जाना था। परम आदरणीय सुब्रत राय सहारा अर्थात सहारा श्री जी ने यह निर्णय हम पर छोड़ते हुए कहा कि आप बताएं क्या उचित रहेगा?
उस समय यह मेरा ही फैसला था जिसे चेयरमैन साहब व अन्य सभी के द्वारा स्वीकार कर लिया गया और इस तरह तय पाया कि उर्दू में नाम ‘‘राष्ट्रीय सहारा’’ ही रहेगा। आज हमारी अंग्रेज़ी पत्रिका ‘सहारा टाइम’ और टीवी चैनल ‘सहारा समय’ के नाम से पहचाने जाते हैं लेकिन उर्दू ‘‘रोजनामा राष्ट्रीय सहारा’’ के नाम से ही। उस समय मुझे यह बिल्कुल अनुमान नहीं था कि 18 वर्ष बाद जब राष्ट्रीय गीत ‘‘वंदे मातृम’’ पर बहस छिड़ी होगी तो रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के सम्पादक के रूप में मुझे भी इस बहस में शामिल होने की आवश्यकता पेश आएगी। बहरहाल आज का कड़वा सच यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर यह बहस जारी है और हमने इस बहस को अंतिम चरण तक पहुंचाने के इरादे से इसमें शामिल होना स्वीकार कर लिया है।
दूसरी कडी
दारूल उलूम देवबन्द का सवाल कितना उचित कितना अनुचित ?
सबसे पहले तो मैं अपने तमाम पाठकों और देशवासियों की सेवा में यह निवेदन करना चाहता हूं कि वंदे मातृम की स्वीकार्यता या उसके गाए जाने को किसी धर्म की पृष्ठ भूमि में देखना उचित नहीं होगा, बल्कि इसे राष्ट्रीय परिदृश्य में देखना होगा, राष्ट्र प्रेम के दृष्टिकोण से देखना होगा और यह भी दिमाग में रखना होगा कि इस पर आपत्ति केवल मुसलमानों की तरफ़ से ही नहीं बल्कि स्वयं राबिन्दर नाथ टैगोर जिनकी रचना को राष्ट्रगान होने का सम्मान प्राप्त है। और जिन्होंने इसकी पहली दो पंक्तियों को 1896 में गाया था। उन्होंने इस पर आपत्ति भी जाहिर की थी, और इस आपत्ति में वह अकेले नहीं थे, बल्कि ‘‘ब्रह्मो समाज’’ से संबंध रखने वाले हिन्दू भद्रजन भी मुसलमानों के साथ-साथ आपत्ति करने वालों में शामिल थे।
निःसंदेह कि अब मेरा यह श्रृंखलाबद्ध लेख ‘‘वंदे मातृम’’ पर केन्द्रित है जिसे राष्ट्रगीत क़रार दिया गया है परन्तु मैं आज उन तमाम राष्ट्रीय प्रतीकों से अपनी बात शुरू करना चाहता हूं जिन्हें राष्ट्रीय प्रतीक का स्थान प्राप्त है। अतएव सबसे पहले ‘‘राष्ट्रीय ध्वज’’ की बात करना चाहूंगा। हमारे राष्ट्रीय ध्वज में तीन अलग-अलग रंग की सीधी पट्टियां हैं, जिनमें समान अनुपात में गहरा केसरिया रंग सबसे ऊपर है, बीच में सफ़ेद और सबसे नीचे हरा। सफ़ेद पट्टी के बीच में नीले रंग का चक्कर, जिसे अशोक के चक्र से लिया गया है, जिसमें 24 तीलियां हैं, इसे राष्ट्रीय ध्वज की हैसियत से 22 जुलाई 1947 को अपनाया गया।
यूं तो रंगों का कोई धर्म नहीं होता फिर भी रंगों को धर्मों की पहचान से जोड़ कर भी देखा जाता है और इस दृष्टि से अगर देखें तो हरे रंग को मुसलमानों से और केसरिया रंग को हिन्दुओं से जोड़ कर देखा जाता है। जिस समय हमारे राष्ट्रीय ध्वज को स्वीकार किया गया क्या मुसलमानों ने इस बात पर आपत्ति की कि हरा रंग सबसे नीचे क्यों है? स्वाधीनता की लड़ाई में हम किसी से पीछे तो न थे और क्या इस बात पर आपत्ति की गई कि भगवा रंग सबसे ऊपर क्यों है? क्या किसी ने कहा कि चलो सफ़ेद रंग जो अमन व शान्ति का प्रतीक है उसे ही सबसे ऊपर रखा जाए, या झंडे की शक्ल कुछ ऐसी हो कि केसरया और हरा रंग बराबरी के महत्व के साथ शामिल किए जाएं न कोई ऊपर न कोई नीचे, शायद नहीं।
यह भी ध्यान में रहे कि जिस समय अर्थात 22 जुलाई 1947 को इसे हमारे राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार किया गया उस समय तक पाकिस्तान अस्तित्व में नहीं आया था, अर्थात यह राष्ट्रीय ध्वज सभी के लिए स्वीकार्य था, सभी की रज़ामंदी से स्वीकार किया गया था, अर्थात इस निर्णय में पंडित जवाहर लाल नेहरू भी शामिल थे सरदार पटेल भी और मुहम्मद अली जिन्ना भी और बात केवल एक जिन्ना की नहीं, बल्कि वह समस्त मुसलमान भी शामिल थे जो बाद में पाकिस्तान के नागरिक कहलाए, किसी को भी इस ध्वज पर कोई आपत्ति नहीं थी।
अब बात राष्ट्रीय चिन्ह की- हमारा राष्ट्रीय चिन्ह जो कि अशोक के सिंह इस्तम्भ, शेरों वाली लाठ से लिया गया है, जिसमें चार शेर एक दूसरे की ओर पीठ किए हुए हैं, नीचे घण्टे की शक्ल के पदम के ऊपर एक चित्र, वल्लरी में एक हाथी चैकड़ी भरता हुआ, एक घोड़ा, एक सांड और एक शेर की उभरी हुई मूर्तियां हैं इसके बीच-बीच में चक्र बने हुए हैं जो लोहे के पत्तल को काट-काट कर बनाए गए हैं। संग स्तम्भ के ऊपर धर्म चक्र रखा हुआ है। इसमें केवल तीन शेर दिखाए देते हैं चैथा दिखाई नहीं देता, पट्टी के बीचों-बीच उभरी हुई नक्काशी में चक्कर है जिसके दाईं ओर एक सांड और बाईं ओर एक घोड़ा है। दाएं और बाएं किनारों पर अन्य चक्करों के किनारे हैं। भारत सरकार ने इस चिन्ह को 26 जनवरी 1950 को अपनाया
‘‘मंडिकोपनिषद (उपनिषद का नाम) का सूत्र के बाद ‘सत्यमेव जयते’ देवनागरी लिपि में अंकित है जिसका अर्थ है सत्य की ही विजय होती है।’’
इस राष्ट्रीय प्रतीक पर कोई टिप्पणी न करते हुए मैं केवल इतना कहना चाहूंगा कि क्या कोई आपत्ति किसी भी ओर से देखने या सुनने को मिली? किसी इस्लामी संस्था या मुसलमानों के प्रतिनिधियों ने कभी इसे वाद-विवाद का विषय बनाया? शायद कभी नहीं?
यह बात कुछ केन्द्रीय विषय से अलग लग सकती है मगर मैं अपने पाठकों से निवेदन करना चाहता हूं कि इस शुष्क लेख को इसलिए सहन कर लें कि इन पंक्तियों के द्वारा मैं कोई महत्वपूर्ण बात करने का इरादा रखता हूं। शायद इसे उस समय तक नहीं समझा जा सकता जब तक कि बात पूरी न हो जाए। अलबत्ता इरादा क्या है यह मैं शुरू में ही सामने रख देना चाहता हूं ताकि पढ़ने वालों और सुनने वालों की दिलचस्पी बनी रहे इस लेख के अन्तर्गत, मैं इन तमाम प्रतीकों पर बात करना चाहता हूं जिन्हें हम अपना राष्ट्रीय प्रतीक स्वीकार करते हैं जो हमारी राष्ट्रीय निशानियां हैं।
उसके बाद मैं साबित यह करना चाहता हूं कि यदि तमाम राष्ट्रीय निशानियों में से किसी एक पर भी ऐसी आपत्ति देखने को नहीं मिली जैसी कि वंदे मातृम पर देखने को मिल रही हैतो हमें पूरी ईमानदारी से इस पर ध्यान देना होगा कि आख़िर इसका कारण क्या है और हमें इस सच्चाई पर भी ध्यान देना होगा कि हमारी इन सभी राष्ट्रीय निशानियों के से ऐसी कोई भी निशानी नहीं है, सिवाए वंदे मातृम के जहां हमने किन्हीं दो राष्ट्रीय निशानियों को एक ही श्रेणी में रखा हो।
उदाहरणतः हमारा राष्ट्रीय ध्वज एक है तो है, दो राष्ट्रीय ध्वजों को यह सम्मान प्राप्त नहीं है कि हम दोनों को अपना राष्ट्रीय ध्वज मानें। अगर हमारा राष्ट्रीय चिन्ह जिसका अभी उल्लेख किया एक है तो है, जो सभी के लिए स्वीकार्य है, ऐसा नहीं कि हमने दो राष्ट्रीय चिन्ह अर्थात राष्ट्रीय निशान स्वीकार कर लिए हों और दोनों को एक जैसी हेसियत प्राप्त हो, तब फिर ऐसी क्या विवश्ता हमारे सामने आई कि हमारे एक राष्ट्रगान के होते हुए हमें एक और राष्ट्रीय गीत की आवश्यकता महसूस हुई? यह उल्लेख मैं इसलिए कर रहा हूं कि हमने राष्ट्रीय पंचांग अर्थात केलण्डर भी एक ही माना है, जबकि एक से अधिक केलण्डर भारत में आज भी मौजूद हैं और प्रयोग में भी। राष्ट्रीय पशु एक ही है, किसी ने यह बहस नहीं की कि उसके पसंदीदा अन्य किसी पशु को भी राष्ट्रीय पशु का स्थान प्राप्त हो।
निःसंदेह कि अब मेरा यह श्रृंखलाबद्ध लेख ‘‘वंदे मातृम’’ पर केन्द्रित है जिसे राष्ट्रगीत क़रार दिया गया है परन्तु मैं आज उन तमाम राष्ट्रीय प्रतीकों से अपनी बात शुरू करना चाहता हूं जिन्हें राष्ट्रीय प्रतीक का स्थान प्राप्त है। अतएव सबसे पहले ‘‘राष्ट्रीय ध्वज’’ की बात करना चाहूंगा। हमारे राष्ट्रीय ध्वज में तीन अलग-अलग रंग की सीधी पट्टियां हैं, जिनमें समान अनुपात में गहरा केसरिया रंग सबसे ऊपर है, बीच में सफ़ेद और सबसे नीचे हरा। सफ़ेद पट्टी के बीच में नीले रंग का चक्कर, जिसे अशोक के चक्र से लिया गया है, जिसमें 24 तीलियां हैं, इसे राष्ट्रीय ध्वज की हैसियत से 22 जुलाई 1947 को अपनाया गया।
यूं तो रंगों का कोई धर्म नहीं होता फिर भी रंगों को धर्मों की पहचान से जोड़ कर भी देखा जाता है और इस दृष्टि से अगर देखें तो हरे रंग को मुसलमानों से और केसरिया रंग को हिन्दुओं से जोड़ कर देखा जाता है। जिस समय हमारे राष्ट्रीय ध्वज को स्वीकार किया गया क्या मुसलमानों ने इस बात पर आपत्ति की कि हरा रंग सबसे नीचे क्यों है? स्वाधीनता की लड़ाई में हम किसी से पीछे तो न थे और क्या इस बात पर आपत्ति की गई कि भगवा रंग सबसे ऊपर क्यों है? क्या किसी ने कहा कि चलो सफ़ेद रंग जो अमन व शान्ति का प्रतीक है उसे ही सबसे ऊपर रखा जाए, या झंडे की शक्ल कुछ ऐसी हो कि केसरया और हरा रंग बराबरी के महत्व के साथ शामिल किए जाएं न कोई ऊपर न कोई नीचे, शायद नहीं।
यह भी ध्यान में रहे कि जिस समय अर्थात 22 जुलाई 1947 को इसे हमारे राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार किया गया उस समय तक पाकिस्तान अस्तित्व में नहीं आया था, अर्थात यह राष्ट्रीय ध्वज सभी के लिए स्वीकार्य था, सभी की रज़ामंदी से स्वीकार किया गया था, अर्थात इस निर्णय में पंडित जवाहर लाल नेहरू भी शामिल थे सरदार पटेल भी और मुहम्मद अली जिन्ना भी और बात केवल एक जिन्ना की नहीं, बल्कि वह समस्त मुसलमान भी शामिल थे जो बाद में पाकिस्तान के नागरिक कहलाए, किसी को भी इस ध्वज पर कोई आपत्ति नहीं थी।
अब बात राष्ट्रीय चिन्ह की- हमारा राष्ट्रीय चिन्ह जो कि अशोक के सिंह इस्तम्भ, शेरों वाली लाठ से लिया गया है, जिसमें चार शेर एक दूसरे की ओर पीठ किए हुए हैं, नीचे घण्टे की शक्ल के पदम के ऊपर एक चित्र, वल्लरी में एक हाथी चैकड़ी भरता हुआ, एक घोड़ा, एक सांड और एक शेर की उभरी हुई मूर्तियां हैं इसके बीच-बीच में चक्र बने हुए हैं जो लोहे के पत्तल को काट-काट कर बनाए गए हैं। संग स्तम्भ के ऊपर धर्म चक्र रखा हुआ है। इसमें केवल तीन शेर दिखाए देते हैं चैथा दिखाई नहीं देता, पट्टी के बीचों-बीच उभरी हुई नक्काशी में चक्कर है जिसके दाईं ओर एक सांड और बाईं ओर एक घोड़ा है। दाएं और बाएं किनारों पर अन्य चक्करों के किनारे हैं। भारत सरकार ने इस चिन्ह को 26 जनवरी 1950 को अपनाया
‘‘मंडिकोपनिषद (उपनिषद का नाम) का सूत्र के बाद ‘सत्यमेव जयते’ देवनागरी लिपि में अंकित है जिसका अर्थ है सत्य की ही विजय होती है।’’
इस राष्ट्रीय प्रतीक पर कोई टिप्पणी न करते हुए मैं केवल इतना कहना चाहूंगा कि क्या कोई आपत्ति किसी भी ओर से देखने या सुनने को मिली? किसी इस्लामी संस्था या मुसलमानों के प्रतिनिधियों ने कभी इसे वाद-विवाद का विषय बनाया? शायद कभी नहीं?
यह बात कुछ केन्द्रीय विषय से अलग लग सकती है मगर मैं अपने पाठकों से निवेदन करना चाहता हूं कि इस शुष्क लेख को इसलिए सहन कर लें कि इन पंक्तियों के द्वारा मैं कोई महत्वपूर्ण बात करने का इरादा रखता हूं। शायद इसे उस समय तक नहीं समझा जा सकता जब तक कि बात पूरी न हो जाए। अलबत्ता इरादा क्या है यह मैं शुरू में ही सामने रख देना चाहता हूं ताकि पढ़ने वालों और सुनने वालों की दिलचस्पी बनी रहे इस लेख के अन्तर्गत, मैं इन तमाम प्रतीकों पर बात करना चाहता हूं जिन्हें हम अपना राष्ट्रीय प्रतीक स्वीकार करते हैं जो हमारी राष्ट्रीय निशानियां हैं।
उसके बाद मैं साबित यह करना चाहता हूं कि यदि तमाम राष्ट्रीय निशानियों में से किसी एक पर भी ऐसी आपत्ति देखने को नहीं मिली जैसी कि वंदे मातृम पर देखने को मिल रही हैतो हमें पूरी ईमानदारी से इस पर ध्यान देना होगा कि आख़िर इसका कारण क्या है और हमें इस सच्चाई पर भी ध्यान देना होगा कि हमारी इन सभी राष्ट्रीय निशानियों के से ऐसी कोई भी निशानी नहीं है, सिवाए वंदे मातृम के जहां हमने किन्हीं दो राष्ट्रीय निशानियों को एक ही श्रेणी में रखा हो।
उदाहरणतः हमारा राष्ट्रीय ध्वज एक है तो है, दो राष्ट्रीय ध्वजों को यह सम्मान प्राप्त नहीं है कि हम दोनों को अपना राष्ट्रीय ध्वज मानें। अगर हमारा राष्ट्रीय चिन्ह जिसका अभी उल्लेख किया एक है तो है, जो सभी के लिए स्वीकार्य है, ऐसा नहीं कि हमने दो राष्ट्रीय चिन्ह अर्थात राष्ट्रीय निशान स्वीकार कर लिए हों और दोनों को एक जैसी हेसियत प्राप्त हो, तब फिर ऐसी क्या विवश्ता हमारे सामने आई कि हमारे एक राष्ट्रगान के होते हुए हमें एक और राष्ट्रीय गीत की आवश्यकता महसूस हुई? यह उल्लेख मैं इसलिए कर रहा हूं कि हमने राष्ट्रीय पंचांग अर्थात केलण्डर भी एक ही माना है, जबकि एक से अधिक केलण्डर भारत में आज भी मौजूद हैं और प्रयोग में भी। राष्ट्रीय पशु एक ही है, किसी ने यह बहस नहीं की कि उसके पसंदीदा अन्य किसी पशु को भी राष्ट्रीय पशु का स्थान प्राप्त हो।
राष्ट्रीय पक्षी वह भी एक ही सबको स्वीकार्य है, यहां तक कि राष्ट्रीय फूल, राष्ट्रीय वृक्ष, राष्ट्रीय फल किसी पर न कोई विवाद न बहस न एक साथ दो वृक्ष, दो फूल या दो फल एक जैसे महत्व वाले। अर्थात तमाम राष्ट्रीय प्रतीकों में केवल एक राष्ट्रीय गान और राष्ट्रीय गीत यही दो हैं और इनमें से भी विवाद केवल ‘‘वंदे मातृम पर है और यह विवाद भी इतना कि इसे राष्ट्र से प्रेम की कसौटी बनाकर पेश किया जा रहा है। अगर ऐसा न होता तो सम्भवतः हमारी बहस इतनी लम्बी न होती, मगर अब चूंकि यह राष्ट्रीय स्तर पर बहस का विषय है और हमारे बनाए बिना है तो फिर यह हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है कि तमाम सच्चाइयों के साथ इसे राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय परिपेक्ष में राष्ट्र के सामने रख दें फिर जो निर्णय राष्ट्र का।
नोटः आज से हम रोज़ एक ऐसा गीत भी प्रकाशित करने जा रहे हैं जो स्वाधीनता संघर्ष के दौरान लिखा गया और गाया गया ताकि हमारे पाठक अनुमान कर सकें कि किस-किस गीत ने आज़ादी के मतवालों के दिलों में वह स्थिति पैदा की होगी कि हमारी आज़ादी का सपना वास्तविकता में बदल गया और हम गुलामी की ज़ंजीरें तोड़ने में कामयाब हुए, और साथ ही यह भी कि वह आज़ादी के गीत किस-किस ने लिखे और किस-किस भाषा में। हमें यह भी याद रखना होगा कि उस समय वह कौन-कौन सी भाषाएं थीं जो लोकप्रिय थीं और किन-किन भाषाओं में कही जाने वाली बात कितना प्रभाव रखती थी। अगर हमारी बात को समझना ज़रा भी कठिन लगे तो याद करें लता मंगेशकर की आवाज़ में गूंजने वाला यह गीत:
‘‘ऐ मेरे वतन के लोगों! ज़रा आँख में भर लो पानी,
नोटः आज से हम रोज़ एक ऐसा गीत भी प्रकाशित करने जा रहे हैं जो स्वाधीनता संघर्ष के दौरान लिखा गया और गाया गया ताकि हमारे पाठक अनुमान कर सकें कि किस-किस गीत ने आज़ादी के मतवालों के दिलों में वह स्थिति पैदा की होगी कि हमारी आज़ादी का सपना वास्तविकता में बदल गया और हम गुलामी की ज़ंजीरें तोड़ने में कामयाब हुए, और साथ ही यह भी कि वह आज़ादी के गीत किस-किस ने लिखे और किस-किस भाषा में। हमें यह भी याद रखना होगा कि उस समय वह कौन-कौन सी भाषाएं थीं जो लोकप्रिय थीं और किन-किन भाषाओं में कही जाने वाली बात कितना प्रभाव रखती थी। अगर हमारी बात को समझना ज़रा भी कठिन लगे तो याद करें लता मंगेशकर की आवाज़ में गूंजने वाला यह गीत:
‘‘ऐ मेरे वतन के लोगों! ज़रा आँख में भर लो पानी,
जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कु़रबानी’’।
..............(जारी)
हमारा देस
जग से भला संसार से प्यारा।
दिल की ठन्डक आंख का तारा।
सबसे अनोखा सबसे नियारा।
दुनिया के जीने का सहारा।
प्यारा भारत देस हमारा।।
इसके दरया, इसके समुन्दर।
इसके संगम, इसके बंदर1।
प्रेम की मूरत, प्रीत का मंदर।
हुस्नो मुहब्बत का गहवारा2।
प्यारा भारत देस हमारा।।
कितनी पुर क़ैफ़3 इसकी अदाएं।
कितनी दिलकश इसकी फ़िज़ाएं।
मुश्क से बढ़कर इसकी हवाएं।
ख़ुल्द4 से बेहतर इसका नज़ारा।
प्यारा भारत देस हमारा।।
मुल्क को हासिल हो आज़ादी।
ख़त्म हो दौरे सितम ईजादी5।
दूर हो इसकी सब बरबादी।
चर्ख़े6 पे चमके बन के तारा।
प्यारा भारत देस हमारा।।
हम में पैदा हो यक जाई।
सब हों बाहम भाई भाई।
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई।
गाएं मिलकर गीत यह प्यारा।
प्यारा भारत देस हमारा।।
हकीम मोहम्मद मुस्तफा ख़ां
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हमारे राष्ट्रीय प्रतीक हिन्दू धर्म के प्रतीक भी हैंक़ुरआने करीम पूर्ण जीवन दर्शन है, मानव जीवन के लिए। विश्व की कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे क़ुरआने करीम की रोशनी में समझा न जा सके। आयाते क़ुरआनी को समझना जब हमारे लिए मुश्किल होता है तो हम हदीस की तरफ़ लौटते हैं और जब कोई हदीस समझ से ऊपर होती है तो हम क़ुरआन की तरफ़ लौटते हैं। क़ुरआने करीम के द्वारा ईश्वर ने क्या संदेश दिया है इसे समझने के लिए कभी-कभी केवल आयाते क़ुरआनी को पढ़ लेना ही पर्याप्त नहीं होता बल्कि हमें अनुवाद, टीकाऐं और उसके उतरने के कारण का भी सहारा लेना पड़ता है। जब हम इस दृष्टिकोण से ध्यान पूर्वक अध्य्यन कर लेते हैं तब उस संदेश तक पहुंचना बहुत सरल हो जाता है।यही कार्य पद्धति यदि हम विश्व के सभी मामलों में गूढ़ समस्याओं को सुलझाने के लिए व्यवहार में लाएं तो इस पवित्र आकाशीय पुस्तक का प्रकाश हर दृष्टिकोण से हर पक्ष को स्पष्ट कर देता है। ‘वन्दे मातरम’ भारतीय समाज के लिए पिछले लम्बे समय से अनसुल्झी पहेली बना हुआ है। अक्सर इस पर विवाद खड़ा हो जाता है, लम्बी बहस चलती है, फिर लोग थक जाते हैं, नई समस्याऐं अपनी ओर ध्यान केन्द्रित कर लेती हैं और यह समस्या पीछे चली जाती है। आज़ादी के पूर्व से लेकर अब तक इसी प्रकार यह सिलसिला जारी है।यदि दारूल उलूम बेवबंद की गरिमा को निशाना न बनाया जाता तो शायद हमें इतनी गहराई से शोध की आवश्यक्ता पेश न आती। परन्तु अब जबकि देशवासियों के एक वर्ग विश्ेष ने देशप्रेम का पैमाना वन्दे मातरम को ही मान लिया है तो हमें ज़रूरी लगा कि क़ौम के दामन पर दाग़ लगाने की इस कोशिश को असफ़ल बनाने के लिए पूरी ईमानदारी के साथ तमाम तथ्यों को भारत सरकार और जनता के सामने रख दिया जाये। मैं फिर यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि वन्दे मातरम के सम्बंध में मेरे लेख न तो इसके विरोध में हैं और न इसके समर्थन में। हमारा प्रयास तो बस इतना है कि हम सब तमाम सच्चाइयों को खुली आंखों से देख लें फिर जिसकी सद्बृद्धि जो उचित समझे.कोई भी बात कब कही गई, किन परिस्थितियों में कही गई, किस काल में कही गई और किस अवसर पर कही गई, जब तक हम इसका अध्य्यन नहीं करेंगे, बात की गहराई तक पहुंचना आसान नहीं होगा। राष्ट्र गीत की हैसियत रखने वाले वन्दे मातरम पर बहस आरम्भ करने के तुरन्त बाद मैंने आवश्यक समझा कि इस ऐतिहासिक परिदृश्य की ध्यान पूर्वक विवेचना की जाये, कि जब इसे लिखा गया वह परिस्थितियाँ किया थीं? लिखने का कारण क्या था? काल क्या था और कब इसे ‘राष्ट्र गीत’ का दर्जा दिया गया? साथ ही हमारी राष्ट्रीय पहचान से सम्बद्ध जितनी भी निशानियाँ हैं उनका भी गहराई से अध्य्यन किया जाये।
यह भी देखा जाये कि केवल राष्ट्र गीत ही दो हैं या हमारी अन्य राष्ट्रीय निशानियाँ भी दो-दो हैं फिर जब हम किसी एक का चुनाव करते हैं तो हमारी नज़र इस वर्ग में आने वाली अन्य अनेक चीज़ों पर भी होती है, उदाहरण स्वरूप मैं अपने लेख के साथ पिछले कई दिन से एक-एक कविता भी प्रकाशित कर रहा हूँ। यह कविता, गीत, तराना या आज की लोरी सब के सब स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन कविगण द्वारा लिखे गए जिनमें हिन्दू और मुसलमान दोनों का काव्य है, जो स्वतंत्रता सैनानियों के उत्साह को बढ़ाने के इरादे से लिखी गयीं।
आज इस लेख के साथ प्रकाशित की जाने वाली लोरी मोहतरम अख़तर शीरानी की कृति है और इसकी सबसे बड़ी विशेषता मुझे यह लगी कि इस दौर में एक माँ अपने अल्पायु बच्चे को नींद की गोद में पहुंचने से पूर्व भी उसे देशभक्ति का गीत सुनाती थी और उसके मन व मस्तिष्क में वह उत्साह पैदा करती थी कि वह अपने देश की स्वतंत्रता को अपने जीवन का उद्देश्य बनाकर जीवन बिताये। यह भावना थी हमारे शायरों की और यह वह गीत हैं जिनसे घबरा कर अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें ज़ब्त कर लिया था। इसलिए कि वह समझते थे कि उनका प्रभाव इतना गहरा है कि उनकी सरकार की चूलें हिल सकती हैं। मुझे नहीं मालूम कि क्या ‘वन्दे मातरम्’ भी अंग्रेज़ सरकार द्वारा ज़ब्त किया गया?
शोध जारी है, वैसे भी अभी मैंने सीधे रूप में वन्दे मातरम् पर बहस का सिलसिला शुरू नहीं किया है, हां अल्बत्ता आनन्द मठ के कुछ हवाले ज़रूर पेश किये हैं। इन्शा अल्लाह जल्द ही तमाम विस्तार के साथ इस पर भी क़ल्म उठाया जायेगा। अभी तक तो राष्ट्रीय प्रतीकों पर बातचीत जारी थी, इनमें से जिन तीन का उल्लेख शेष रह गया आज उस पर बात समाप्त करना चाहता हूँ और वह तीन प्रतीक हैं हमारा राष्ट्रीय फल, राष्ट्रीय फूल और राष्ट्रीय वृक्ष।हमारा राष्ट्रीय फल ‘आम’ है वेदों में आम को भगवान का फल बताया गया है, मैं इस पर कोई बहस नहीं करना चाहता, मिर्ज़ा ग़ालिब को भी आम बहुत पसन्द थे और शायद सभी भारतियों की पहली पसन्द भी आम हैं। हां फूल पर कुछ वाक्य अवश्य लिखना चाहेंगे। ‘कमल’ के फूल को भारत मंे प्राचीन काल से ही पवित्र माना जाता रहा है और भारतीय देवमाला में इसे विशेष स्थान प्राप्त है। हिन्दू धर्म के अनुयाइयों के लिए यह फूल विशेष महत्व रखता है। इस धर्म के अनुसार कमल को भगवान विष्णु, ब्रह्मा, लक्ष्मी और पार्वती से जोड़ा जाता है। भगवान विष्णु के सौन्र्दय का उल्लेख करने के लिए कमल से उनको उपमा दी जाती है, अनेक धार्मिक रीतियों को पूरा करने में भी कमल के फूल का प्रयोग किया जाता है।वेदों में भी कमल का उल्लेख मिलता है। सम्भव है कि इन्ही विशेषताओं के आधार पर भारतीय जनता पार्टी ने इसे अपना चुनाव चिन्ह चुना है। अन्यथा पण्डित जवाहर लाल नेहरू की शेरवानी पर मुस्कराने वाला गुलाब का फूल भी अपने सौन्र्दय और सुगन्ध के लिए तमाम फूलों में एक विशेष स्थान रखता है और वर्ष में एक दिन ऐसा भी आता है जब प्रेम करने वाले युवा लड़के लड़कियों के द्वारा फूल उनका प्रेम सन्देश बन कर उनके प्रेमी तक पहुंचता है और हमारे लिए तो इसका महत्व यूँ भी बढ़ जाता है कि ख़वाजा ग़रीब नवाज़ (रह।) की दरगाह हर समय इसी गुलाब की सुगन्ध से महकती रहती है और यह फूल तीर्थ स्थल ‘पुष्कर’ से आता है।
बहरहाल अब उल्लेख राष्ट्रीय वृक्ष ‘बरगद’ का। नीम के हवाले से आयुर्वेद और यूनानी दवाइयों के विशेषज्ञ बहुत कुछ कहते हैं, हमारे पूर्वज भी नीम के वृक्ष को आंगन में लगाना स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक समझते हों, यह सब अलग बात है, परन्तु हमारा राष्ट्रीय वृक्ष ‘बरगद’ है। जब मैं बरगद की विशेषताओं का अध्य्यन कर रहा था तो इतनी सामग्री मेरे सामने थी कि कई लेख केवल बरगद के धार्मिक पहलू को सामने रख कर लिखे जा सकते हैं। फल और फूल की दृष्टि से तो बरगद का उल्लेख निरर्थक है, इसलिए कि इस पर लगने वाले फूल और फल उल्लेखनीय नहीं, हां अल्बत्ता इसकी विशालता शेष सभी वृक्षों से बढ़कर है।अब रहा प्रश्न इसे हिन्दू धर्म के महत्व के रूप में देखने का तो प्राचीन काल से ही भारत में इसकी पूजा की जाती रही है। ऋज्ञ वेद और अथर वेद ने इसकी पूजा को अनिवार्य क़रार दिया है। हिन्दू देव माला में भगवान शिव को बरगद के वृक्ष के नीचे बैठा हुआ बताया गया है। हिन्दू धर्म के अनुयायी इसे ‘कल्प वृक्ष’ भी कहते हैं जिसका अर्थ है कि एक ऐसा वृक्ष जो तमाम मुरादों को पूरा करता है। सम्भव है इसका एक कारण यह भी रहा हो कि जब चित्रकूट की ओर जाते हुए सीता जी के रास्ते में यह वृक्ष पड़ा तो उन्होनें इसे नमस्कार किया और अपने पतिव्रत धर्म के पालन के लिए इस वृक्ष से प्रार्थना की। हाथ जोड़ कर सीता जी बहुत देर तक मौन इसके सामने खड़ी रहीं और अपनी मुराद को पूरा करने की प्रार्थना की जिसे संस्कृत के इस श्लोक में दर्शाया गया हैतेषु ते प्लवमुत्सृज्य प्रस्थाय यमुनावनात् ।श्यामं न्यग्रोधमासेदुः शीतलं हरितच्छदम् ।।न्यग्रोधं समुपागम्य वैदेही चाभ्यवन्दत ।नमस्तेऽस्तु महावृक्ष पारयेन्मे पतिव्रतम् ।।
रामायण, अयोध्या काण्ड, 2, पृष्ठ 23-24, 55
‘हे महावट वृक्ष जो यमुना के किनारे स्थित है और शीतल छाया से आच्छादित है, मुझे पतिव्रता धर्म का पालन करने की सार्मथ्य दो और निर्विधनता का आर्शीवाद दो।’और जब बनवास से सीता जी श्रीराम जी के साथ वापस लौट रही थीं तो इस सृन्दर वृक्ष को देख कर श्रीराम जी ने सीता जी को सम्बोधित करके कहा कि तुम ने जिस वृक्ष से प्रार्थना की थी, यह अन्य वृक्षों के बीच इस समय ऐसा ही स्पष्ट नज़र आ रहा है जैसे अनेक नीलमों के बीच पुखराज जड़ा हो। सम्भवतः सही कारण है कि आज भी विवाहित हिन्दू महिलाएं लम्बे और ख़ुशहाल गृहस्थ जीवन के लिए बरगद की पूजा करती हैं।अपने इन राष्ट्रीय चिन्हों के सम्बंध में और भी कुछ लिखा जा सकता है परन्तु हम बात को और लम्बा नहीं करना चाहते, इसलिए कि हमें अब वन्दे मातरम् की तरफ़ लौटना है, हां इतना लिखने के पीछे भी उद्देश्य केवल यह था कि इस खोज से जो सच्चाई सामने आती है उससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि तमाम राष्ट्रीय चिन्हों का चुनाव करते समय हमारे धर्मनिरपेक्ष भारत के भाग्य विधाताओं ने क़दम-क़दम पर एक धर्म विशेष के प्रतिनिधित्व का ख़याल रखा था।
लोरीकभी तो रहम पर आमादा बे रहम आसमाँ होगा।
कभी तो ये जफ़ा पेशा मुक़द्दर मेहरबाँ होगा।
कभी तो सर पे अब्रे रहमते हक़ गुलफ़िशां होगा।
मुसर्रत का समाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
किसी दिन तो भला होगा ग़रीबों की दुआओं का
असर ख़ाली न जाएगा ग़म आलूद इलतिजाओं का।
नतीजा कुछ तो निकलेगा फकीराना सदाओं का।
ख़ुदा गर मेहरबाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।
ख़ुदा रख्खे जवाँ होगा तो ऐसा नौजवाँ होगा।
हुसैन व फ़हमदाँ होगा दिलेरो तैग़रां होगा।
बहुत शीरी जुबाँ होगा बहुत शीरी बयाँ होगा।
यह महबूबे जहाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।
वतन और क़ौम की सौ जान से ख़िदमत करेगा यह।
ख़ुदा की और ख़ुदा के हुक्म की इज़्ज़त करेगा यह।
हर अपने और पराए से सदा उल्फ़त करेगा यह।
हर इक पर मेहरबाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
मेरा नन्हा बहादुर एक दिन हथियार उठाएगा।
सिपाही बनके सूए अर्सा गाहे रज़्म जाएगा।
वतन के दुश्मनों की ख़ून की नहरें बहाएगा।
और आख़िर कामरां होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
वतन की जंगे आज़ादी में जिसने सर कटाया है।
ये उस शैदाए मिल्लत बाप का पुरजोश बेटा है।
अभी से आलमें तिफ़ली का हर अन्दाज़ कहता है।
वतन का पासबां होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
है उसके बाप के घोड़े को कब से इन्तिज़ार उसका।
है रस्ता देखती कब से फ़िज़ाए कारज़ार उसका।
हमेशा हाफ़िज़ो नासिर रहे परवरदिगार उसका।
बहादुर पहलवाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
वतन के नाम पर इक रोज़ यह तलवार उठाएगा।
वतन के दुश्मनों को कुन्जे तुरबत में सुलाएगा।
और अपने मुल्क को ग़ैरों के पंजे से छुड़ाएगा।
ग़ुरूरे ख़ान्दाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
सफ़े दुश्मन में तलवार उसकी जब शोले गिराएगी।
शुजाअत बाज़ुओं में (आग) बन के लहलहाएगी।
जबीं की हर शिकन में मर्गे दुश्मन थरथराएगी।
यह ऐसा तेग़ रां होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
सरे मैदान जिस दम दुश्मन उसको घेरते होंगे।
बाजाए ख़ूं रगों में उसकी शोले तैरते होंगे।
सब उसके हमला ऐ शेराना से मुंह फेरते होंगे।
तहो बाला जहां होगा।
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
अख़्तर शीरानी
यह भी देखा जाये कि केवल राष्ट्र गीत ही दो हैं या हमारी अन्य राष्ट्रीय निशानियाँ भी दो-दो हैं फिर जब हम किसी एक का चुनाव करते हैं तो हमारी नज़र इस वर्ग में आने वाली अन्य अनेक चीज़ों पर भी होती है, उदाहरण स्वरूप मैं अपने लेख के साथ पिछले कई दिन से एक-एक कविता भी प्रकाशित कर रहा हूँ। यह कविता, गीत, तराना या आज की लोरी सब के सब स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन कविगण द्वारा लिखे गए जिनमें हिन्दू और मुसलमान दोनों का काव्य है, जो स्वतंत्रता सैनानियों के उत्साह को बढ़ाने के इरादे से लिखी गयीं।
आज इस लेख के साथ प्रकाशित की जाने वाली लोरी मोहतरम अख़तर शीरानी की कृति है और इसकी सबसे बड़ी विशेषता मुझे यह लगी कि इस दौर में एक माँ अपने अल्पायु बच्चे को नींद की गोद में पहुंचने से पूर्व भी उसे देशभक्ति का गीत सुनाती थी और उसके मन व मस्तिष्क में वह उत्साह पैदा करती थी कि वह अपने देश की स्वतंत्रता को अपने जीवन का उद्देश्य बनाकर जीवन बिताये। यह भावना थी हमारे शायरों की और यह वह गीत हैं जिनसे घबरा कर अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें ज़ब्त कर लिया था। इसलिए कि वह समझते थे कि उनका प्रभाव इतना गहरा है कि उनकी सरकार की चूलें हिल सकती हैं। मुझे नहीं मालूम कि क्या ‘वन्दे मातरम्’ भी अंग्रेज़ सरकार द्वारा ज़ब्त किया गया?
शोध जारी है, वैसे भी अभी मैंने सीधे रूप में वन्दे मातरम् पर बहस का सिलसिला शुरू नहीं किया है, हां अल्बत्ता आनन्द मठ के कुछ हवाले ज़रूर पेश किये हैं। इन्शा अल्लाह जल्द ही तमाम विस्तार के साथ इस पर भी क़ल्म उठाया जायेगा। अभी तक तो राष्ट्रीय प्रतीकों पर बातचीत जारी थी, इनमें से जिन तीन का उल्लेख शेष रह गया आज उस पर बात समाप्त करना चाहता हूँ और वह तीन प्रतीक हैं हमारा राष्ट्रीय फल, राष्ट्रीय फूल और राष्ट्रीय वृक्ष।हमारा राष्ट्रीय फल ‘आम’ है वेदों में आम को भगवान का फल बताया गया है, मैं इस पर कोई बहस नहीं करना चाहता, मिर्ज़ा ग़ालिब को भी आम बहुत पसन्द थे और शायद सभी भारतियों की पहली पसन्द भी आम हैं। हां फूल पर कुछ वाक्य अवश्य लिखना चाहेंगे। ‘कमल’ के फूल को भारत मंे प्राचीन काल से ही पवित्र माना जाता रहा है और भारतीय देवमाला में इसे विशेष स्थान प्राप्त है। हिन्दू धर्म के अनुयाइयों के लिए यह फूल विशेष महत्व रखता है। इस धर्म के अनुसार कमल को भगवान विष्णु, ब्रह्मा, लक्ष्मी और पार्वती से जोड़ा जाता है। भगवान विष्णु के सौन्र्दय का उल्लेख करने के लिए कमल से उनको उपमा दी जाती है, अनेक धार्मिक रीतियों को पूरा करने में भी कमल के फूल का प्रयोग किया जाता है।वेदों में भी कमल का उल्लेख मिलता है। सम्भव है कि इन्ही विशेषताओं के आधार पर भारतीय जनता पार्टी ने इसे अपना चुनाव चिन्ह चुना है। अन्यथा पण्डित जवाहर लाल नेहरू की शेरवानी पर मुस्कराने वाला गुलाब का फूल भी अपने सौन्र्दय और सुगन्ध के लिए तमाम फूलों में एक विशेष स्थान रखता है और वर्ष में एक दिन ऐसा भी आता है जब प्रेम करने वाले युवा लड़के लड़कियों के द्वारा फूल उनका प्रेम सन्देश बन कर उनके प्रेमी तक पहुंचता है और हमारे लिए तो इसका महत्व यूँ भी बढ़ जाता है कि ख़वाजा ग़रीब नवाज़ (रह।) की दरगाह हर समय इसी गुलाब की सुगन्ध से महकती रहती है और यह फूल तीर्थ स्थल ‘पुष्कर’ से आता है।
बहरहाल अब उल्लेख राष्ट्रीय वृक्ष ‘बरगद’ का। नीम के हवाले से आयुर्वेद और यूनानी दवाइयों के विशेषज्ञ बहुत कुछ कहते हैं, हमारे पूर्वज भी नीम के वृक्ष को आंगन में लगाना स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक समझते हों, यह सब अलग बात है, परन्तु हमारा राष्ट्रीय वृक्ष ‘बरगद’ है। जब मैं बरगद की विशेषताओं का अध्य्यन कर रहा था तो इतनी सामग्री मेरे सामने थी कि कई लेख केवल बरगद के धार्मिक पहलू को सामने रख कर लिखे जा सकते हैं। फल और फूल की दृष्टि से तो बरगद का उल्लेख निरर्थक है, इसलिए कि इस पर लगने वाले फूल और फल उल्लेखनीय नहीं, हां अल्बत्ता इसकी विशालता शेष सभी वृक्षों से बढ़कर है।अब रहा प्रश्न इसे हिन्दू धर्म के महत्व के रूप में देखने का तो प्राचीन काल से ही भारत में इसकी पूजा की जाती रही है। ऋज्ञ वेद और अथर वेद ने इसकी पूजा को अनिवार्य क़रार दिया है। हिन्दू देव माला में भगवान शिव को बरगद के वृक्ष के नीचे बैठा हुआ बताया गया है। हिन्दू धर्म के अनुयायी इसे ‘कल्प वृक्ष’ भी कहते हैं जिसका अर्थ है कि एक ऐसा वृक्ष जो तमाम मुरादों को पूरा करता है। सम्भव है इसका एक कारण यह भी रहा हो कि जब चित्रकूट की ओर जाते हुए सीता जी के रास्ते में यह वृक्ष पड़ा तो उन्होनें इसे नमस्कार किया और अपने पतिव्रत धर्म के पालन के लिए इस वृक्ष से प्रार्थना की। हाथ जोड़ कर सीता जी बहुत देर तक मौन इसके सामने खड़ी रहीं और अपनी मुराद को पूरा करने की प्रार्थना की जिसे संस्कृत के इस श्लोक में दर्शाया गया हैतेषु ते प्लवमुत्सृज्य प्रस्थाय यमुनावनात् ।श्यामं न्यग्रोधमासेदुः शीतलं हरितच्छदम् ।।न्यग्रोधं समुपागम्य वैदेही चाभ्यवन्दत ।नमस्तेऽस्तु महावृक्ष पारयेन्मे पतिव्रतम् ।।
रामायण, अयोध्या काण्ड, 2, पृष्ठ 23-24, 55
‘हे महावट वृक्ष जो यमुना के किनारे स्थित है और शीतल छाया से आच्छादित है, मुझे पतिव्रता धर्म का पालन करने की सार्मथ्य दो और निर्विधनता का आर्शीवाद दो।’और जब बनवास से सीता जी श्रीराम जी के साथ वापस लौट रही थीं तो इस सृन्दर वृक्ष को देख कर श्रीराम जी ने सीता जी को सम्बोधित करके कहा कि तुम ने जिस वृक्ष से प्रार्थना की थी, यह अन्य वृक्षों के बीच इस समय ऐसा ही स्पष्ट नज़र आ रहा है जैसे अनेक नीलमों के बीच पुखराज जड़ा हो। सम्भवतः सही कारण है कि आज भी विवाहित हिन्दू महिलाएं लम्बे और ख़ुशहाल गृहस्थ जीवन के लिए बरगद की पूजा करती हैं।अपने इन राष्ट्रीय चिन्हों के सम्बंध में और भी कुछ लिखा जा सकता है परन्तु हम बात को और लम्बा नहीं करना चाहते, इसलिए कि हमें अब वन्दे मातरम् की तरफ़ लौटना है, हां इतना लिखने के पीछे भी उद्देश्य केवल यह था कि इस खोज से जो सच्चाई सामने आती है उससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि तमाम राष्ट्रीय चिन्हों का चुनाव करते समय हमारे धर्मनिरपेक्ष भारत के भाग्य विधाताओं ने क़दम-क़दम पर एक धर्म विशेष के प्रतिनिधित्व का ख़याल रखा था।
लोरीकभी तो रहम पर आमादा बे रहम आसमाँ होगा।
कभी तो ये जफ़ा पेशा मुक़द्दर मेहरबाँ होगा।
कभी तो सर पे अब्रे रहमते हक़ गुलफ़िशां होगा।
मुसर्रत का समाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
किसी दिन तो भला होगा ग़रीबों की दुआओं का
असर ख़ाली न जाएगा ग़म आलूद इलतिजाओं का।
नतीजा कुछ तो निकलेगा फकीराना सदाओं का।
ख़ुदा गर मेहरबाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।
ख़ुदा रख्खे जवाँ होगा तो ऐसा नौजवाँ होगा।
हुसैन व फ़हमदाँ होगा दिलेरो तैग़रां होगा।
बहुत शीरी जुबाँ होगा बहुत शीरी बयाँ होगा।
यह महबूबे जहाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।
वतन और क़ौम की सौ जान से ख़िदमत करेगा यह।
ख़ुदा की और ख़ुदा के हुक्म की इज़्ज़त करेगा यह।
हर अपने और पराए से सदा उल्फ़त करेगा यह।
हर इक पर मेहरबाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
मेरा नन्हा बहादुर एक दिन हथियार उठाएगा।
सिपाही बनके सूए अर्सा गाहे रज़्म जाएगा।
वतन के दुश्मनों की ख़ून की नहरें बहाएगा।
और आख़िर कामरां होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
वतन की जंगे आज़ादी में जिसने सर कटाया है।
ये उस शैदाए मिल्लत बाप का पुरजोश बेटा है।
अभी से आलमें तिफ़ली का हर अन्दाज़ कहता है।
वतन का पासबां होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
है उसके बाप के घोड़े को कब से इन्तिज़ार उसका।
है रस्ता देखती कब से फ़िज़ाए कारज़ार उसका।
हमेशा हाफ़िज़ो नासिर रहे परवरदिगार उसका।
बहादुर पहलवाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
वतन के नाम पर इक रोज़ यह तलवार उठाएगा।
वतन के दुश्मनों को कुन्जे तुरबत में सुलाएगा।
और अपने मुल्क को ग़ैरों के पंजे से छुड़ाएगा।
ग़ुरूरे ख़ान्दाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
सफ़े दुश्मन में तलवार उसकी जब शोले गिराएगी।
शुजाअत बाज़ुओं में (आग) बन के लहलहाएगी।
जबीं की हर शिकन में मर्गे दुश्मन थरथराएगी।
यह ऐसा तेग़ रां होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
सरे मैदान जिस दम दुश्मन उसको घेरते होंगे।
बाजाए ख़ूं रगों में उसकी शोले तैरते होंगे।
सब उसके हमला ऐ शेराना से मुंह फेरते होंगे।
तहो बाला जहां होगा।
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
अख़्तर शीरानी
देश प्रेमी क्यों न गाएँ वन्दे मातरम् ?
मुस्लिम विद्वानों को बुद्धिद्रोही कहने वाले वैदिक जी खुद ही अवैदिक हैं क्योंकि वेदों मे मूर्तिपूजा और बहुदेववाद नहीं है लेकिन वंदे मातरम् गीत के पाँचवे पद में दुर्गा देवी की उपासना व स्तुति की गई है। पाप का समर्थन क्यों ? नाम के साथ वैदिक लिखने मात्र से ही कोई व्यक्ति वैदिक नहीं बन सकता जब तक कि उसकी सोच भी वैदिक न हो।
वैदिक जी प्रज्ञापराधी भी हैं क्योंकि उन्होंने यह तो बताया कि ‘आनन्द मठ’ के पहले संस्करण में मूल खलनायक ब्रिटिश थे लेकिन उन्होंने यह तथ्य छिपाया है कि उसका लेखक हरेक संस्करण में संशोधन करता रहा। पाँचवे संस्करण तक आते-आते मूल खलनायक मुस्लिमों को बना दिया गया था। यही पाँचवा संस्करण देश-विदेश में प्रचारित हुआ।
वैदिक जी खुद बुद्धिद्रोही क्योंकि यह एक कॉमन सेंस की बात है कि आनन्द मठ के सन्यासी विष्णु पूजा के नाम पर हिन्दुओं को इकठ्ठा करते थे और मुसलमानों की बस्ती में पहुँचकर मुसलमानों को लूटते और क़त्ल करते थे, उनकी औरतों की बेहुरमती करते थे। ऐसे समय पर वे वन्दे मातरम् गाते थे। अपने ऊपर ज़ुल्म ढाने वाले दस्युओं का गीत भला कौन गायेगा ? बुद्धिद्रोही मुस्लिम आलिम हैं या खुद वैदिक जी?
वैदिक जी बुद्धिराक्षस भी हैं क्योंकि मुसलमान आलिमों ने देश की आज़ादी के लिए फाँसी के फंदों पर झूलकर अपनी जानें, क़ुर्बान की हैं बल्कि आज़ादी की लड़ाई का पहला सिपाही एक मदरसे का पढ़ा हुआ आलिम ‘टीपू सुल्तान’ ही था। सन् 1857 की क्रान्ति का नायक बहादुर शाह ज़फ़र भी मुल्ला मौलवियों का ही पढ़ाया हुआ था। आज़ादी की तीसरी लड़ाई भी ‘रेशम रूमाल आन्दोलन’ के नायक शेखुल हिन्द मौलाना महमूद उल हसन के नेतृत्व में लड़ी गई। मौलाना को अंग्रेजों ने माल्टा की जेल में कैद कर दिया। सन् 1920 में उनकी जेल में ही मौत हो गई। मौलाना उबैदुल्लाह सिन्धी, अमीर हबीबुल्लाह व उनके साथी सैकड़ों आलिमों व हज़ारों मुरीदों को अंग्रेजों द्वारा फाँसी पर लटका दिया गया। दारूल उलूम के सद्र शेखुल हिन्द ने ही महात्मा गांधी को लीडर बनाया। वैदिक जी आज जिस आज़ादी की फ़िज़ा में सांस ले रहे हैं अपनी हर सांस में वे मुस्लिम आलिमों के ऋणी हैं लेकिन उन्होंने उनके प्रति दो वचन-सुमन भी अर्पित नहीं किए।
जमीयतुल उलमाए हिन्द मुस्लिम लीग के टोटकों की लाश नहीं ढो रही है जैसा कि उनका विचार है बल्कि एकेश्वरवाद की आत्मा से प्रायः खाली भारतीय जाति के रूग्ण शरीर में ईमान व सत्य के यक़ीन की जान फूंक रही है। जबकि दारूल उलूम का पुतला फूंकने वाले लोग भारतीय समाज की शांति, एकता और तरक्क़ी को जला रहें है। नफ़रतों ने तो वृहत्तर भारत को, जिसमें ईरान आदि तक थे, खण्डित कर दिया तो क्या फिर राजनीतिक संकीर्ण स्वार्थों की खातिर मतान्ध लोग नफ़रतें फैलाकर देश की अखण्डता को खतरे में डालना चाहते हैं?
‘आनन्द मठ उपन्यास हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन पर एक कलंक है। डा0 राम मनोहर लोहिया ने सच ही कहा था। मुसलमानों के साथ-साथ हिन्दुओं को भी इस गीत का विरोध करना चाहिए क्योंकि
1- यह गीत अवैदिक सोच की उपज है।
2- इसे दस्यु लूटमार के समय गाया करते थे।
3- मुसलमानों को मारने काटने का नाम विष्णु पूजा रखकर विष्णु पूजा को बदनाम किया गया है।
4- यह गीत अंग्रेजों के चाटुकार नौकर बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा लिख गया है जिसने न कभी खुद देश की आज़ादी के लिए प्रयास किया और न ही कभी क्रान्तिकारियों की मदद् की।
5- यह गीत अंग्रेजों के वेतनभोगी सेवक और सहायक की याद दिलाता है।
6- यह गीत सन्यासियों के वैराग्य और त्याग के स्वरूप को विकृत करके भारतीय मानवतावादी परम्परा को कलंकित करता है।
इसके बावजूद भी सत्य से आँखें मूंदकर जो लोग वन्दे मातरम् गाना चाहें गायें लेकिन यह समझ लें कि सत्य का इनकार करना ईश्वर के प्रति द्रोह करना और अपनी आत्मा का हनन करना है। ऐसे लोग कल्याण को प्राप्त नहीं करते हैं और मरने के बाद अंधकारमय असुरों के लोक को जाते हैं। वेद-कुरआन यही बताते हैं और मुस्लिम आलिम भी यही समझाते हैं यही सनातन और शाश्वत सत्य है।
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कहो वन्दे ईश्वरम
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