Tuesday, June 18, 2013

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Hindi Book "महेन्द्रपाल आर्य बनाम कथित महबूब अली"  के द्वारा उठाई गयी आपत्तियों की विश्लेषणात्मक समीक्षा

लेखकः
डा. मुहम्मद असलम कासमी
                   Ph.D.

फोनः 9837788115
E-mail:   dr_aslam.qasmi@yahoo.com

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पुस्तकः हकप्रकाश बजवाब सत्यार्थ प्रकाश
एवं सत्यार्थ प्रकाश समीक्षा की समीक्षा पढने के लिए देखें
satishchandgupta.blogspot.in

प्रकाशित:
सनातन सन्देश संगम
मिल्लत उर्दू एकेडमी, मौहल्ला सोत, रुड़की, उत्तराखंड

HIndi PDF Book Links महेन्‍द्रपाल आर्य बनाम कथित महबूब अली के द्वारा उठाई गयी आपत्तियों की विश्‍लेष्‍णात्‍मक समीक्षा 
http://www.mediafire.com/view/q9waa7j9278ccw7/aslam_qasmi_rep_Mahendra_pal_Arya.pdf
&
http://www.scribd.com/doc/148479080/Aslam-Qasmi-Reply-Mahendra-Pal-Arya 

दो शब्द
आज़ादी के बाद भारतीय मुसलमानों को जहाँ कई प्रकार की समस्याओं का सामना है वहीं एक यह भी है कि एक विशेष मानसिकता के लोग इस्लाम और मुस्लमानों पर झूठे और बेतुके इल्जामात लगाकर उन्हें मानसिक उलझनों का शिकार रखना चाहते हैं। जिहाद सम्बन्धित कुरआन-ए-करीम की कुछ आयतें इनके खास निशाने पर रही हैं। इस तरह के आरोपों के कई प्रकार से उत्तर दिये जा चुके हैं स्वयं एक स्वामी ‘‘लक्षमी शंकर आचार्य’’ जिन्होंने कुरआन की ऐसी ही आयतों पर आधारित एक पुस्तक लिखी थी परन्तु जब उनके सामने सच्चाई पेश की गयी तो उन्हें अपने किये पर खेद हुआ, और उन्होंने अपनी पुस्तक से दस्त बरदार होते हुए स्वयं उक्त आपत्तियों के उत्तर पर आधारित एक पुस्तक ‘‘इस्लाम आतंक या आदर्श’’ के नाम से लिखी जिसमें उन्होंने अपनी गलती को स्वीकार करते हुए अल्लाह और उसके रसूल से और मुसलमानों से क्षमा याचना की है, और अपने ही द्वारा उठाये गये प्रश्नों के उत्तर स्वयं प्रस्तुत किये हैं। परन्तु अब शत्रु मानसिकता एक नया मोहरा लेकर आयी है। इस सरसरी लेख में उस नये मोहरे की वास्तविकता पर विचार किया गया है। अगर इस लेख में कहीं कोई बात वास्तविकता से हट कर दिखाई दे तो कृपया मुझे सूचित करें। मैं उसे वापस लेने को तैयार हूं ।
- डा. मुहम्मद असलम कासमी
     मोबाईल फोन: 9837788115
 मिल्लत उर्दू एकेडमी, मौहल्ला सोत, रुड़की

पंडित महेन्द्रपाल आर्य का लिखा आपत्ति पत्र ‘‘कुरआन में गैर मुस्लिमों को जीने का हक नहीं’’ के शीर्षक का एक पत्रक मानवाधिकार आयोग के एक मेम्बर द्वारा प्राप्त हुआ, उन्होंने बताया कि यह पत्रक आयोग को डाक द्वारा मिला था। उस में जो आपत्ति जताई गई है वह कोई नई बात नहीं है। इस तरह की आपत्तियां इन्टरनेट पर काफी दिनों से मौजूद हैं जिनका भिन्न-भिन्न स्तरों से जवाब भी दिया जा चुका है। यों भी यह वही बातें हैं जो गत सैकडों वर्षों से इस्लाम विरोधी जताते रहे हैं और उस के अनेक बार अनेक लोगों की ओर से संतोषजनक और स्पष्ट उत्तर दिये जा चुके हैं। मुझे यह पत्र पहली बार प्राप्त हुआ है मैं भी पंडित महेन्द्र पाल के समक्ष उत्तर प्रस्तुत करुंगा, परन्तु एक बात का विश्लेषण आवश्यक है। वह यह कि महेन्द्रपाल की ओर से यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि वह पूर्व में मौलवी महबूब अली थे, केवल मौलवी ही नहीं अपितु हाफिज-ए-कुरआन भी थे। ज्ञात हो कि मौलवी वह होता है जिसे कुरआन, हदीस, फिका, तफसीर, अकाइद, इल्म-ए-कलाम, मन्तिक, फलसफा आदि का पूर्ण ज्ञान हो। यह सब ज्ञान अरबी भाषा के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। अतः एक मौलवी अरबी भाषा का पूर्ण ज्ञानी होता है। यह कोर्स करीब पन्द्रह वर्षो का है।
दूसरी डिग्री महेन्द्रपाल (महबूब अली) के पास उनके दावे के अनुसार हाफिज की भी थी। हाफिज़ वह होता है जिसे पूरा कुरआन मुंह जुबानी कंठस्थ हो, और वह जहाँ से चाहे खडे-खडे़ कुरआन पढ़ कर सुना सके।
मुझे असल इसी विषय पर बात करनी है मगर पहले उनकी आपत्तियों पर चर्चा करते हैं क्योंकि महेन्द्र पाल जी के मशहूर प्रश्नों जैसे के भिन्न-भिन्न विद्वानों के द्वारा कई-कई बार उत्तर दिये जा चुके हैं। इसलिये हम यहाँ पर सूक्ष्म शब्दों में उन के प्रश्न का उत्तर देते हुए या यों कहा जाए कि उनकी गलत फहमी को दूर करते हुए दूसरे विषय पर चर्चा करेंगे।
पहले उनकी गलत फहमी का समाधान
उन्हें गलत फहमी है कि कुरआन में गैर मुस्लिमों को जीने का हक नहीं और इसी शीर्षक से उनका उक्त वर्णित पत्रक भी है। हमने इस पुस्तक के अंत में उनके पत्रक के शीर्षक वाले पृष्ठ को इस पुस्तक के पृष्ठ न. 45 पर दिया है। इस पत्रक में वह सबूत के तौर पर कुरआन की कुछ आयतें प्रस्तुत करते हैं। जिन आयतों पर उन को एतराज है हम उनको आगे नकल करेंगे परन्तु इस से पहले महेन्द्रपाल जी से इन आयतों  के सम्बन्ध में कहना चाहेंगे के महाशय! आप तो (अपने दावे के अनुसार) सनद याफ्ता मौलवी हैं तो यकीनन यह तो आप जानते ही होगे कि कुरआन की हर आयत का एक बैकग्राउंड या पस-ए-मंजर होता है जिसे कुरआन की इस्तिलाह में शान-ए-नज़ूल कहते हैं। जिसे जाने और समझे बिना कुरआन पर प्रश्न चिन्ह लगाना स्वंय महेन्द्र जी पर इस बात का प्रश्न खड़ा करता है कि क्या उन्हें यह मान लिया जाए। कि वह भूतकाल में महबूब अली थे या इस से भी बढ़कर मौलवी महबूब अली थे।
कुरआन का अवतरण लगभग 23 वर्षो में परिस्थिति के अनुसार हुआ वे आयतें जिन पर महेन्द्र जी को ऐतराज है वे नबुव्वत मिलने के दस वर्ष बाद जब आप मक्का छोड़ कर मदीना चले गये उनका नुज़ूल तब आरम्भ हुआ और इस प्रकार की आयतें जो करीब डेढ़ दर्जन हैं वे लगभग 15 वर्षो की लम्बी अवधि में समय अनुसार नाज़िल हुईं। इसलिये कुरआन की एक एक आयत को समझने के लिये हजरत मुहम्मद सल्लललाहु अलैहिवसल्लम की जीवनी को जानना  आवश्यक है। श्री महेन्द्रपाल जी अगर अपने दावे के अनुसार पहले मौलवी महबूब अली थे तो हम उन से यह कैसे आशा कर सकते है कि वह मुहम्मद सल्लललाहु अलैहिवसल्लम की जीवनी या कुरआनी आयतों के शान-ए-नुजूल से परिचित नहीं होंगे। परन्तु जो व्यक्ति हजरत मुहम्मद सल्लललाहु अलैहिवसल्लम की जीवनी व कुरआनी आयतों के शान-ए-नुजूल से परिचित होते हुये कुरआन की उक्त आयतों पर प्रश्न खड़ा करें। हम उसे अपने दिमाग का इलाज कराने की सलाह देंगे। यह केवल हमारा निर्णय नहीं। हम इसे पाठकों की अदालत में रखते  हैं। वे स्वयं समझें और निर्णय लें और महेन्द्र जी के हाल पर विलाप करें ।
मुहम्मद सल्लललाहु अलैहि वसल्लम की जीवनी एक खुली किताब की मानिन्द है केवल मुसलमान ही नहीं अपितु कोई पढ़ा लिखा गैर मुस्लिम भी शायद ऐसा न होगा जो इस बात से परिचित न हो। कि मुहम्मद साहब मक्का नामक शहर में पैदा हुए थे और उन्होंने वहाँ पर इस्लाम धर्म का प्रचार शुरु किया तो मक्के वाले उनके शत्रु बन गये और उनको और उनके अनुयाइयों को यातनाएं देने लगे। यहां तक कि तीन वर्षों तक शत्रुपक्ष ने मुहम्मद सल्लललाहु अलैहि वसल्लम व उनके अनुयाइयों का पूर्ण रुप से बाइकाट भी किये रखा। जब यह यातनाएं बर्दाश्त से बाहर हो गईं तो मुहम्मद साहब ने आपने अनुयाइयों को मक्का छोड़ कर कहीं और चले जाने की सलाह दी और जब एक दिन मक्के वालों ने यह तय किया कि आज रात को वे सब एक साथ मिलकर (नऊजु बिल्लाह) मुहम्मद साहब का वध कर देंगे तो उन्‍हों ने स्वयं भी अपना शहर छोड़ दिया और जब वह अपने एक साथी के साथ रात के समय घर से निकले और शहर से बाहर जाकर जब उन्हांेने मदीने का रुख किया तो पीछे मुड़कर देखा और यह शब्द कहे, जो इतिहास में सुरक्षित हैं।
‘‘मेरे प्यारे वतन मक्के नगर! मुझे तुझ से बहुत प्यार है अगर तेरे वासी मुझे यहां रहने देते तो मैं तुझे कभी न छोड़ता।’’
और फिर आप मदीने की ओर चल निकले। यह बात नोट करने लायक है कि आप मक्का नगर छोड़ कर किसी करीबी स्थान पर नहीं रुके अपितु मक्के से करीब पांच सौ कि.मी. दूर मदीना शहर में जा कर निवास किया। मक्के वाले जो मुहम्मद साहब के घर का घेराव कर चुके थे जब उन्होंने देखा कि वे बच निकले हैं और उन के तमाम साथी मदीना पहुँच कर आराम से रहने लगे हैं तो उन्‍हों ने वहाँ भी मुसलमानों को तंग करने का प्रयास किया। अतः पहले उन्होंने मदीने वालों को आपके विरुद्ध उकसाना चाहा। इसमें  कामयाब न हुए तो स्वयं लाव-लश्कर लेकर मदीने पर चढ़ाई के लिए निकल पड़े। मक्के वालों की मदीने पर पहली चढ़ाई में मक्के वालों की ओर से करीब सात सौ व्यक्तियों ने भाग लिया जबकि मदीने में मुसलमानों की कुल संख्या उन से लगभग आधी थी। यहां से उन आयतों का अवतरण आरम्भ हुआ जिनसे महेन्द्र जी के दिल की धड़कनें बढ़ गयीं।
यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि मक्के वालों ने मदीने पर तीन बड़े आक्रमण किये। पहला हिजरत से दूसरे वर्ष, दूसरा हिजरत से तीसरे वर्ष और तीसरा हिजरत के चौथे वर्ष, अतः कुरआन की निम्न आयतें जिन पर महेन्द्र जी ने ऐतराज किया है, वे भी स्थिति के अनुसार समय-समय पर नाज़िल होती रही हैं। यहाँ तक कि कुछ आयतें हिजरत से आठ-दस वर्ष बाद फतह मक्का के समय भी नाज़िल हुईं।
अब कुरआन की वे आयतें देखें -
1. जिन लोगों को मुकाबले के लिये मजबूर किया जा रहा है और उन पर जुल्म ढ़ाये जा रहे हैं अब उन्‍हें भी मुकाबले की इजाजत दी जाती है क्योंकि वह मजलूम हैं। यह इजाजत उन के लिये है जिन्‍हें  नाहक उनके घरों से निकाला गया। सिर्फ इस लिये कि वे कहते थे कि हमारा परवरदिगार अल्लाह है (सूरह हज 49)
2. और उन से लड़ो जहां भी वे मिलें और उन्हें निकाल बाहर करो वहां से जहां से उन्होंने तुम्हें निकाला था औैर फितना बरपा करना कत्ल से भी बढ़ कर है और तुम उन से मस्जिद हराम के पास मत लड़ना जब तक वह तुम से न लड़ें।(सूरह बकर 119)
3. फिर अगर वह लोग बाज़ रहें तो बेशक अल्लाह बड़ा बख़्शने वाला मेहरबान है (सूरह बकर 192)
4. क्या तुम नहीं लड़ोगे उनसे जिन्होंने सन्धि को तोड़ा और मुहम्मद साहब को निकाल बाहर करने के लिए तत्पर रहे, क्या तुम उन से डरते हो? अगर तुम इमान रखते हो तो ईश्वर इस बात का अधिक योग्य है कि तुम उस से डरो। लड़ो उन से ईश्वर तुम्हारे हाथों उन्हे दंड दिलवायेंगे उन्‍हें ज़लील करेंगे और तुम्हारी सहायता करेंगे- (सूरह तोबा, आयत 13, 14)
5. हे नबी। इमान वालों को युद्ध करने के लिये आमादा करो यदि तुम में से बीस भी डटे रहने वाले होंगे तो वे 200 पर प्रभुत्व प्राप्त करेंगे, यदि सौ ऐसे होगें तो वे 4000 पर भारी रहेंगे (सूरह अनफाल, आयत 65)
हम इन आयतों के हवाले से महेन्द्र जी से कहना चाहेंगे कि पंडित महाश्य ज़रा इन कुरआन की आयतों का अन्दाज़-ए-ब्यान तो देखिये -
1. और निकाल बाहर करो उन्हें वहां से जहां से उन्‍हों ने तुम्‍हें निकाला था, आप जानते है कि मक्के वालो ने मुहम्मद साहब और उन के साथियों को निकाला था, अतः ज़ाहिर है कि यह उसी के दृष्टिगत है तो महेन्द्रपाल जी आपको क्या परेशानी हुई?
2. लड़ो उन से जिन्‍हों ने सन्धि को तोड़ा है।
इस्लामी इतिहास का एक मामूली विद्यार्थी भी इस बात को जानता है कि सन सात हिजरी में मुहम्मद साहब और मक्के वालो के बीच एक सन्धी हुई थी जो मुसलमानो की ओर से बेहद दबकर की गई सन्धि थी। इसमें  सारी बातें , सारी शर्तें, मक्के वालों की मानी गई थी। शर्तें  भी एक तरफा थीं। विस्तार से ब्यान करने का मौका नहीं परन्तु एक उदाहरण देखिये-उसमें मक्के वालों ने शर्त रखी थी कि अगर हमारा कोई आदमी मुसलमान बन कर आपके पास आता है तो आप को लौटाना होगा, परन्तु अगर तुम्हारा आदमी हमारे पास आता है तो हम उसे नहीं लौटाएंगे - इस प्रकार की करीब एक दर्जन शर्तें मक्के वालों की मुहम्मद साहब ने स्वीकार की थी और इस के बदले अपनी केवल एक शर्त मनवायी थी वह क्या थी उसे भी देखिए।
मुहम्मद साहब ने मक्के वालों से केवल एक बात की गारंटी चाही थी। वह यह कि मक्के वाले मुसलमानों पर अगले दस सालों तक न तो कोई आक्रमण  करेंगे न किसी आक्रमण करने वाले का साथ देंगे।
लेकिन दुर्भाग्य से मक्के वालों ने इसका एक वर्ष तक भी निर्वहन नहीं किया। उक्त आयत में इसी सन्धी को तोड़ने का जिक्र है परन्तु महेन्द्र जी! आपने तो किसी सन्धी को नहीं तोड़ा है। फिर आपको क्यों चिंत्ता हो रही है?
जिस व्यक्ति के सामने कुरआन की आयतों के यह पसमंजर हों और फिर भी वह किसी आयत पर आपत्ति जताये, ऐसे व्यक्ति के बारे मे यही कहा जा सकता है कि वह या तो एक समुदाए के लोगों को समुदाय विशेष के विरुद्ध भड़काकर अपने स्वार्थ की दुकान चलाना चाहता है और या उसका दिमागी तवाज़ुन बिगड़ चुका है और या फिर उसने कुरआनी आयत के पसमन्ज़र को जाने बगैर उसका सरसरी अध्ययन किया है, परन्तु महेन्द्र पाल तो मौलवी थे उनसे यह आशा कैसे करें। अतः स्पष्ट है कि पहली दो बातों में  से कोई एक उन पर लागू होती है।  
आयत न. 2 और 3 को एक बार फिर पढ़िएः
यह आयतें महेन्द्र जी के पत्रक के पृष्ठ न. 5 पर अंकित की गयी हैं।
जब मुहम्मद साहब अपने हजारों साथियों के साथ हिजरत के दस्वें वर्ष मक्के में दाखिल हुये इस मौके पर कोई युद्ध नहीं हुआ ना ही मक्के वालों की ओर से कोई खास विरोध की स्थिति सामने आयी परन्तु आप उन आयतों की शब्दावली देखिये जो इस मौके पर नाज़िल हुयीं।
उन्‍हें वहाँ से निकाल दो जहाँ से उन्होंने तुम्‍हें निकाला था -
और तुम उन से मस्जिद-ए-हराम के पास मत लड़ना -
इस में मक्के वालों के लिये एक पैग़ाम था कि अगर वे युद्ध न चाहें तो मस्जिद-ए-हराम में दाखिल हो जायें।
यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि यहाँ जिस मस्जिद में और उसके आस-पास लड़ने को मना किया जा रहा है वह उस समय मक्के वालों के ही कबज़े में थी ।
अब इस मोके पर मुहम्मद साहब ने जो घोषनाएं की वह भी देखें: -
आप ने ऐलान कराया जो मस्जिद के पास चला जाये, उसे कुछ न कहा जाये जो अपने घर के दरवाजे बन्द कर ले उसे न छेड़ा जाये और जो अबूसुफयान के घर में घुस जाये उसे कुछ न कहा जाये।
अबू सूफयान कौन थे?
मुहम्मद साहब व उनके साथियों से मक्के वालों के जितने भी युद्ध हुये हैं उन में से एक को छोड़ बाकी सभी की कमान अबू सुफयान के हाथ में रही है। क्या संसार का इतिहास कोई एक ऐसा उदाहरण पेश कर सकता है कि जिस में शत्रु फौज के कमान्डर को यह सम्मान दिया गया हो कि अगर कोई उस के घर में घुस जाये तो उस की जान बच जायेगी।
यहाँ मैं एक विशेष बात कहना चाहूंगा ।
अकसर कहा जाता है कि मुसलमान बड़ा जज़बाती होता है और वह अपने धर्म या धर्म प्रवर्तक के बारे में कुछ भी सुनने की सहनशीलता नहीं रखता ।
हाँ यह बात सही है परन्तु उसका कारण स्वभाविक है। जिसका धर्म प्रवर्तक ऐसा हो जैसा ऊपर बताया गया फिर भी कोई उस पर यह इलजा़म लगाये की उनके यहाँ गैर मुस्लिमों को जीने का हक़ नहीं तो अनुयाइयों का जज़बाती होना स्वाभाविक होता है।
श्री महेन्द्र जी ने सूरह अनफाल की आयत न. 65 का वर्णन किया है, जिसमें कहा गया है कि लड़ो उन से तुम्हारे बीस उनके दो सौ पर भारी रहेंगे और तुम्हारे सौ उनके चार हजार पर प्रभुत्व प्राप्त करेंगे। कुरआन में जहाँ यह आयत है वहीं दो आयतों के अन्तर पर निम्न आयतें भी है।
और अगर शत्रु (युद्ध के बीच) सुलह/सन्धि की ओर झुके तो तुम भी सुलह कर लेना और ईश्वर पर भरोसा करना वह सब कुछ सुनता और जानता है। यहाँ तक कि अगर उनका (शत्रु पक्ष) इरादा धोखे का हो (तो भी परवाह न करना) तुम्हारे लिए ईश्वर काफी है। (सूरह अनफाल आयत न. 61-62)
एक दूसरे स्थान पर कुरआन में आदेश है कि
सुलह करना (बहरहाल लड़ाई झगडे़ से) बेहतर है।  सूरह निसा 128

इस परिपेक्ष में  महेन्द्र जी से पूछना चाहूंगा कि क्या इस्लाम और कुरआन पर उंगली उठाते हुए बिलकुल ही न सोचा? अरे भाई जो संविधान यहां तक सुलह पसन्द हो कि वह अपने अनुयाइयों को आदेश करे कि अगर सुलह के नाम पर शत्रु पक्ष धोखा देने का इरादा रखता हो तो भी तुम सुलह कर लेना क्योंकि शान्ति हर स्थिति में युद्ध से बेहतर है और जो संविधान धर्म के बारे में यह आदेश करे कि धर्म के सम्बन्ध में कोई जोर जबरदस्ती नहीं की जा सकती जो चाहे स्वीकार करे जो चाहे इन्कार करे। (सूरह बकर 256)
आप उसे यह इलजाम दें कि इस्लाम में गैर मुस्लिमों को जीने का हक़ नहीं? मैं तो आपके बारे में यही कह सकता हूं कि: शर्म आनी चाहिये नफरत के ऐसे पुजारियों को जो समाज के बीच नफरत का बीज बोकर उसके जहरीले फल शान्त समाज को खिलाना चाहते हैं।
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बहरहाल महेन्द्रपाल जी ने कुरआन को छोड़कर वैदिक धर्म को अपना लिया है तो आईए अब यह भी देखलें कि वेदों में गैर अनुयाइयों के बारे में क्या कहा गया है।
नम्बर 1
राजा प्रजा के पालने और बैरियों को मारने में उद्यत रहे - अथर्वेद 8-3-7
नम्बर 2
तुम बैरियों का धन और राज्य छीन लो - अथर्वेद 5-20-3
नम्बर 3
सज्जन पुरूष दुखदायी दुष्टों को निकालने में सदा प्रयत्न करे - अथर्वेद 12-2-16
नम्बर 4
है राजन प्रत्येक निंदक कष्ट देने वाले को पहुंच और मार डाल - अथर्वेद 20-74-7
नम्बर 5
तू वेद निंदक पुरूष को काट डाल, चीर डाल, फाड़ डाल, जला दे, फूंक दे, भष्म कर दे - अथर्वेद 5-12-62
नम्बर 6
वेद विरोधी दुराचारी पुरूष को न्याय व्यवस्था से जला कर भष्म कर दे - अथर्वेद 5-12-61
नम्बर 7
उस वेद विरोधी को काट डाल, उसकी खाल उतार ले, उसके मांस के टुकड़े को बोटी-बोटी कर दे, उसकी नसों को ऐंठ दे, उसकी हडिड़्यों को मसल डाल, उसकी मींग निकाल दे, उसके सब जोडों और अंगों को ढीला कर दे - अथर्वेद 12-5-65 से 71 तक

हम महेंद्रपाल जी को यह भी बता दें कि कुरआन के अनुसार शत्रु पक्ष से इस प्रकार के बरताओ की युद्ध क्षेत्र में भी अनुमति नहीं है।
यह तो वेदों की बात थी। गीता में एक पूरा अध्याय इसी विषय पर है। जिसमें श्री कृष्ण अर्जुन को युद्ध करने पर आमादा करते हैं। जबकि वह हथियार रख चुके थे परन्तु श्री कृष्ण ने उनसे कहा कि यह तो कायरता है तुम्हारा धर्म ही युद्ध करना है। युद्ध करो वरना अधर्म हो जाएगा तुम युद्ध में मारे गये तो स्वर्ग को प्राप्त होगे और अगर जीते तो दुनिया की दौलत पाओगे (मज़े की बात यह है कि कृष्ण जी जिन लोगों से युद्ध करने को कह रहे हैं उनके साथ स्वयं महाराज ने अपनी फौज खड़ी की हुई है) क्यों? क्या इसलिए कि जो भी जीते वही आभारी रहे?
नतीजा यह हुआ कि एक बड़ी भयानक जंग हुई जिसमें महाभारत के अनुसार एक अरब छियासठ करोड़ इन्सान मारे गए। मरने वालों में कुछ लोग कृष्ण जी के सेना के भी होंगे। अपने ही लोगों को अधर्मों की सफ में खड़ा करके मरवा डाला? यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि उक्त आयतों से संबन्धित इस्लामी जंगों में मारे जाने वालों की कुल संख्या दो सौ से अधिक नहीं है। और महाभारत में कुल कितने मारे गए यह अभी पढ़ा ही है।
और महेंद्र पाल जी! इस्लाम में तो केवल चंद आयतें ही युद्ध की प्रेरणा देती हैं वह भी कड़ी शर्तों के साथ केवल आत्मरक्षा में, मगर आपके यहां तो महाभारत और रामायण दो बड़ी धार्मिक इतिहास पुस्तकें ऐसी हैं जिनका आधार ही युद्ध है। और वेदों के मंत्र अलग रहे। इसे ही कहते हैं छाज बोले तो बोले, छलनी भी बोले। जिसमें बहत्तर छेद।
महेंद्रपाल जी के पत्रक का शीर्षक है ‘‘कुरआन में गैर मुस्लिमों को जीने का हक नहीं’’ ।
यह शीर्षक जिसने भी लिखा है वह कोई अनपढ़, नासमझ और इतिहास के ज्ञान से नाबलद व्यक्ति ही हो सकता है। इस प्रकार की बातें लिखने, सोचने और कहने वालों को क्या यह मालूम नहीं कि भारत में कुरआन के मानने वालों ने कई शताब्दियों तक अपने आहनी पंजों से हुकूमत की है फिर भी मुसलमान यहां पर एक छोटी सी अल्पसंख्यक कम्यूनिटी है और महेंद्रपाल जी आप की मम्यूनिटी एक बहूसंख्यक वर्ग है। यह बात विचारणीय है कि अगर सैकड़ों साल कुरआन के मानने वालों ने यहां पर हुकूमत की है और आपके अनुसार कुरआन गैर मुस्लिमों को जीने का हक नहीं देता तो आप यह इल्जाम देने के लिए  कैसे बचे रह गए.....?
किसी ने सही कहा है:
मौक़ा मिला जो लम्हों का अहसान फरोश को।
सदियों में जो किया था वो अहसान ज़द पे है।।
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अब हम उस विषय पर आते हैं जिस पर हमें वास्तव में बात करनी थी ।
इस परिपेक्ष में हम देखेंगे कि क्या वाकई महेन्द्रपाल महबूब अली थे और साथ ही मौलवी या हाफिज़ भी थे या वह केवल दूसरों को भ्रमित करने के लिये महज अफवाह फैला रहे हैं।
महेन्द्रपाल का आपत्ति पत्र 8 पृष्ठों का हिन्दी में टाइप शुदा है जिसमें कुरआन के हवाले हाथ के लिखे हुये हैं।  यकीनन यह महेंन्द्र जी ने स्वयं लिखे होंगे क्योंकि वे अपने दावे के अनुसार मौलवी हैं और अगर किसी और से लिखवाये हैं तो भी महेंद्र जी ने इसे जारी करने से पहले गहराई से पढ़ा तो अवश्य होगा। उनका यह पत्रक इन्टरनेट पर गत कई वर्षों से मौजूद है।
प्रथम दृष्ट्या उनके पत्रक में स्वयं उनके हाथ की लिखी अरबी इबारत को देख कर नहीं लगता कि यह लेख किसी मौलवी या हाफिज़ का है। अधिक से अधिक उस का स्तर कक्षा 2 या 3 के छात्र का प्रतीत होता है उस में इमले व व्याकरण की बलन्डर त्रूटियां इस कदर हैं कि उन्हें देखकर लगता है कि ऐसा कथित मौलवी अगर मुसलमानों के बीच रहता तो उन्हें गुमराह करने के सिवा कुछ न कर सकता। महेन्द्रपाल के आठ पृष्ठों के पत्र के पहले पृष्ठ पर कुरआन के हवाले से चार आयतें लिखी हैं।
न. 3 पर यह इबारत है - (पी.डी.एफ फाइल पृष्‍ठ 18 पर चित्र देखें)

बॉक्स की इबारत महेन्द्रपाल के पत्रक के पहले पृष्ठ से ली गई है चलिये इसी इबारत पर महेन्द्रपाल के सही या गलत होने का फैसला हो जाये । वह इस प्रकार कि अरबी में लिखी जिस इबारत को जिस का मूल उच्चारण उन्होंने स्वयं अरबी इबारत के ऊपर और अनुवाद नीचे दिया है। और उसे कुरआन की आयत कहा है। वह इस इबारत को कुरआन के तीस पारों मे कहीं दिखा दें तो उनकी सारी बातें सही। वरना उन्हें और उनके भक्तों को यह मान लेना चाहिए कि वह समाज को धोखा दे रहे हैं।
उन्‍होंने ने उक्त अरबी इबारत का अनुवाद यह किया है - एक इस्लाम ही हक है और सब कुफ्र हैं, सब को बातिल किया। यह अरबी भाषा के ज्ञानी बताएंगे कि क्या यह अनुवाद सही है? इस इबारत का सही अनुवाद यह है-  इस्लाम हक़ है और कुफ्र बातिल है, यह तो अरबी जानने वाला व्यक्ति ही समझ सकता है कि जो अनुवाद महेन्द्रपाल ने उक्त इबारत का किया है ऐसे व्यक्ति को क्या मौलवी तसलीम किया जाए। या मौलवियत के नाम पर दाग? जिस व्यक्ति ने एक या दो दर्जा ही अरबी पढ़ी हो वह अवश्य इस प्रकार का अनुवाद कर सकता है। मेहन्द्रपाल जी जिस प्रकार की अरबी लिखते हैं या अरबी का अनुवाद करते हैं उसे देख कर लगता है कि किसी गैर मुस्लिम ने बोझल मन से इस्लाम पर एतराज करने के लिये अरबी सीखी है मैं कई ऐसे गैर-मुस्लिम भाईयों को जानता हूं जिन्‍हों ने शोकिया या उर्दू अध्यापक की नौकरी पाने के लिये उर्दू सीखी है। परन्तु इस प्रकार कोई भाषा सीखी जाए कि न तो उसे पूरा समय दिया जा सके और न ही पूरे मन से उसे सीखा जाए, ऐसे व्यक्तियों द्वारा सीखी गई कोई भी भाषा पुख्ता नहीं हो सकती। उस व्यक्ति के बारे में आपकी क्या राय है? जो अंग्रेजी शब्द Station  को istashan  लिखे या  Light  को Lait  या High को Hai लिखे। बस यही हाल बल्कि इससे भी अधिक बुरा हाल महेन्द्रपाल का है उन्‍हों ने इसी प्रकार के कुछ प्रश्न इन्टरनेट पर डाले थे जिसका कई लोगों ने उत्तर दिया है। इस को विस्तार से www.islamhinduism.com पर देखा जा सकता है। यह उसी पत्रक की नकल है जिसका हमने चर्चा किया उसे देखिए और महेन्द्रपाल जी के हाल पर मातम कीजिए, उस में  महेन्द्रपाल जी ने कुरआन की एक आयत लिखी है आयत है अत्तलाकु मर्रतान, इसमें शब्द -अत्तलाकु
मर्रतान को महेन्द्र पाल जी ऐसे लिखते हैं اطلاقُ- (पी.डी.एफ फाइल पृष्‍ठ 20 पर चित्र देखें)  
 जब कि इस का सही लिखित रुप है الطلاقُ   इस में  दो अक्षर अलिफ और लाम जो लिखे तो जाते हैं पढने में  नहीं आते  वह महेनद्रपाल जी भूल गये है ऐसी बलन्डर त्रूटी कक्षा 2 का छात्र ही कर सकता है। एक मौलवी से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती ।
महेन्द्रपाल के कलम का एक कारनामा और देखिये।
उन्‍हें  कुरआन की एक अन्य आयत पर भी एतराज़ है। आयत है ‘‘इन्नससलाता तन्हा अनिल फहशाइ वल मुनकर’’ वह इसे
इस प्रकार लिखते है عنل فحشاء  अनिलफहशाइ
का शब्द दो लफ्ज़ों से मिलकर बनता है, एक अन दुसरा अलफहशाइ इसको जब अरबी में लिखा जाता है तो दोनों शब्द अपनी असली सूरत में लिखे जाते हैं। यानि अन अलग और अलफाहशाइ अलग عن الفحشاء लेकिन दोनों को मिलाकर अनिलफाहशाइ पढ़ा जाता है। महेन्द्र पाल जी ने अन और अल को एक साथ लिखा है और फहशा को अलग लिखा है, ऐसी शाब्दिक गलती एक मौलवी से? ....... खुदा खैर करे।

इसी तरह उनका رَؤف بالعباد को  رَء وفم بلعباد लिखना और فیھا को   فی ھا लिखना من دون المؤمنین  को من دونِل مومنین लिखना उनकी योग्यता को दर्शाता है। - (पी.डी.एफ फाइल पृष्‍ठ 18 पर चित्र देखें)
उनकी लिखी इबारत को पढ़कर एक पढ़े लिखे इन्सान को केवल हंसी आ सकती है और महेन्द्रपाल के रवैये पर अफसोस ही किया जा सकता है।

हम यहाँ पर महेंद्रपाल जी के हाथ की लिखी पाँच छोटी-छोटी आयतें दे रहें हैं यह पाँच छोटी आयतें दो लाइनों में लिखी जा सकती हैं। इन दो लाइनों में महेंद्रपाल जी ने इमले की दस बलंडर गल्तियां की हैं जिन्हें अरबी भाषा का प्राथमिक विद्यार्थी भी पहली नजर में पकड़ लेगा और महेंद्रपाल जी के कलम के कारनामे पर अपनी हंसी रोक नहीं पाएगा। और अगर उसे यह भी बता दिया जाए कि इन महाशय ने विश्व प्रसिद्ध इस्लामिक विद्वान जाकिर नायक को शास्त्रार्थ के लिए चैलेंज भी किया हुआ है तो वह कहकहा लगाने पर मजबूर हो जाएगा।
महेन्द्रपाल की एक बलन्डर त्रूटी और देखिये, वह अपने अपत्ति पत्र के पृष्ठ न. 6 पर लिखते है हदीस छ: 6 हैं, जबकि हदीस छः नही छः हजार से भी ज्यादा हैं। परन्तु चलिये उनकी इस गलती को हम तसामोह अर्थात अनजाने में हुयी गलती मान लेते हैं और देखते हैं कि इससे उनका तात्पर्य कुछ और तो नहीं। एक विकल्प तो यह है कि शायद वह कहना चाहते हैं। कि हदीस की किताबें  छः हैं परन्तु ऐसा भी नहीं, हदीस की सैकडों  किताबें मौजूद व मशहूर हैं एक आखरी विकल्प जो अधिक सत्य मालूम पड़ता है यह है कि वह ‘‘सिहा सित्ता’’ का वर्णन करना चाहते हैं।


सिहा सत्ता क्या है?
सिहा के मायने, सही और सित्ता के मायने छः के हैं और यह इल्म-ए-हदीस की एक इस्तलाह है। यह शब्द हदीस की उन छः किताबों के लिये बोला जाता है जिनको अधिक महत्व प्राप्त है और वह दर्स-ए-निजामी अर्थात मौलवी के कोर्स में शामिल हैं।
बस हमें  यहीं पहुँचना था । प. महेन्द्रपाल ने जिन किताबों के नाम गिनवाए हैं उन में मिशकात शरीफ का नाम भी शामिल किया है। यही बात खास है।
जिसने हदीस की कोई एक किताब भी खोलकर भी देखी हो वह हदीस 6 होने का दावा नहीं कर सकता, न ही हदीस की 6 किताबें होने का दावा कर सकता। हाँ यह मुमकिन है कि अधकचरे ज्ञान वाला सिहा सित्ता का वर्णन करे और मिशकात को उस फहरिस्त में शमिल कर दे, परन्तु किसी मौलवी से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती। कि वह सिहा सित्ता में मिशकात का नाम लिखे। सिहा सित्ता मौलवी के कोर्स के अन्तिम वर्ष में एकसाथ पढ़ाई जाती हैं पूरे भारत में मिशकात को सिहा सित्ता के साथ कहीं भी नही पढ़ाया जाता अतः यह बात गारन्टी से कही जा सकती है कि जो व्यक्ति सिहा सित्ता मे मिशकात को शरीक बतलाए जिसका कलम
رَؤف بالعباد  को رَء وفم بلعباد और فیھا को  فی ھا लिखे  من دون المومنین  को من دونِل مومنین
लिखे और   تنہیٰ को  تَنْہَ  -  
والمنکر  को  ولمنکر , 
 لایتخذُ المومنُ को  لایتخزُ المومنو लिखे, वह कुछ भी हो सकता है मौलवी नहीं हो सकता। - (पी.डी.एफ फाइल पृष्‍ठ 22 पर चित्र देखें)

इन बातों  के दृष्टिगत यह पूरे भरोसे और शतप्रतिशत यकीन से कहा जा सकता है कि महेन्द्रपाल का यह दावा कि वह मौलवी थे निराधार, बेतुका और निरा झूठ है। बल्कि हमें तो इसमें भी शक है। कि वह महबूब अली थे।
उनका मूल निवास स्थान कलकत्ता है। इस समय वह दिल्ली में रहते हैं और आर्य समाज के प्रचारक हैं। दिल्ली में  रहने वाले किसी व्यक्ति का मूल पता कलकत्ते जैसे बडे़ और दुर्गम शहर में तलाश करना बड़ा कठिन कार्य है। परन्तु हम यह जानते है कि बंगला भाषी कलकत्ता शहर का मूल निवासी कितना ही बड़ा विद्वान क्यों न बन जाये बंगाली भाषा का असर उस की जुबान से कभी नहीं जाता इस की उचित मिसाल हमारे राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी है जिनकी अग्रेजी भी बंगाली नुमा होती है। दूसरी ओर महेन्द्रपाल जी है जो अपने भाषण में जिस प्रकार की शुद्ध हिन्दी का प्रयोग करते हैं उसे सुनकर लगता है कि वह दिल्ली के आस-पास किसी हिन्दी भाषी क्षेत्र के निवासी हैं कम से कम उनकी भाषा शैली से यह तो बिल्कुल नहीं लगता कि वह बंगाली हैं।
श्री महेन्द्रपाल का दावा है कि उन्होंने दिल्ली के मदरसा अमीनिया से आलिम (मौलवी कोर्स) से फरागत हासिल की है। उक्त से यह तो साबित हो गया है कि वह किसी मदरसे से सनद याफ्ता आलिम नहीं हो सकते हाँ यह मुमकिन है कि किसी महेन्द्रपाल ने फर्जी नाम महबूब अली रख कर किसी मदरसे में दाखिला ले लिया हो और एक या दो वर्ष अरबी भाषा व आलिम (मौलवी का कोर्स) की शिक्षा प्राप्त की हो। जबकि यह कोई नयी बात नहीं, ऐसी और भी मिसाले सुनने में आती रही हैं और जासूस बनकर मस्जिदों में इमामत कराने की तो बहुत सी मिसालें सामने आ चुकी हैं। महेन्द्रपाल तो किस खेत की मूली हैं। योरोपीय देशों  में इस्लामी शिक्षा के बड़े-बड़े गेर मुस्लिम विद्वान हुये हैं। जिन्‍हें  इस्लामी इस्तलाह में मुशतशरिक कहा जाता है। अरबी भाषा की एक महत्वपूर्ण डिक्शनरी अलमुनजिद एक ईसाई मुशतशरिक  की लिखी हुयी है। सिहा सित्ता (हदीस की छः बड़ी किताबें)की कुल हदीसों को अरबी अलफाबेट्स की श्रंखला के अनुसार जमा करने का कार्य भी एक योरोपीय मुशतशरिक ने किया है। शायद महेन्द्रपाल भी उन्हीं की चाल चले हैं परन्तु कव्वा चला हंस की चाल तो अपनी चाल भी भूल गया के अनुसार बिना मेहनत मुशक्कत के साल दो साल किसी मदरसे मे धोखा देकर रहे और आंजनाब का इमला तक सही न हो सका। ऐसे व्यक्ति को क्या हक है कि वह कुरआन का अनुवाद करे और उलटा सीधा आक्षेप कुरआन पर लगाये।
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यह तो महेन्दर पाल जी की योग्यता का विश्लेषण  था। आइये एक और दृष्टिकोण से इन महाशय का विश्लेषण करते हैं।
महेन्द्रपाल जी स्वयं को पंडित लिखते हैं और पंडिताई का कार्य करते हैं। उनके कहने के अनुसार वह पहले मुसलमान थे फिर वह हिन्दू धर्म के अनुयाई बन गये। हिन्दू धर्मानुसार पंडिताई का कार्य केवल ब्राह्मण    कर सकता है। और ब्राह्मण  जन्म जात होता है भारत में जो जाति प्रथा है। उस में यों ही कोई एक जाति का व्यक्ति दूसरी जाति का सदस्य नहीं बन सकता। हिन्दू धर्म की महत्वपूर्ण ग्रन्थ वेद एवं मनुस्मृति हैं उनके अनुसार हिन्दू समाज चार खानों में  विभाजित है ब्राह्मण , क्षत्रिय, वेशः एवं शूद्र। इनके अतिरिक्त जो भी हैं वे मलेच्छ (नापाक और अपवित्र) हैं इस व्यवस्था में धर्म की शिक्षा प्राप्त करना और शिक्षा देना केवल बृहमण का कार्य है। और शूद्र अगर शिक्षा प्राप्त करे तो उस के लिये कड़ी सजा का प्रावधान है। यहाँ प्रश्न यह है कि महेन्द्रपाल जब महबूब अली से महेन्द्रपाल बने तो उन्होंने कौन सा वर्ण ग्रहण किया। वह पहले मलेच्छ थे अर्थात शुद्र से भी नीचे। उन्होंने अपना शुद्धिकरण कराया, तो भी वे अधिक से अधिक शुद्र की श्रेणी में आ सकते थे। क्‍यों कि ‘‘तोहफतुल हिंद’’ के लेखक जिनका पहला नाम ‘‘अनंत राम’’ था और उन्होंने इस्लाम कुबूल करने के बाद अपना नाम मुहम्मद उबैदुल्लाह रखा उन्होंने अपनी मशहूर किताब ‘‘तोहफतुल हिंद’’ में कर्मव्याक के हवाले से लिखा है कि अगर कोई शुद्र पुन्य के कार्य करे तो वह अगले जन्म मे वेशः की योनी में जाता हैं और अगर कोई वेशः पुनः के कार्य करे तो व क्षत्रीय की योनी में। ऐसे ही क्षत्रिय ब्राह्मण  की योनी में और ब्राह्मण   पुन्य  करे तो उसकी मुक्ति हो जाती है।
परन्तु यह व्यवस्था तो मरनोपरान्त की है, प्रश्न यह है कि महेन्द्रपाल जी जीते जी ब्राह्मण  कैसे बन गये हैं।
यहाँ पर एक विकल्प और भी है उसे समझने के लिये हमें जानना होगा कि भारत में  दो प्रकार के मुसलमान पाये जाते हैं अधिक संख्या तो उनकी है जो यहीं के मूल निवासी थे और यहां किसी जाति से सम्बन्धित थे, दूसरे जो (कम संख्या में  हैं) वह बाहर से आये हुये हैं जो हिन्दू धर्म ग्रन्थों के अनुसार मलेच्छ थे जिनका वर्णन ऊपर किया गया। अगर महेन्द्र पाल जी इसी दूसरे वर्ग से थे तो उन्हें यह अधिकार किसने दिया कि वह हिन्दू बनते ही उस के उच्च और स्वर्ण वर्ग में जा बैठें। और अगर वह मुसलमान रहते, पहले वर्ग से अर्थात उस वर्ग के मुसलमानों में से थे जो यहीं के मूल निवासी  हैं तो यकीनन वह यहाँ की किसी न किसी जाति से सम्बन्धित रहे होंगे और उस में ब्राह्मण  जाति भी हो सकती है। परन्तु यहां हमें यह याद रखना होगा कि भारतीय मुसलमानों  में  वे सभी जातियाँ पाई जाती है जो हिन्दुओ में हैं उदाहरण के बतोर जाट हिन्दू भी हैं मुसलमान भी हैं गुर्जर हिन्दू भी मुसलमान भी हैं। परन्तु कहीं ऐसा अवश्य हुआ है कि किसी जाति ने मुसलमान होकर अपने जाति सूचक शब्द का उर्दू में अनुवाद करके उसे अपना लिया जैसे कुम्हार जिसका कार्य बर्तन बनाना है जब इस जाति के लोग मुसलमान हुये तो वह कूज़गर कहलाये इस का अर्थ भी वही होता है यानी बर्तन बनाने वाला-तात्पर्य यह कि हर वह जाति जो हिन्दू समाज में पायी जाती हैं। वही सभी जातियां मुसलमानों में  भी पायी जाती है। अर्थात यहां की सभी जातियों के कुछ न कुछ व्यक्तियों ने इस्लाम धर्म अवश्य कबूल किया है। परन्तु हमें  यह भी याद रखना चाहिए कि भारत वर्ष की दो जातियाँ ऐसी है जो मुसलमानों में नहीं पायी जाती। स्पष्ट है कि उन जातियों ने इस्लाम धर्म कबूल नहीं किया होगा। वे दो जातियां हैं एक चमार और दूसरा ब्राह्मण। इस तथ्य के दृष्टिगत हम यह कह सकते हैं कि महेन्द्रपाल जी जो पूर्व में उनके कथनानुसार महबूब अली थे वह ब्राहमण समाज से कनवर्ट होकर बिलकुल नहीं आए थे कि घर वापसी के बाद वह ब्राह्मण(पंडित) बन गये। परन्तु महेन्द्रपाल जी ने तो हिन्दू धर्म स्वीकार करके पंड़िताई शुरु कर दी और इस प्रकार वह अधर्म के पात्र हुए।
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यह महेन्द्र जी की काबलियत पर विचार था। आइये इस बात पर विचार करते हैं कि उन्हांेने अपने बकौल जिस धर्म को छोड़ा है क्या वह अपने जीवन में उसे पूर्णतः छोड़ चुके हैं या अभी भी अपनी जीवन व्यवस्था उसी छोड़े हुये के अनुसार व्यतीत करने पर विवश हैं।
जैसा कि हम ने लिखा कि वह पंडित नहीं थे परन्तु पंडिताई का कार्य कर रहे हैं इस प्रकार वे हिन्दू धर्म के मूल सिद्धान्त से हट गये हैं।
इस पर वह कह सकते है कि आज का समय समानता का समय है अब हर व्यक्ति को यह अधिकर है कि वह कुछ भी करे कुछ भी पढे़ और किसी को पढ़ाए। धार्मिक शिक्षा प्राप्त करे और धर्मिक शिक्षा का दूसरों को ज्ञान दे। परन्तु यह तो आप जानते ही होगें कि यह शिक्षा इस्लाम की है और उसी ने सब से पहले इसे दुनिया के सामने रखा और संसार की तार्किक शक्ति, उसके विवेक और बुद्धि ने उसे पुणत: अपनाने और अपने जीवन में उतारने पर आप को विवश कर दिया है। और आप हैं कि इसे अपनाने पर मजबूर है जबकि यह हिन्दुत्व के बुनियादी सिद्धान्तों के विपरीत है।
केवल यह एक उदाहरण नहीं अपितु अपकी जीवन व्यवस्था का 95 प्रतिशत भाग ऐसा है जिसे आप इस्लामी कानून के अनुसार जीने पर मजबूर हैं। उस धर्म की शिक्षा, जिसको आपने अपनाया है और आप के गुरु स्वामी दयानन्द  जी जो हिन्दुओं के लेटेस्ट रिफॉर्मर हैं उन्होंने लिखा है कि
शुद्र वेद का ज्ञान तो प्राप्त कर सकता है परन्तु उपनयन न करे-
           सत्यार्थ प्रकाश, सम्मुलास 3
मैं आपसे से पूछना चाहूंगा कि क्या आप इस नियम को अमली जामा पहना पायेगे? बिल्कुल नहीं। अगर आप ऐसा करना चाहेंगे तो देश का कानून आप को ऐसा करने नहीं देगा और इस में जो कुछ आप स्वीकार करने पर मजबूर हैं वही तो इस्लामी शिक्षा है।
एक दूसरा उदाहरण देखें  -
स्वामी दयानंद जी ने सत्यार्थ प्रकाश के चौथे सम्मुलास में करीब 10 पृष्ठों में इस बात का बखान किया है कि अगर कोई महिला बिना औलाद के विधवा हो जाए या किसी और कारण से उसको बच्चा न हो सका हो तो वे नियोग द्वारा बच्चा पैदा कर सकती है। मैं पूछना चाहूंगा कि अगर आपकी पत्नी को बच्चा पैदा न हो सके तो क्या आप उसे अनुमति देंगे कि वह किसी दूसरे मर्द के साथ रात गुज़ार आये और उसके द्वारा गर्भवती होकर आए। अगर आप ऐसा करना चाहेंगे तो आपकी पत्नी ही इस के लिये सहमत नहीं होगी, फिर भी आप अगर उस से ऐसा ही करायेंगे तो समाज की निगाहों में गिर जायेंगे। अर्थात वह जिस पर आप अमल पैरा हैं या जिसे समाज स्वीकार करता है वह यह कि आप की पत्नी को आपके अतिरिक्त कोई और न छुए।  यह हिन्दू धर्म के विरुद्ध और इस्लाम धर्म के पुर्णत: अनुकूल है।
 तीसरा उदाहरण
आप के घर बच्चा पैदा होता है। स्वामी जी कहते हैं कि उसकी माँ छः दिन के उपरान्त उसे अपना दूध न पिलाये(सत्यार्थ प्रकाश 5-68) जबकि मार्डन मैडिकल शोध कहता है कि दो वर्ष तक माँ का दूध ही उसके लिये उपयोगी भोजन है। ऐसी स्थिति में आप का पक्ष क्या होगा? यह भी याद रखये कि बच्चे को दो वर्ष तक माँ का दूध पिलाने की ताकीद कुरआन में है (कुरआन 31:14 )
अभी तक हम ने आपके धर्म के तीन सिद्धांतों पर बात की। चलिये कुछ इस्लामिक सिद्धांतों की बात करलें जिस को आपने छोड़ दिया है मगर वह आप से छूट नहीं पायंेगे और उन्‍हें  आप चाह कर भी छोड़ नहीं सकते। आप अगर मुसलमान हैं और इस स्थिति में आप के पास एक विशेष मात्रा में  धन आ जाए तो आप को एक विशेष प्रकार का टैक्स देना होता है जिसे ज़कात कहते हैं। अब आपने इस्लाम धर्म को छोड़ दिया है परन्तु यह नियम अब भी आप का पीछा कर रहा है और आज भी अगर आप के पास उसी विशेष मात्रा में धन आ जाता है तो आपके लिये सरकार को आयकर देना अनिवार्य है। अदभुत संयोग देखिये कि धन की वह विशेष मात्रा जो इस्लाम धर्म ने इस्लामी टैक्स (ज़कात) लेने के लिये निर्धारित की थी, जो आज के समय में  आज के दौर की करीब नौ तोले सोना या उसकी क़ीमत बनती है। वही मात्रा आज तक आपके देश की सरकार भी फालो करती आ रही है। आप ज़रा यह एलान तो करें कि आपके पास साढ़े सात तोले सोना; जो आज के समय का करीब़ नौ तोले बनता है। उस की कीमत का धन है। फिर आप देखिये कि सरकार उसकी ज़कात अर्थात आयकर आप से वसूलती है या नहीं।
एक उदाहरण और देखिये न्याय सम्बन्धि इस्लामी कानून सब के लिये समानता का आदेश देता है, उस में जन्म और जाति की बुनियाद पर भेद नहीं किया जा सकता। महेन्द्रपाल जी ने उसे छोड़ दिया है और मनुस्मृति का यह कानून अपना लिया है कि ब्राह्मण के लिए अलग नियम होंगे और शुद्र के लिए अलग। एक शुद्र की गवाही शुद्र ही दे सकता है, ब्राह्मण के लिए अलग प्रकार की शपथ है और शुद्र के लिये अलग प्रकार की।
परन्तु हमारे देश की अदालतें  मनु की व्यवस्था को छोड़ इस्लामी व्यवस्था पर अमल करती हैं, महेन्द्रपाल को चाहिये कि वह कम से कम भारत सरकार के सामने यह परस्ताव रखें  कि उन्‍हों ने (महेन्द्रपाल ने) इस्लामी नियमों को छोड़ कर घर वापसी कर ली है अब सरकार को भी चाहिये कि वह भी घर वापसी करते हुये कुरआन के नियम को छोड़कर मनुस्मृति के नियमों का पालन करे।
इस प्रकार के कोई एक दो उदाहरण नहीं हैं सारी व्यवस्था ही इस्लामी हो गई है। 2006 में सरकार ने यह परस्ताव पारित किया था कि बाप की जायदाद में बेटे की भांति बेटी भी हिस्सेदार होगी, महेन्द्र जी को यह ऐलान करना चाहिये था कि हम इस कानून को नहीं मानें गे, क्योंकि यह इस्लामी कानून है जिसे हम छोड़ आये हैं और हिन्दू व्यवस्था में पुत्री पराया धन होती है उसके पूर्वज भी वह होते हैं जो उसके पति के पूर्वज हैं । अतः उसके मूल पूर्वजों की सम्पत्ति में उसका कोई हक़ नहीं होता।
यहां एक मशहूर हदीस का वर्णन करना उचित होगा। हजरत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया था कि क्यामत उस वक्त तक नहीं आएगी जब तक इस्लाम की आवाज पूरे विश्व के एक-एक मनुष्य के घर में न पहुँच जाए, इज़्ज़त वाला इज़्ज़त से मान लेगा और ज़िल्लत वाला ज़लील होकर मानेगा।
इस परिपेक्ष में हम कहना चाहेंगे कि हमने ऊपर जो इस्लामी सिद्धांत बयान किए हैं अर्थात समानता, सब के लिए शिक्षा, बाप की जायदाद में बेटी का हिस्सा, अपनी पसंद का धर्म स्वीकार करने की आज़ादी वगैरा-वगैरा। क्या ऐसा नहीं है कि अब वह समय आ गया है कि या तो महेंनद्रपाल जैसे लोग इन्हें इज़्ज़त से मान लें, जबकि वह उनके धर्म के खिलाफ है और अगर वह उन्हें इज़्ज़त से नहीं मानेंगे तो वक्त का आहनी पंजा उन्हें ज़लील करके अपनी बात मनवायेगा।
हमने जो हदीस बयान की है उसमें इस्लाम का कलिमा हर घर में दाखिल होने की बात है। अरबी का शब्द कलिमा एक उमूमी शब्द है उसका मूल अर्थ होता हैः ‘बात’। गालिबन इससे मुराद इस्लामी नियम व कानून हैं जो आज पूरी दुनिया में अपनी किसी न किसी सूरत में लागू हो चुके हैं, जबकि वे लगभग सभी हिंदू धर्म व्यवस्था के विपरीत हैं।  जहां तक हिंदू धर्म व्यवस्था की बात है वह तो इस समय कतई असम्भव है (विस्तार से जानने के लिए देखें लेखक की  पुस्तक ‘‘हिंदू राष्ट्र सम्भव या असम्भव? ब्लाग पर आनलाइन उपलब्ध)।

आज के मानव समाज ने इस्लाम की शिक्षा अर्थात इस्लामी कानून व व्यवस्था को (सिद्धांत) पूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया है। हां उसे अल्लाह और उसके रसूल के नाम से अवश्य ही बैर बाकी है। शायद इसी चीज के लिए कुरआन में एक ओर तो यह कहा गया है कि धर्म के मामले में कोई जोर जबरदस्ती नहीं की जा सकती जो चाहे स्वीकार कर ले ओर जो चाहे इन्कार कर दे(सूरह बक़र 256)। और दूसरी और महेंद्रपाल जैसे हठधर्मियों के दृष्टिगत उन जैसों को सम्बोधित करते हुए कहा गया है।
‘‘यह अल्लाह के दीन को छोडकर कहां भटक रहे हैं जबकि आसमान व ज़मीन में जो कुछ भी है उसने तो स्वेच्छा से इस्लाम स्वीकार कर लिया है। (आल ए इमरान 83)
  औरों से तो शिकायत क्या कि वह इस्लाम के बारे में जानते नहीं परन्तु महेन्द्र जी! आप तो कथित फारिगुत्तहसील आलिम थे आपको तो यक़ीनन मालूम होगा, और यह भी मालूम होगा कि इस्लामी सिद्धान्त के अनुसार दो हिस्से पुरुष के और एक हिस्सा स्त्री का होता है। देखें सुरह नम्बर 4:11  कुरआन, अर्थात 33“ लडकी का और  66“ लड़के का।
और आपको यह भी मालूम ही होगा कि महिला आरक्षण बिल में यही व्यवस्था रखी गयी है। जिसमें राज्य सभा में बहस होकर यह प्रस्ताव पास हुआ है कि महिला आरक्षण बिल में 33 प्रतिशत भाग महिला का होगा और 66 प्रतिशत पुरूषों का।

महेन्द्र जी! आप तो प्रख्यात पंडित हैं और दिल्ली में रहते हैं सरकार को बताइये कि यह इस्लामी व्यवस्था है। जिसे आप छोड़ आये हैं ।
कहने का मतलब यह है कि इस्लामी नियम कानून स्वभाविक हैं और स्वभाव का विरोध संभव नहीं परन्तु किसी ने विरोध की ही ठानी है तो वह स्वयं का ही नुकसान करेगा क्योंकि आसमान का थूका मुंह पर आता है ।
सच्चाई का विरोध इसलिए कि वह दूसरे का बताया हुआ है अतः आप उसके विपरीत जायेंगे  यह घटिया दर्जे की संकीर्णता है।
इस का एक छोटा सा उदाहरण और देखें -
इस्लामी कानून कहता है कि आप लघुशंका के बाद मूतेन्द्री को धोएं और पानी उपलब्ध न हो तो मिटटी के ढेले आदि से उसे शुष्क करलें ताकि वह वस्त्र एवं शरीर पर न लगे। परन्तु आप का नियम कहता है कि बचे-कुचे पेशाब को कपडे़ और शरीर पर ही लगने के लिये छोड़ दें।  परन्तु आप हैं कि लघुशंका के बाद हाथ फिर भी अवश्य धोते हैं। क्यों? अब आप इस्तनजा करें तो मुस्लमान कहलायें और न करें तो शरीर गंदा हो, आप तो खतना से भी न बच सके होंगे कि महर्षि स्वामी जी की सोच के अनुसार मूतेन्द्री की ऊपरी खाल बचे-कुचे पैशाब को सोख लेने के लिये है ताकि पेशाब की बूदें कपड़े और शरीर पर न लगें। खतना पर एक बात और याद आयी। वह यह कि मुसलमानी (खतना) भी आप के साथ ऐसी ही लगी रह गयी जैसे स्वभाव के नियम जिसे आप चाह कर भी नहीं छोड़ सकते और बचपन में अपनी मूतेन्द्री की कटी खाल को जब आप मुसलमान रहते , श्री0 मुजफ्फर अली के घर में पैदा हुये थे (अगर अपने इस दावे में सच्चे हैं) आप वापस नहीं ला सकते ।
दरअसल आपकी मिसाल ‘‘आसमान से गिरा खजूर में अटका’’ जैसी है। यदि आपने घर वापसी करते हुये आर्य समाज को अपनाया है, आर्य समाज सनातन कहाँ है? उसको आरम्भ हुये तो अभी दो सौ वर्ष भी नहीं हुये। जब हिन्दू ही बनना था तो वह हिन्दू धर्म अपनाते जो अनादि से है और शास्वत और सनातन है।
खैर यह तो आपका पर्सनल मामला है जो चाहें  स्वीकार करें  और जो चाहे त्याग दें । परन्तु इस बात का भी ध्यान रखिये कि अपकी भाषा और लेखादि में भी गुरु का असर झलकता है मुसलमानों का खुदा ऐसा है मुसलमानों का खुदा वैसा है , यह अच्छी भाषा शैली नहीं है।
यह आप सभी का तर्ज-ए-तहरीर है - ईश्वर-ईश्वर है, उसे ईश्वर कहिये, प्रभु कहिये या गॉड कहिये या खुदा कहिये, आप ऐसा कह सकते है कि खुदा, ईश्वर, प्रभु ऐसा नहीं कर सकता, वैसा नहीं कर सकता परन्तु -
बात करने का सलीका नहीं नादानों  को
बात असल में यह है कि ‘छोटा मुंह बड़ी बात’  महेनद्रपाल जी की आदत है। उन्होंने आज कल ज़ाकिर नायक को चेलेंज करते हुये एक ऐलान नामा इण्टरनेट पर डाला हुआ है कि ज़ाकिर नायक उनसे शास्त्रार्थ करें, अगर जाक़िर नायक उन्हें हरा देंगे  तो वह मंच पर ही इस्लाम स्वीकार कर लेंगे। क्या जाक़िर नायक इस हद तक निचले स्तर पर उतर आए कि उस व्यक्ति से शास्त्रार्थ करने आ जायें जो पांच लाइनों में दस इमले की गलतियाँ करे, मुझे तो महेन्द्रपाल का यह ऐलान देखकर ‘धर्ती पकड़’ की याद आ जाती है, खुदा मालूम बेचारा इस दुनिया में  है या आँ जहानी हो गया। हमेशा राजीव गाँधी या इन्दिरा गाँधी जैसों के मुकाबले स्वतन्त्र उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा करता था। इस प्रजा तांत्रिक दौर में किसे रोका जा सकता है। सब स्वतंत्र हैं, चाहे धर्तीपकड़ राजीव गाँधी के मुकाबले चुनाव लडे़ या महेन्द्रपाल जाक़िर नायक को चुनौती दें क्या मजाल जो राजीव गाँधी या ज़ाकिर नायक चूँ भी कर सकें।
महेंद्रपाल जी की एक किताब ‘‘वेद और कुरआन की समीक्षा’’ के नाम से है पूरी किताब में जो फहवात बकी गयी हैं उससे उनकी ज़ेहनियत का पता चलता है। किताब इस लायक नहीं है कि पूरी किताब की समीक्षा कर मैं अपने लेख को बोझल करूं केवल एक आध उदाहरण से ही उनकी समीक्षा के स्तर का अन्दाज़ा हो जाएगा। उनकी किताब के पृष्ठ 7 व 8 का भाग देखें, महेंद्रपाल जी ने कुछ इबारतें लिखी हैं। वह यह ज़ाहिर करना चाहते हैं कि कुरआन में उस जैसी सूरा (अध्याय) बनाने का जो चैलेंज किया गया है महेंद्रपाल जी ने उसे स्वीकार कर लिया है। महेंद्रपाल जी के  हाल पर हंसी आती है उन्होंने कुरआन ही के शब्दों की उलटफेर से कुछ पंक्तियां घड़ी हैं, इमले की बलंडर त्रुटियों पर यहां भी आपको हंसी आएगी, पहली पंक्ति देखें

(पी.डी.एफ फाइल पृष्‍ठ 37 पर चित्र देखें)

 शब्द हिया, वह के अर्थ में है यह शब्द सर्वनाम है ,अरबी भाषा की प्रारंभिक कक्षाओं में अरबी के सर्वनाम रटा कर याद कराए जाते हैं। खास बात बताने की यह है कि ‘हिया’ सर्वनाम छोटी हा से लिखा जाता है जबकि महेंद्रजी ने उसे बडी हा से लिखा है। अगर कोई पढ़ा लिखा व्यक्ति जो अपने को गुरूकुल से एम. ए. या शास्त्री की डिग्री पास बताए और स्त्री को इसतरी या पुरूष को पुरुश लिखे उसके बारे में आपका क्या खयाल है? हां कक्षा 2 के छात्र से ऐसी त्रुटि की उम्मीद की जा सकती है।
  निम्न लिखित पंक्तियो में लगभग सभी शब्द कुरआन के हैं बस महेंद्रपाल जी ने बीच में ओउम शब्द अरबी भाषा में लिखकर अपनी योग्यता का प्रमाण देने का नाकाम प्रयास किया है।

(पी.डी.एफ फाइल पृष्‍ठ 38 पर चित्र देखें)
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प्रश्न यह है कि ऐसे व्यक्ति को क्या जवाब दिया जाए और क्या ऐसे व्यक्ति की बातों को संजीदगी से लिया जाए जो स्वयं कुरआन के शब्दों से लाइनें घड़कर उन्हें कुरआन जैसी आयतें बतलाए। फिर भी यह महाशय हैं कि ज़ाकिर नायक जैसी विश्व प्रसिद्ध हस्ती को चैलेंज करते हैं।
   क्या ऐसे व्यक्ति को इस लायक समझा जाए कि उसके शास्त्रार्थ के चैलेंज को महत्व देते हुए उसे स्वीकार किया जाए। यह निर्णय पाठकों को करना है।
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श्रीमान महेंद्रपाल जी के द्वारा इन्टरनेट पर एक वीडियो डाली गयी है जिसका शीर्षक है महेंन्द्रपाल ने डाक्टर ज़ाकिर नायक के उस्ताद अब्दुल्लाह तारिक को हराया।
पहली बात तो यह है कि उक्त विडियो जिस प्रोग्राम की है वह कोई शास्त्रार्थ का प्रोगराम नहीं था अपितु आपसी भाईचारे पर आधारित प्रोग्राम था और अगर महेंद्रपाल जी उसे शास्त्रार्थ ही का प्रोग्राम मानते हैं तो फिर बताएं उसमें जज किसे नियुक्त किया गया था, उसमें अधिक संख्या महेन्द्रपाल जी के अनुयाईयों की थी उन्होंने ही प्रोग्राम का आयोजन किया था, और अब्दुल्लाह तारिक को बतौर अतिथि बुलाया गया था।
अब्दुल्लाह तारिक रियासत रामपुर के रहने वाले मशहूर इस्लामी स्कालर हैं उनके प्रोग्राम पीस टीवी से प्रसारित  होते रहते हैं। परन्तु जाक़िर नायक से उनका कोई गुरू-शिषय का संबंध नहीं है बल्कि उनकी जाक़िर नायक से एक दो मुलाकातों के अलावा अन्य कोई राबता नहीं है। ऐसे में उनको ज़ाकिर नायक का उस्ताद लिखना केवल अज्ञानता है।
जहाँ तक उनको हराने की बात है। नेट पर मौजूद विडियो में ऐसी कोई बात नहीं दिखती। महेंद्रपाल और अब्दुल्लाह तारिक की बातचीत की इस विडियो को देखकर लगता है कि महेंद्रपाल सच्चाई को जानने समझने और सही बात को मानने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं है बल्कि आक्रमक अंदाज में बेवजह चीख रहे हैं। जबकि अब्दुल्लाह तारिक सभ्यता और शाइस्तगी से बात समझाने का प्रयास कर रहे हैं।
इस विडियो में महेंद्रपाल ने अपनी बात का आरंभ जिस नुक्ते से किया है उसका खुलासा यह है कि उनके पास जो कुछ है वह धर्म है और अन्य लोग (मुसलमान आदि) जिसे मानते हैं वह मज़हब है। यह वह नुक्ता है जिसे आजकल हिंदू मिथ्यालोजी के बड़े बड़े फलासफर पेश कर रहे हैं इनका मानना है कि धर्म बड़ी चीज़ है क्योंकि वह जीवन जीने की एक सम्पूर्ण पद्धति है और मजहब कोई छोटी चीज होती है क्योंकी वह पूजा पद्धति मात्र है। यानि
‘‘अंधे को अंधेरे में बहुत दूर की सूझी’’
यह बात केवल वह व्यक्ति कह सकता है जो मुसलमानों के बारे में सिर्फ इतना जानता हो कि मुसलमान या इस्लाम बस इस चीज का नाम है कि मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ आयें और रमज़ान का महीना आया तो रोज़े रख लिए। और मौका हुआ तो हज कर आए। महेंद्रपाल जी का इस बात पर दूसरों के सुर में सुर मिलाना केवल उनके इस दावे को संदिग्ध करता है कि वह पहले महबूब अली थे क्योंकि जानकारों को यह मालूम है कि दुनिया के तमाम धर्मों में केवल इस्लाम ही एक एसा धर्म है जो नाखून काटने और  जूता पहनने से लेकर हुकूमत करने तक के मामलों में एक-एक बात पर रहनुमायी पेश करता है और आज उसके पेशकरदा नियमों को सम्पूर्ण दुनिया मानने को मजबूर है। वर्तमान में कई देशों में इस्लामी सिद्धांत पर आधारित हुकूमतें चल रही हैं। ताजीरात -ए- इस्लामी पर बड़ी बड़ी युनिवर्सिटियों में शोद्ध किया जाता है, इस्लामिक ला के चार बुनियादी उसूल जिंदगी के हर पहलू का अहाता करते हैं।
यहां पर उस रिवायत का वर्णन उचित होगा, जिसका तअल्लुक हजरत मआज़ बिन जबल से है।
उनको अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहुअलैहि वसल्लम ने यमन का गवर्नर बनाकर भेजा था, जब वह प्रस्थान के लिए घोड़े पर सवार हो गए तो अल्लाह के रसूल कुछ दूर उनके साथ-साथ पैदल चले, और चलते-चलते उन्होंने मआज से पूछा कि तुम्हारे पास मुकदमात आएंगे तो किस प्रकार फैसला करोगे। मआज़ ने उत्तर दिया कि अल्लाह की किताब से। आपने कहा कि अगर अल्लाह की किताब में वह हुक्म न मिला तो फिर?
मआज़ ने उत्तर दिया सुन्नत-ए-रसूल और हदीसों से, आपने कहा कि अगर वहां भी न मिले तो?
मआज ने जवाब दिया कि इन दोनों की रौश्नी में क्यास करूंगा। आपने यह सुनकर खुशी का इज़हार किया और उनके सीने को थपथपा कर उनको शाबाशी दी और यमन के लिए रवाना कर दिया।
इसके अतिरिक्त इतिहासकार जानते हैं कि हुकूमतों के लिए सबसे पहला लिखित संविधान जिस पर अमल संभव है वह कुरआन व हदीस की शकल में इस्लाम ने पेश किया था जिनकी बुनियाद पर इस्लामिक ला, फिक़ा की शकल में वजूद में आया और बाद के दौर में उसके 4 स्कूल्स आफ थॉटस वजूद में आए। अर्थात हनफी, शाफई, मालकी और हंबली और अगर इसमें फिक़ा जाफरिया को शामिल कर लिया जाए तो यह पांच हो जाते हैं। आजकल अधिक इस्लामी मुलकों में फिका हनफी के मुताबिक ही अदालतें कायम हैं जबकि सऊदी अरब में हंबली और ईरान में फिक़ा जाफरिया के मुताबिक हुकूमत चलायी जाती हैं। इस्लाम की खूबी यह कि उसमें इस्लाम के ना मानने वालों के लिए भी ला मौजूद है। हैरतअंगेज़ बात यह है कि 1400 साल पहले पेशकरदा इस्लामी कानून आज के पसंदीदा तर्जे हुकूमत सेकुलरिज्म के लगभग शत प्रतिशत अनुकूल है। मसलन इस्लामी हुकूमत में गैर मुस्लिम के भी वही अधिकार हैं जो एक मुसलमान के हैं। लिहाज़ा किसी गैर मुस्लिम को कोई मुसलमान नाहक कतल कर दे तो जान के बदले जान के नियम के अनुसार ही कातिल से किसास लिया जाएगा।
इन सब बातों को जानते हुए भी अगर कोई यह कहे कि इस्लाम पूजा पद्धति मात्र है तो उसके बारे में केवल यही कहा जा सकता है कि वह इस्लामी शिक्षा से अत्यंत अनभिज्ञ है और अगर ऐसा कहने वाला यह दावा भी करे वह हाफिज व आलिम भी था तो मेरा खयाल है कि उसे किसी साईकलोजिस्ट से अपना इलाज कराना चाहिए।
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हमने पंडित जी की एक अन्य पुस्तक का वर्णन किया था पंडित जी महाराज अपनी उसी पुस्तक ‘‘वेद और कुरआन की समीक्षा’’ के पृष्ठ 10 पर लिखते हैं
‘‘लोग मेरे लेख को पढने में रूची रखते हैं कुछ आर्यसमाजियों में रवीवारीय सत्संग में मेरे लेख का पाठ होता रहा है जिसमें अनेक उल्लेखनीय लेख मेरे विभिन्न पत्रिकाओं में छपे हैं, मैं सिद्धांत पर ही लिखता हूं।’’
    और करमफरमा पंडित महाशय का सिद्धांत यह है कि स्वयं से पंक्तियाँ घड़ो और लिख डालो कि यह कुरआन में है। ऐसे सिद्धांतवादी पर अल्लाह रहम करे।
यह महाशय अपनी पुस्तक के पृष्ठ 10 पर ही आगे लिखते हैंः
‘‘आज भी तथाकथित आर्यसमाज के अधिकारी जो कहलाते हैं उन्हें भी वैदिक सिद्धांत का क ख भी नहीं मालूम’’
अर्थात वैदिक सिद्धांत तो वह है जो महेन्द्रपाल पेश कर रहे हैं कि झूठी पंक्तियां घडो और उसे कुरआन की आयत बताकर उन पर प्रश्न करके भोले-भाले और सीधे- साधे लोगों को बहकाओ, हमने किताब के आरंभ में महेंद्रपाल जी के पत्रक के पहले पृष्ठ पर उनके द्वारा लिखित पंक्ति

(पी.डी.एफ फाइल पृष्‍ठ 44 पर चित्र देखें)
अंकित की थी चलो इसी पर फैसला हो जाए। महेंद्रपाल जी ने इसे कुरआन की आयत लिखा है। अगर वह उसको कुरआन के 30 पारों में कहीं दिखादें तो वह सच्चे ठहरे। वरना आर्य समाज को बताना चाहिए कि क्या यही वैदिक सिद्धांत है? और अगर ऐसा नहीं है तो फिर बहतर होगा कि वह महेन्द्रपाल की ज़बान को स्वयं लगाम दें।
  डा. मुहम्मद असलम कासमी



वेदों के ज्ञाता महर्षि दयानंद सरस्वती ने
‘सत्यार्थ प्रकाश’ में लिखा हैः-
1. प्रसूता छह दिन के पश्चात् बच्चे को दूध न पिलावे। (2-3) (4-68)
2.  24 वर्ष की स्त्री और 48 वर्ष के पुरुष का विवाह उत्तम है अर्थात् स्वामी जी के मतानुसार लड़के की उम्र लड़की से दूना या ढाई गुना होनी चाहिए। (4-20) (14-143) (3-31)
3.  गर्भ स्थिति का निश्चय हो जाने पर एक वर्ष तक स्त्री-पुरुष का समागम नहीं होना चाहिए। (2-2) (4-65)
4.  जब पति अथवा स्त्री संतान उत्पन्न करने में असमर्थ हों तो वह पुरुष अथवा स्त्री नियोग द्वारा संतान उत्पन्न कर सकते हैं। (4-122 से 149)
5.  यज्ञ और हवन करने से वातावरण शुद्ध होता है। (4-93)
6.  मांस खाना जघन्य अपराध है। मांसाहारियों के हाथ का खाने में आर्यों  को भी यह पाप लगता है। पशुओं को मारने वालों को सब मनुष्यों की हत्या करने वाले जानिएगा। (10-11 से 25)
7.  मुर्दों को गाड़ना बुरा है क्योंकि वह सड़कर वायु को दुर्गन्धमय कर रोग फैला देते हैं। (13-41, 42)
8.  लघुशंका के पश्चात् कुछ मुत्रांश कपड़ों में न लगे, इसलिए ख़तना कराना बुरा है। (13-31)
9.  दण्ड का विधान ज्ञान और प्रतिष्ठा के आधार पर होना चाहिए। (6-27)
10. ईश्वर के न्याय में क्षणमात्र भी विलम्ब नहीं होता। (14-105)
11. ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा नहीं करता। (7-52)
12. सूर्य केवल अपनी परिधि (Axis)  पर घूमता है किसी लोक के चारों ओर ; (Orbit) नहीं घूमता। (8-71)
13. सूर्य, चन्द्र, तारे आदि पर भी मनुष्य आदि सृष्टि हैं। (8-73)
14. सिर के बाल रखने से उष्णता अधिक होती है और उससे बुद्धि कम हो  जाती है। (10-2)
जरा सोचिए ! क्या उक्त तथ्य वास्तव में बौद्धिक, वैज्ञानिक और व्यावहारिक हैं ?


वेदों के ज्ञाता स्वामी दयानंद सरस्वती ने
वेदों के निर्देशन में लिखा है:-

1.  ईश्वर जगत् का निमित्त (Efficient Cause)   कारण है, उपादन कारण    (Material Cause)  नहीं है। (7-45) (8-3)
वैदिक धर्म एकेश्वरवाद का प्रतिपादन करता है और उसे सृष्टिकर्ता भी मानता है, मगर स्वामी दयानंद ने कहा कि उपादन कारण के बिना जगत् की उत्पत्ति संभव नहीं है। ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों अनादि हैं। ईश्वर मात्र शिल्पी है, उसने सृष्टि का विकास किया है, सृजन नहीं किया। अर्थात् जिस प्रकार कुम्भकार ने घड़ा बनाया, मिट्टी नहीं बनाई, ठीक इसी प्रकार परमेश्वर ने जगत् बनाया। प्रकृति और जीव दोनों संसाधन ;(Material) पहले से मौजूद थे।
2.  सम्पूर्ण मानवता एक माँ-बाप की संतान नहीं है। (8-51)
3.  वेद आवागमनीय पुनर्जन्म की अवधारणा का प्रतिपादन करते हैं। (9-75)
4.  मनुष्य और पशु आदि में जीव (Soul) एक सा है। (9-74)
5.  स्वर्ग, नरक का कोई अलग लोक नहीं है। (9-79)

विचार करें कि क्या वास्तव में वेद उक्त तथ्यों को प्रतिपादित करते हैं? 

Friday, May 10, 2013

वन्दे मातरम: नफ़रत की आग बुझाइए

वन्दे ईश्वरम vande ishwaram अर्थात वंदना करो उसकी, जिसने सारी कायनात (सृष्टि) बनायी, 
वन्दे मातरम् एक ऐसा इश्यू है जो सोचे समझे तरीके़ से रह रह कर उठाया जाता है। कान्ति मासिक जुलाई 1999 में प्रकाशित यह लेख आज भी प्रासंगिक है।

अली मियां द्वारा‘ वन्देमातरम्’ के विरोध के कारण भारतीय मुसलमानों को देशद्रोही के रूप में चित्रित किया जा रहा था। जबकि देशद्रोही तो ‘आनन्द मठ’ के लेखक को कहा जाना चाहिए जिसमें अंग्रेज़ों के आगमन पर हर्षित होकर कहा गया कि ‘ अब अंग्रेज़ आ गये हैं, हमारी जान व माल की सुरक्षा होगी।’

जिसके कारण डा. लोहिया ने कहा था कि ‘आनन्द मठ’ उपन्यास हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन पर एक कलंक है।

यह कलंक उस बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा लगाया गया जिसने ‘हाजी मोहसिन फण्ड’ से आर्थिक सहायता पाकर बी. ए. की डिग्री प्राप्त की और वाकार्थ में निपुणता पाते ही मुस्लिम दुश्मनी के प्लॉट पर एक उपन्यास लिख डाला जिसमें नायक भवानन्द महेन्द्र को समझाते हुए कहता है कि जब तक मुसलमानों को निकाल न दिया जाए तब तक तेरा धर्म सुरक्षित नहीं।

ऐसी प्रेरणा पाकर सैकड़ों नवयुवक सन्यासी बन जाते हैं। जो मुसलमानों को मारते काटते हैं उनके घरों में आग लगाते हैं और उनका माल हिन्दुओं में बांट देते हैं। राष्ट्रीय एकता पर कुठाराघात करने वाले इसी उपन्यास का एक अंश है ‘वन्देमातरम्’। मुसलमानों द्वारा इस गीत के विरोध का एक कारण तो यही है और दूसरा यह है कि गीत के पहले और दूसरे पद्य में भारत भूमि के सुन्दर फूलों, मीठे फलों और हरे-भरे खेतों का मनोहर वर्णन करते-करते उसे पांचवे पद में दुर्गा और कमला बना दिया जाता है। जो स्पष्टतः एकेश्रवाद के विरूद्ध है।

जो लोग ‘वन्देमातरम्’ को जायज़ कह रहे हैं वे केवल गीत के शब्दों को संदर्भ प्रसंग से काटकर देख रहे हैं। वन्देमातरम्’ अर्थात् हे मां! मैं तेरी वन्दना (तारीफ़) करता हूं। काव्य में अलंकारिक रूप से भूमि को माता कहने की गुन्‍जाइश है और उसकी प्रशंसा और गुणगान करने की भी। परन्तु यही कर्म तब वर्जित हो जाता है। जब देश को देव का अर्थात् उपास्य का दर्जा दे दिया जाए। देशप्रेम आवश्यक है मगर अति हर चीज़ की बुरी है।

सृष्टि को सृष्टा के समान उपास्य मान लेना कोई नई बात नहीं। संसार में हर जगह और हर ज़माने में यह हुआ है। यह वह रोग है कि जिस क़ौम को लग जाए उसे वर्गों में बांटकर अंधविश्वास की बेड़ियों में जकड़ देता है। सृष्टा को छोड़कर सृष्टि पूजा में लगे अरबवासियों को इस पतन से निकालने के लिए जब पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब (सल्ल.) ने एकेश्वरवाद का उपदेश दिया तो उन पर विष्ठा फेंकी गयी, रास्ते में कांटे बिछाये गये और उन पर इतने पत्थर बरसाये गये कि जूते रक्त से भरकर उनके पैरों से चिपक गये और एक मौक़े पर उनके दो दांत खंडित हो गये। 23 वर्षो के अथक प्रयासों के परिणामस्वरूप अरबों ने एकेश्वरवाद को हृदयंगम कर लिया। तब से इस्लाम के जानकार इस्लाम की इस मूल चेतना को बचाये हुए हैं। आज भी मुसलमान जब पैग़म्बर साहब (सल्ल.) की क़ब्र पर जाते हैं तो अल्लाह से उनके लिए शांति व बरकत की दुआ करते हैं न उन्हें सजदा करते हैं और न उनसे मन्नत- मुराद मांगते हैं।

यदि कोई प्रेम में अति करने की कोशिश करता भी है तो वहां नियुक्त सिपाही उसे बलपूर्वक रोकते हैं। मुसलमान ईश्वरीय ज्ञान कुरआन का बेइन्तिहा आदर-सम्मान करते हैं, मगर सजदा उसके सामने भी नहीं करते। भारतीय उपमहाद्वीप में हिन्दुओं की देखादेखी मन्दिरों की भांति क़ब्रों को पक्का करके उन पर फूल-चादरें चढ़ाई जाने लगीं, और उनके सामने सजदे होने लगे, उनसे मन्नत-मुरादें मांगी जाने लगीं तो उनके विरूद्ध भी अनेक फ़तवे दिये गये। ‘बादशाहों को सर झुकाना हराम है’ यह फ़तवा देने पर और स्वयं न झुकाने पर शेख़ अहमद सरहिन्दी रह0 को जहांगीर ने क़ैद कर दिया था। बाद में इस प्रथा को औरंगज़ेब रह. ने समाप्त किया। इसी इस्लामी चेतना के कारण ‘जय हिन्द’ कहने और ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ मानने वाले मुसलमान किसी कवि के अतिश्योक्तिपूर्ण दर्शन के कारण अपने पालनहार के प्रति कृतघ्न नहीं हो सकते।

होना तो हिन्दुओं को भी नहीं चाहिए क्योंकि धर्म का मूल वेद है और वेद ऐसे कर्मों में रत व्यक्तियों और राष्ट्रों के पतन की खुली घोषणा करते हैं- ‘जो असम्भूति अर्थात् प्रकृति रूप जड़ पदार्थ (अग्नि, मिट्टी, वायु आदि) की उपासना करते हैं और जो सम्भूति अर्थात् इन प्रकृति पदार्थो के परिणामस्वरूप सृष्टि (पेड़, पौधे, मूर्ति आदि) में रमण करते हैं। वे उससे भी अधिक अंधकार में पड़ते हैं।
 (यजुर्वेद 40:9, अनुवाद पं. श्री राम शर्मा आचार्य)

आज पतन के कारण को देशप्रेम का पैमाना मुक़र्रर किया जा रहा है। टीपू सुल्तान अंग्रेज़ों से लड़ते हुए शहीद हो गये और रंगून में दयनीय अवस्था में प्राण त्यागने वाले 1857 की क्रान्ति के नायक बहादुर शाह ज़फर को अपनी आँखों से तीन पुत्रों की कटी गरदनें देखनी पड़ीं।

इतना बडा बलिदान देने वाले ‘वन्देमातरम्’ नाम की चीज़ से वाकिफ़ तक न थे। जबिक आज ‘वन्देमातरम्’ के गायन पर ज़ोर देने वाले ब्रिटिश काल में रोज़ शाखा लगाते रहे, मार्शल आट्र्स की प्रैक्टिस करते रहे, लेकिन आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया बल्कि स्वाधीनता आन्दोलन के कृशकाय नायक के प्राणान्त का कारण बने। आज उलेमा के सम्मिलित विरोध के कारण श्री आडवाणी को कहना पड़ा कि ‘वन्देमातरम्’ मुसलमानों पर जबरन नहीं थोपा जायेगा।’ मुख्यमंत्री श्री कल्याण सिंह ने भी कहा,’ वन्देमातरम्’ के गायन को अनिवार्य बनाने का कोई इरादा सरकार का नहीं है। परन्तु इतना कह देने मात्र से मुसलमानों की समस्या सुलझ नहीं जाती, क्योंकि वह मानसिकता अब किसी न किसी दूसरे रूप में प्रकट होगी। इसका एकमात्र समाधान यही है कि भारत में आये पैग़म्बरों की शिक्षा को भुला बैठी जनता को आखि़री पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के माध्यम से मिले कुरआन की शिक्षाओं से परिचित कराया जाए जो कि सभी पैग़म्बरों की मूल शिक्षा है। बाईबिल के अलावा स्वयं वेदों में कुरआनी मान्यताओं और पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब (सल्ल.) की पुष्टि में अनेकों जगह वर्णन है। अरब में पृथ्वी का केन्द्र ‘मक्का’ में आये हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) पर लगभग एक लाख चैबीस हज़ार पैग़म्बरों की श्रृंखला के समापन के साथ धर्म को पूर्णता प्राप्त हुई। विभिन्न जातियों ,भाषाओं और देशकाल में आये सभी पैग़म्बरों की मूल शिक्षा और धर्म का सार यह था कि ऐ लोगो! तुम्हारा खु़दा एक है तुम उसी की बन्दगी करो और तुम्हारा ख़ून एक है। तुम सब एक परिवार हो।

आग और ख़ून का जो तूफ़ान आज खड़ा किया जा रहा है नफ़रत के जिन विचारों से आज समाज को हिप्नॉटाइज़ किया जा रहा है उसकी निन्दा करना वेदज्ञों पर भी वाजिब है वर्ना हमारा यह प्यारा भारत देश कभी पतन के गर्त से उबर न सकेगा

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वन्दे मातरम्’ की हकीक़त ‘आनन्दमठ ’ में मुस्लिम समुदाय का चित्रण

‘आनन्दमठ’ बंकिमचन्द्र चट्टोपध्याय का सर्वाधिक आलोचित विवादस्पद उपन्यास है। यह उपन्यास सन् 1882 ई0 में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ था। इससे पहले ‘बंगदर्शन’ नामक पत्रिका में यह धारावाहिक रूप में प्रकाशित होता रहा था। ‘वन्देमातरम् गीत इसी के अन्तर्गत है। इंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका में आनन्दमठ की रचना के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए रमेशचन्द्र ने लिखा है

&ß The General Moral of the ' Ananda Math' then, is that British Rule and British Education are to be accepted as the only alternative to Mussalman oppression.ß
अर्थात् अंग्रेजी शासन और शिक्षा को स्वीकार करना ही मुस्लिम शोषण तथा दमन से बचने का एकमात्र विकल्प है।


यहां, यह बात उल्लेखनीय है कि बंकिमचन्द्र के जीवनकाल में ही ‘आनन्दमठ’ के पांच संस्करण छप गए थे और उपन्यासकार ने इसके प्रत्येक संस्करण में अनेकानेक संशोधन किए थे। इसी आधार पर नामवर सिंह जैसे अनेक विद्वान कहते हैं कि आनन्दमठ की रचना पहले अंग्रेजी सत्ता के विरूद्ध की गयी थी, परन्तु सरकारी नौकर होने के कारण अंग्रेज ‘आक़ाओं’ के दबाव तथा प्रलोभन के कारण इसे संशोधित करके मुस्लिम-विरोधी बना दिया गया।
अंग्रेजों ने भारत पर राज करने के लिए ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाई थी। परन्तु ‘वन्देमातरम्’ और ‘सरस्वती वन्दना’ को स्कूलों आदि में अनिवार्य घोषित करने की मांग करनेवालों ने ‘डराओ और राज करो की नीति अपना ली है। ‘वन्देमातरम् के समर्थक कहते है’-
हिन्दुस्तान में रहना होगा तो वन्देमातरम् कहना है कि वन्देमातम् का विरोध करना भारत का विरोध करना है और भारत का विरोध राष्ट्रद्रोह है। राष्ट्रद्रोह की इजाज़त किसी को भी नहीं दी जा सकती चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान।
इसके विपरीत इसके विरोधियों का कहना है कि वन्देमातरम् या सरस्वती वन्दना कहना गाना और इन्हें अनिवार्य घोषित के करना मुसलमानों के विश्वास के खि़लाफ़ है। मुसलमान कहता है-
‘मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के सिवा कोई इलाह (पूज्य प्रभु) नहीं। मैं गवाही देता हूं कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) अल्लाह के रसूल (ईशदूत) हैं। ‘अल-हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन’ यानी सारी प्रशंसा अल्लाह ही के लिए है, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का, समस्त जड़- चेतन पदार्थो का पालनकर्ता है। इसलिए मुसलमान अल्लाह के अतिरिक्त किसी की भी पूजा-अर्चना नहीं कर सकता, चाहे वह स्वयं ईशदूत ही क्यों न हों। हां, वह प्रत्येक सगे-संबंधी या किसी को भी उसका उचित मान-सम्मान अवश्य देता है।

ईसाई या उन संगठनों के माननेवाले भी वन्देमातरम् और सरस्वती वन्दना को अनिवार्य किए जाने के सख्त ख़िलाफ़ है, जो एक ईश्वर को मानते हैं और उसके सिवा किसी को पूजनीय नहीं समझते।
इस प्रकार वन्देमातरम् या सरस्वती वन्दना को लेकर लोग प्रायः दो धड़ों में बंटे हुए है। एक धड़ा इसका समर्थन करता है, तो दूसरा विरोध। दोनों के अपने-अपने तर्क हैं। परन्तु दोनों में से किसी भी धड़े ने ‘आनन्दमठ’ की कथावस्तु को मूल रूप में जनता के समक्ष रखने का कष्ट नहीं किया है ताकि जनता सच्चाई से अवगत हो जाए। इसकी व्याख्या प्रायः संदर्भ से हटकर की जाती रही है।

जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। आनन्दमठ की रचना अंग्रेजों के शासनकाल में हुई परन्तु इसकी कथावस्तु मुस्लिम शासनकाल की है। सन् 1175 बंगाल में बहुत भंयकर अकाल पड़ा था। उसी अकाल की पृष्ठभूमि में बंगाल की सन्यासी-विद्रोह की घटना को लेकर इस उपन्यास की रचना की गई। उपन्यास में हैं-

1174 में फ़सल अच्छी नहीं हुई। अतः 1175 में अकाल आ पड़ा- भारतवासियों पर संकट आया.... पहले एक संध्या का उपवास हुआ, फिर एक समय भी आधा पेट भोजन न मिलने लगा। इसके बाद दो-दो संध्या उपवास होने लगा। चैत में जो कुछ फसल हुई, वह किसी के एक ग्रास भर को भी न हुई। लेकिन मालगुज़ारी के अफ़सर मुहम्मद रज़ा खंा ने मन में सोचा कि यही समय है, मेरे तपने का। एकदम उसने दस प्रतिशत मालगुज़ारी बढ़ा दी। बंगाल में घर-घर कोहराम मच गया। (बंकिम समग्र, सम्पादक निहालचन्द्र शर्मा, पृ0 735, तृतीय संस्करण 1989, हिन्दी प्रचारक संस्थान, वाराणसी)

आनन्दमठ एक अत्यन्त सघन तथा भयंकर वन में बहुत विस्तृत भूमि पर ठोस पत्थरों से निर्मित एक बहुत बड़ा मठ है। यह पहले बौद्ध विहार था, परन्तु इस पर अब हिन्दू साधु-संन्यासी, जिन्हें उपन्यास में संतान कहा गया है, का क़ब्ज़ा हो गया है। उपन्यास में संतान ऐसे साधु- संन्यासियों को कहा गया है, जिन्होने इस संकल्प के साथ अपना घरबार त्यागा है कि जब तक भारतभूमि को मुस्लिम-शासन से मुक्त नहीं करवाएंगे, चैन से नहीं बैठेंगे और न ही घर-गृहस्थी बसाएंगे। संतान वैष्णव हैं और हिंसा का समर्थन करते हैं।

महेन्द्र ने विस्मय से पूछा-तुम लोग कौन हो?
भवानन्द ने उत्तर दिया-हम लोग संतान हैं।
महेन्द्र-संतान क्या है? किसकी संतान हैं?
भवानन्द-माता की संतान!
महेन्द्र-ठीक! तो क्या संतान लोग चोरी-डकैती करके मां की पूजा करते हैं। यह कैसी मातृभक्ति? (पृ0 745-46)
संतान दो तरह के हैं- दीक्षित और अदीक्षित। जो अदीक्षित हैं, वे या तो संसारी हैं अथवा भिखारी। वे लोग केवल युद्ध के समय आकर उपस्थित हो जाते हैं, लूट का हिस्सा या पुरस्कार पाकर चले जाते हैं। जो दीक्षित हैं, सर्वस्वत्यागी हैं। यही लोग सम्प्रदाय के कत्र्ता हैं। (पृ0771)
बंगला सन् 1173 में बंगाल प्रदेश अंग्रेजों के शासनाधीन नहीं हुआ था। अंग्रेज़ उस समय बंगाल के दीवान ही थे। वे खज़ाने का रूपया वसूलते थे, लेकिन तब बंगालियों की रक्षा का भार उन्होंने अपने ऊपर लिया न था। उस समय लगान की वसूली का भार अंग्रेजों पर था और कुल सम्पत्ति की रक्षा का भार पापिष्ट, नराधम, विश्वासघातक, मनुष्य-कुलकलंक मीर जाफ़र पर था। (पृ0 741)
हर देश का राजा अपनी प्रजा की दशा का, भरण-पोषण का ख़याल रखता है। हमारे देश का मुसलमान राजा क्या हमारी रक्षा कर रहा है?
धर्म गया, जाति गई, मान गया-अब तो प्राणों पर बाज़ी आ गई है। इन नशेबाज़ दाढ़ीवालों को बिना भगाए क्या हिन्दू-हिन्दू रह जाएंगें?
महेन्द्र-कैसे भगाओगे?
भवानन्द-मारकर! (पृ॰ 746)

भवानन्द मुसलमानों को कायर और अंग्रेजों को बहादुर बताते हुए कहता है-
“एक अंग्रेज़ प्राण जाने पर भी भागता नहीं, लेकिन एक मुसलमान पसीना होते ही भागता है, शरबत की खोज करता है। इससे मान लो, अंग्रेज जो करना चाहते हैं करके छोड़ते हैं, उनमें लगन होती है मुसलमान आरामतलब होते हैं, रूपए के लिए प्राण देते हैं- उस पर तनख्वाह भी तो नहीं पाते। सबसे अंतिम बात यह है कि अंग्रेज़ साहसी होते हैं। एक गोला एक ही जगह जाकर गिरेगा, दस जगह नहीं। अतः एक गोले को देखकर दस आदमियों के भागने की क्या ज़रूरत हैं? एक गोले के छूटते ही मुसलमान फ़ौज की फौ़ज भागती है। लेकिन सैकड़ों गोले देखकर भी एक अंग्रेज़ तो नहीं भागता (पृ0 747) भवानन्द ने गाना शुरू किया-
वन्दे मातरम्! सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम् शस्यश्यामलां मातरम् ।
महेन्द्र गाना सुनकर कुछ आश्चर्य में आए। वे कुछ समझ न सके-
सुजलां, सुफलां, मलयजशीतलां, शस्यश्यामलाम् माता कौन है?
उन्होंने पूछा यह माता कौन है?
कोई उत्तर न देकर भवानन्द गाते रहे- वन्दे मातरम् !
महेन्द्र ने देखा, दस्यु गाते-गाते रोने लगा। महेन्द्र बोला- यह तो देश है, यह तो माँ नहीं है। भवानन्द ने कहा- हम लोग किसी दूसरी माँ को नहीं मानते। (पृ0 744-45)
महेन्द्र को लेकर ब्रह्मचारी स्वामी सत्यानन्द देवालय के अन्दर घुसे। वहां महेन्द्र ने देखा कि एक विराट चतुर्भुज मूर्ति है, शंख-चक्र गदा- पद्मधारी, कौस्तुभमणि हृदय पर धारण किये सामने घूमते सुदर्शनचक्र लिए स्थापित है।मधुकैटभ जैसी दो विशाल छिन्नमस्तक मूर्तियां खून से लथपथ-सी चित्रित सामने पड़ी हैं। बाएं लक्ष्मी आलुलायित-कुंतला शतदल-मालामंडिता,भयग्रस्त की तरह खड़ी है। दाहिने सरस्वती पुस्तक-वीणा और मूर्तिमयी राग-रागिनी आदि से घिरी हुई स्तवन कर रही है। विष्णु की गोद में एक मोहिनी मूर्ति-लक्ष्मी और सरस्वती से अधिक सुन्दरी, उनसे भी अधिक ऐश्वर्यमयी अंकित है। गंदर्भ,किन्नर, यक्ष राक्षसगण उनकी पूजा कर रहे हैं। ब्रह्मचारी ने अतीव गंभीर, अतीव मधुर स्वर में महेन्द्र से पूछा-
सब कुछ देख रहे हो?
महेन्द्र ने उत्तर दिया- देख रहा हूँ।
ब्रह्मचारी-विष्णु की गोद में कौन है, देखते हो ?
महेन्द्र - यह माँ कौन है?
ब्रह्मचारी ने उत्तर दिया- जिसकी हम संतान हैं।
महेन्द्र - कौन है वह?
ब्रह्मचारी- समय पर पहचान जाओगे। बोलो , वन्देमातरम्! अब चलो, आगे चलो। इसके बाद महेन्द्र ने दुर्गा, काली, लक्ष्मी, सरस्वती, गणेशादि की मूर्तियों को प्रणाम किया और वन्देमातरम् कहा (पृ0 748-49)

उपन्यासकार अंग्रज़ों के शासनकाल को क़ानून का युग मानते हैं और मुस्लिम शासनकाल को न्यायहीनता का युग। “ आज का़नूनों का युग है- उस समय अनियम के दिन थे।” (पृ0 756)

महेन्द्र के साथ सत्यानन्द स्वामी गिरफ़्तार होकर नगर के जेल में बन्द थे उन्हें छुड़ाने के लिए हज़ारों हज़ार संतानों को संबोधित करते हुए स्वामी ज्ञानान्द कहते हैं- “ अनेक दिनों से हम विचार करते आते हैं कि इस नवाब का महल तोड़कर यवनपुरी का नाश कर नदी के जल में डुबा देंगे- इन सुअरों के दाँत तोड़कर, इन्हें आग में जलाकर माता वसुमती का उद्धार करेंगे। जिन्‍हें हम विष्णु का अवतार मानते हैं, वही आज मलेच्छ मुसलमानों के कारागार में बंदी हैं। चलो हम लोग उस यवनपुरी का निर्दलन कर उसे धूरिण में मिला दें। उस शूकर- निवास को अग्नि से शुद्ध कर नदी-जल में धो दें, उसका ज़र्रा-ज़र्रा उड़ा दें। (पृ0 764)

महेन्द्र और सत्यानन्द को मुक्त कर सन्तानों ने जहां-जहां मुसलमानों का घर पाया आग लगा दी।(पृ0 764)
जीवानन्द ने सत्यानन्द से पूछा- महाराज!
ईश्वर हम लोगों पर इतने अप्रसन्न क्‍यों हैं? किस दोष से हम लोग मुसलमानों से पराभूत हुए?
सत्यानन्द ने कहा- हम लोग जो पराजित हुए, उसका कारण था कि हम निःशस्त्र थे- गोली-बन्दूक के आगे लाठी तलवार भला क्या कर सकता है। अतः हम लोग अपने पुरूषार्थ के न होने से हारे हैं। अब हमारा यही कर्तव्य है कि हमें भी अस्त्रों की कमी न हो। (पृ0 769)

शस्त्रास्त्रों का संग्रह करने के लिए स्वामी सत्यानन्द तीर्थ यात्रा पर निकलने लगे तो भवानन्द ने पूछा- तीर्थयात्रा पर इन चीज़ों का संग्रह आप कैसे करेंगे? सत्यानन्द- यह सब चीज़ें ख़रीदकर लाई नहीं जा सकती हैं। मैं कारीगर भेजूंगा, यहीं तैयारी करनी होंगी। (पृ0 769)

महेन्द्र ने सत्यानन्द से पूछा कि ‘संतानगण ने कहा कि ‘ हम लोग राज्य नहीं चाहते-केवल मुसलमान , भगवान के विद्वेषी हैं- इसलिए उनका समूल विनाश करना चाहते हैं। (पृ0 772)

इसके बाद ये लोग गांव-गांव में अपने गुप्तचर भेजने लगे। पर लोग जहां हिन्दु होते थे, कहते थे,
भाई! विष्णु-पूजा करोगे?’ इसी तरह बीस-पच्चीस सन्तान किसी मुसलमान बस्ती में पहुंच जाते और उनके घर आग लगा देते थे। उनका सर्वस्व लूटकर हिन्दू विष्णु-पूजकों में उसे वितरित कर देते थे। मुसलमानों के गांव भस्म कर राख बनाए जाते। स्थानीय मुसलमान यह सुनकर दल के दल सैनिकों को इनके दमन के लिए भेजते थे। लेकिन उस समय तक संतानगण दलबद्ध, शस्त्रयुक्त और महादंभशाली हो गये थे। उनके तेज के आगे मुस्लिम फ़ौज अग्रसर हो न पाती थी। (पृ0 780)

संतानों के दल के दल उस रात यत्र-तत्र ‘वंदेमातरम्’ और ‘जय जगदीश हरे’ के गीत गाते हुए घूमते रहे। कोई शत्रु-सेना का शस्त्र, तो कोई वस्त्र लूटने लगा। कोई मृतदेह के मुँह पर पक्षघात करने लगा,तो कोई दूसरी तरह का उपद्रव करने लगा। कोई गांव की तरफ़ तो कोई नगर की तरफ़ पहुंचकर राहगीरों और गृहस्थों को पकड़कर कहने लगा-‘वन्देमातरम् ’कहो, नहीं तो मार डालूंगा। ’ कोई मैदा-चीनी की दुकान लूट रहा था, तो कोई ग्वालों के घर पहुंचकर हांडी भर दूध ही छीनकर पीता था। कोई कहता- हम लोग ब्रज के गोप आ पहुंचे, गोपियां कहां हैं? उस रात में गांव-गांव में , नगर-नगर में महाकोलाहल मच गया। सभी चिल्ला रहे थे- मुसलमान हार गए, देश हम लोगों का हो गया। भाइयों! हरि-हरि कहो! गांव में मुसलमान दिखायी पड़ते ही लोग खदेड़कर मारते थे। बहुतेरे लोग दलबद्ध होकर मुसलमानों की बस्ती में पहुँचकर घरों में आग लगाने और माल लूटने लगे। अनेक मुसलमान दाढ़ी मुंडवाकर देह में भस्मी रमाकर राम-राम जपने लगे। पूछने पर कहते -हम हिन्दू हैंं(पृ0 800-801)

शरीफ़ मुसलमान कहने लगे- इतने रोज़ बाद क्या सचमुच कुरआन शरीफ़ झूठा (नौज़बिल्लाह) हो गया? हम लोगों ने पांचों वक्त नमाज़ पढ़कर क्या किया, जब हिन्दूओं की फ़तह हुई । सब झूठ है। (पृ0 801)

युद्ध के दौरान अंग्रेज़ कप्तान टॉमस से एक संन्यासिनी कहती है- मैं तुमसे एक बात पूछना चाहती हूँ कि जब हिन्दू-मुसलमानों में लड़ाई हो रही है, तो इस बीच में तुम लोग क्यों बोलते हो?(पृ0 782)

भवानन्द ने युद्ध के दौरान कप्तान टॉमस को पकड़ लिया। भवानन्द ने कहा- कप्तान साहब! मैं तुम्हें मारूंगा नहीं, अंग्रेज़ हमारे शत्रु नहीं हैं। क्यों तुम मुसलमानों की सहायता करने आए? तुम्हें प्राणदान देता हूं, लेकिन अभी तुम बन्दी अवश्य रहोगे। अंग्रज़ों की जय हो, तुम हमारे मित्र हो।(पृ0 796)

स्पष्ट है इस उपन्यास ने हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव को समाप्त करने में योगदान किया और देश विभाजन का एक प्रमुख कारण बना।

-इलियास ‘कुतुबपुरी’
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''वन्दे मातरम्'' पाठ एवं अनुवाद
वन्दे मातरम्!
सुजलां सुफलां मलयजशीतलां
शस्यश्यामलां मातरम्!
शुभ-ज्योत्सना-पुलकित-यामिनीम्
फुल्ल-कुसुमित-द्रमुदल शोभिनीम्
सुहासिनी सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम्!
सन्तकोटिकंठ-कलकल-निनादकराले
द्विसप्तकोटि भुजैर्धृतखरकरबाले
अबला केनो माँ एतो बले।
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं
रिपुदल वारिणीं मातरम्!
तुमि विद्या तुमि धर्म
तुमि हरि तुमि कर्म
त्वम् हि प्राणाः शरीरे।
बाहुते तुमि मा शक्ति
हृदये तुमि मा भक्ति
तोमारइ प्रतिमा गड़ि मंदिरें-मंदिरे।
त्वं हि दूर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमल-दल विहारिणी
वाणी विद्यादायिनी नवामि त्वां
नवामि कमलाम् अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलां मातरम्!
वन्दे मातरम्!
श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम्
धरणीं भरणीम् मातरम्।
(साभारः आनन्द मठ् पृ0 60, राजकमल प्रकाशन,संस्करण तृतीय, 1997)
अनुवाद
1.
हे माँ मैं तेरी वन्दना करता हूँ
तेरे अच्छे पानी, अच्छे फलों,
सुगन्धित, शुष्क, उत्तरी समीर (हवा)
हरे-भरे खेतों वाली मेरी माँ।
2.
सुन्दर चाँदनी से प्रकाशित रात वाली,
खिले हुए फूलों और घने वृ़क्षों वाली,
सुमधुर भाषा वाली,
सुख देने वाली वरदायिनी मेरी माँ।
3.
तीस करोड़ कण्ठों की जोशीली आवाज़ें,
साठ करोड़ भुजाओं में तलवारों को
धारण किये हुए
क्या इतनी शक्ति के बाद भी,
हे माँ तू निर्बल है,
तू ही हमारी भुजाओं की शक्ति है,
मैं तेरी पद-वन्दना करता हूँ मेरी माँ।
4.
तू ही मेरा ज्ञान, तू ही मेरा धर्म है,
तू ही मेरा अन्तर्मन, तू ही मेरा लक्ष्य,
तू ही मेरे शरीर का प्राण,
तू ही भुजाओं की शक्ति है,
मन के भीतर तेरा ही सत्य है,
तेरी ही मन मोहिनी मूर्ति
एक-एक मन्दिर में,
5.
तू ही दुर्गा दश सशस्त्र भुजाओं वाली,
तू ही कमला है, कमल के फूलों की बहार,
तू ही ज्ञान गंगा है, परिपूर्ण करने वाली,
मैं तेरा दास हूँ, दासों का भी दास,
दासों के दास का भी दास,
अच्छे पानी अच्छे फलों वाली मेरी माँ,
मैं तेरी वन्दना करता हूँ।
6.
लहलहाते खेतों वाली, पवित्र, मोहिनी,
सुशोभित, शक्तिशालिनी, अजर-अमर
मैं तेरी वन्दना करता हूँ।

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राष्ट्रीयता के प्रश्न पर चर्चा करेगा अब ‘‘रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा’’ aziz-burney-final-shots-vande-matram

राष्ट्रीयता के प्रश्न पर चर्चा करेगा अब ‘‘रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा’’ aziz-burney-final-shots-vande-matram

रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के सम्पादक के रूप में मुझे भी इस बहस में शामिल होने की आवश्यकता पेश आएगी। बहरहाल आज का कड़वा सच यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर यह बहस जारी है और हमने इस बहस को अंतिम चरण तक पहुंचाने के इरादे से इसमें शामिल होना स्वीकार कर लिया है। 
AZIZ BURNEY ---- Group Editor Roznama Rashtriya Sahara (Daily) Bazme Sahara (Weekly) Aalmi Sahara (Monthly)
पहली कडी
इस समय मैं केवल एक लेखक, एक पत्रकार या एक सम्पादक की हैसियत से ही स्वयं को नहीं देख रहा हूं, और इस समय मैं स्वयं को बस एक मुस्लिम प्रतिनिधि के रूप में भी नहीं महसूस कर रहा हूं, बल्कि मेरी इस बात को एक निष्पक्ष रिसर्च इस्कोलर के शोध पर ही आधारित समझें तो किसी सही नतीजे पर पहुंच सकेंगे। आज का यह लेख निःसन्देह मेरे नियमित पाठकों के लिए लिये तो है ही परन्तु साथ में इस लेख के द्वारा अपने हमवतन भाई बहनों का ध्यान भी आकर्षित करना चाहता हूं इसलिए कि मेरे सामने राष्ट्रीय चिन्ह पर लिखी वह पंक्ति है जिस पर दर्ज है ‘‘सत्यमेव जयते’’ अर्थात सच्चाई की जीत होती है।
अतः मुझे पूर्ण विश्वास है कि इंशाअल्लाह जीत सच्चाई की ही होगी, बस इसे सलीके और बुद्धिमानी के साथ पेश किये जाने की आवश्यकता है। हम मानते हैं कि पत्थर पर लिखी यह वह पंक्ति है जो भारत की सोच का आइना है। यही कारण है कि मैं राष्ट्रीय प्रतीक पर लिखे गये इन दो शब्दों को ही कसौटी मानकर अपनी बात समस्त भारतीयों की सेवा में पेश करने जा रहा हूं और यह निर्णय उन पर छोड़ता हूं कि राष्ट्रगीत वन्दे मात्रम के मामले में अभी तक जो दृष्टिकोण बना हुआ है क्या उस पर नये सिरे से चिन्तन मनन की आवश्यकता है या नहीं? इस बात को छोड़ दें कि यह आपत्ति मुसलमानों की तरफ से की जाती रही है।

इस बात को छोड़ दें कि 6 वर्ष पहले भारत के गौरवशाली शिक्षा संस्थान दारउल उलूम देवबन्द ने इसके गाये जाने को अनुचित ठहराया है। इस बात को छोड़ दें कि जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के 30वें अधिवेशन में पेश किये गये प्रस्तावों में दारउल उलूम देवबन्द के फतवे का समर्थन किया गया है। अब बात हो तथ्यों की रोशनी में, ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के हवालों के साथ, केवल भावनाओं की दुहाई देकर नहीं! मेरे सामने इस समय कुछ महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं और जो पहला दस्तावेज़ है वह है बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय का नोवेल ‘‘आनन्द मठ’’।

मैं इसका एक-एक शब्द आरंभ से अंत तक न केवल पढ़ चुका हूं बल्कि ध्यानपूवर्क अध्ययन कर चुका हूं और अभी भी यह मेरे अध्ययन में है, इसलिए कि मैं अब केवल वह ही नहीं पढ़ रहा हूं, जो शब्दों में लिखा गया है बल्कि अब वह भी पढ़ने का प्रयास कर रहा हूं, जिसे लिखा तो नहीं गया, मगर एक संदेश के रूप में पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास किया गया है।

इसके कुछ वाक्य मैं आज भी अपने पाठकों की सेवा में पेश करने जा रहा हूं और इस निवेदन के साथ कि ‘‘आनन्द मठ’’ के यह वाक्य हम सब अपने हमवतन भाईयों के सामने भी ससम्मान अवश्य रखें और उनसे निवेदन करें कि कृप्या इन्हें ईमानदारी की कसौटी पर परखें, उपन्यासकार की मानसिकता का अन्दाज़ा करें, फिर वन्दे मात्रम पर बात करें, उसके राष्ट्रगीत होने पर गौर करें, मुसलमानों की आपत्ति के कारण को समझें, तब सम्भवतः हम राष्ट्रहित में किसी नतीजे पर पहुंच सकें।

‘‘आनन्द मठ’’ के पृष्ठ-77 पर तीसरी और चैथी पंक्ति में लिखा हैः
‘‘हम राज्य नहीं चाहते- हम केवल मुसलमानों को भगवान का विद्वेषी मानकर उनका वंश-सहित नाश करना चाहते हैं।’’पृष्ठ-88-89 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय ने अपने उपन्यास ‘‘आनन्द मठ’’ में लिखा हैः
‘‘भवानंद ने कह दिया था, ‘‘भाई, अगर किसी घर में एक तरफ मणि-मणिक्य, हीरक, प्रवाल आदि देखो और दूसरी तरफ टूटी बंदूक देखो तो मणि-मणिक्य, हरिक और प्रवाल छोड़कर टूटी बंदूक ही लेकर आना।’’

इसके अलावा उन्होंने गांव-गांव में खोजी दस्ते भेजे। खोजी लोग जिस गांव में हिन्दू देखते, कहते, ‘‘विष्णुपूजा करोगे?’’ यह कहकर 20-25 आदमी साथ लेकर मुसलमानों के गांव में आते और उनके घरों में आग लगा देते। मुसलमान प्राण-रक्षा के लिए भागमभाग करते। सन्तान उनका सब कुछ लूटकर नए विष्णु-भक्तों में वितरित कर देते। लूट का माल पाकर ग्रामीण लोग बेहद खुश हो जाते तो उन्हें मंदिर में लाकर सन्तान बनाया जाता। लोगों ने देखा, सन्तान बनने में खूब लाभ है। खासकर सभी मुसलमान-राज्य की अराजकता तथा अकुशल शासन के कारण परेशान हो उठे थे।

हिन्दू-धर्म के विलोप होने से अनेक हिन्दू हिन्दुओं की पुनस्र्थापना के लिए आग्रहशील थे। अतएव दिन-ब-दिन सन्तानों की संख्या में वृद्धि होने लगी। हर दिन सौ-सौ, हर माह हज़ारो हज़ारों सन्तानें भवानंद-जीवानंद के चरणों को स्पर्श करने आ पहुंचती, दलबद्ध होकर वे दिग-दिगन्त से मुसलमानों को शासन करने से बेदखल करने लगी। जहां वे राजपुरूष पाते उन्हें पकड़ कर उनकी मारपीट करते। कभी-कभी उनकी हत्या तक कर देते। जहां वे सरकारी रूपया पाते, लूटकर उसे घर ले आते। जहां मुसलमानों का गांव पाते, आग लगाकर उसे भस्मीभूत कर देते।

यह विद्रोह देखकर तब स्थानीय राजपुरूषों ने सन्तानों को शासित करने के वास्ते भारी मात्रा में सेना भेजनी शुरू कर दी। मगर अब सन्तान लोग दलबद्ध थे, सशस्त्र थे और महापराक्रमी व अनुशासित थे। उनके दर्प के आगे मुसलमानों की सेना आगे नहीं बढ़ पाती। यदि आगे बढ़ती तो अमित अल के साथ सन्तान उनके ऊपर टूट पड़ती और उन्हें छिन्न-भिन्न करके हरि-ध्वनि का शोर गुंजा देती। यदि कभी किसी सन्तान सेना को यवन-सेना पराजित कर देती तो न जाने कहां से सन्तानों का एक दल आ धमकता और विजेताओं का सिर काटकर फेंक देता और हरि-ध्वनि करता हुआ चला जाता। इस समय में कीर्तिमान्य भारतीय अंग्रेज़-कुल के प्रातः सुर्य वारेन हेस्टिंग साहब भारतवर्ष के गवर्नर जनरल थे।

‘‘आनन्द मठ’’ के पृष्ठ-111 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय लिखते हैं:
‘‘भाई ऐसा भी दिन कभी नसीब में आएगा कि मस्जिद तोड़कर राधा-माधव का मन्दिर बना सकूं?’’
दस हज़ार नर-कंठों का कल-कल रत्र, मधुर वायु से संताड़ित वृक्षों के पत्तों का गर्मर स्वर, रेतीले तटों में बहती नदी की मृदुल सर्र-सर्र ध्वनि, नील आकाश में चन्द्रमा की आभार श्वेत मेघ-राशि, श्यामल धरणी-तले हरित कानन, स्वच्छ नदी, सफेद रेतीले कण, खिले हुए पुष्प! और बीच-बीच में समवेत स्वर में ‘‘वंदे मातरम’ की गूंज।’’

पाठकगण मेरे हमवतन भाईयों सहित आसानी से यह महसूस कर सकते हैं कि वन्दे मात्रम की यह गूंज किस बात की ओर इशारा करती थी। क्या मुसलमानों के नरसंहार के बाद यह जीत का नारा नहीं था? क्या मुसलमानों की मस्जिदों को तहस-नहस करने के बाद यह सफलता के जश्न का संकेत नहीं था?

एक और पैराग्राफ पाठकों की सेवा में:

‘‘आनंद मठ’’ के पृष्ठ-127 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय लिखते हैंः

‘‘उस एक रात में ही गांव-गांव और नगर-नगर में महाकोलाहल मच गया। सभी कह रहे थे ‘‘मुसलमान हार गए, देश दुबारा हिन्दुओं का हो गया है। सभी एक बार मुक्तकण्ठ में हरि-हरि बोलो।’’ गांव के लोग मुसलमान को देखते ही उसे मारने को दौड़ते। कोई-कोई उस रात दल बनाकर मुसलमानों के मुहल्ले में गया और उनके घरों में आग लगाकर सर्वस्व लूटने लगा। कई यवन मारे गए। अनेक मुसलमानों ने दाढ़ी मुंडवा ली और बदन पर मिट्टी मलकर हरिनाम का जाप करना शुरू कर दिया। पूछने पर कहते, ‘‘हम हिन्दू हैं।’’ दल के दल मुसलमान नगर की ओर भागने लगे।

और अब इस नोवेल का अंतिम पैराग्राफ एक बार फिर पाठकों की सेवा में, ताकि समझा जा सके कि इस नाविल के लिखने के पीछे बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय की मानसिकता क्या थी और वन्दे मात्रम से उनका मूल उद्देश्य क्या था।

‘‘सत्यानन्द ने जवाब दिया, ‘‘चलिए, मैं तैयार हूं। मगर हे महात्मन, मेरा एक संदेह दूर कीजिए। मैंने जिस पल युद्ध में जीतकर सन्तान-धर्म को निष्कंटक किया, उसी समय से मुझे प्रत्याख्यान का आदेश क्यों?’’

जो आए थे, वे बोले, ‘‘तुम्हारा कार्य सिद्ध हो गया, मुसलमानों का राज्य ध्वस्त हो गया। अब तुम्हारा और कोई काम नहीं। अनर्थक प्राणिहत्या की क्या ज़रूरत।’’

‘‘मुसलमानों का राज्य ध्वस्त हो गया, मगर हिन्दुओं का राज्य तो स्थापित नहीं हुआ। अब भी कलकत्ता में अंग्रेज़ों का राज्य है।

‘‘हिन्दुओं का राज्य अभी स्थापित नहीं होगा- तुम्हारे रहने से अनर्थक नर-हत्या होगी। इसलिए चलो...’’सुनकर सत्यानन्द तीव्र मर्मपीड़ा से कातर हो गए। बोले, ‘‘हे प्र्रभू। अगर हिन्दुओं का राज्य स्थापित नहीं होगा तो किसका राज्य होगा? क्या फिर मुसलमानों का राज्य होगा।वे बोले, ‘‘नहीं, अब अंग्रेज़ों का राज्य होगा। ’’

अब अंत में चन्द पंक्तियां सम्मान के साथ अपने उन भाईयों की सेवा में जिन्होंने वन्दे मात्रम की वकालत करते हुए उस के गाये जाने को राष्ट्रीय दायित्व बताने का प्रयास किया है। इस बात को छोड़ दें कि वह हिन्दु है या मुसलमान, क्या उन्होंने बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय के इस नोवेल को पढ़ा है? क्या उन्होंने बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय के जीवन का अध्ययन किया है?

क्या इस उपान्यास के पीछे छुपे उद्देश्य को समझा है? अगर ऐसे हर प्रश्न का उत्तर हां है और फिर भी उनका निर्णय वही है तो फिर मुझे उन लोगों से कुछ नहीं कहना, मगर न्यायप्रिय भारतीयों से अवश्य कहना है कि भारत का हर एक मुसलमान हमारे राष्ट्रीय ध्वज को स्वीकार करता है, इस पर कोई बात नहीं करता, राष्ट्र चिन्ह को दिल की गहराई से स्वीकार करता है कोई बहस नहीं करता, राष्ट्रगान जन गण मन गाने पर गर्व अनुभव करता है।

किसी को कोई आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय पंचाग अर्थात कलंडर का कोई विरोध नहीं। राष्ट्रीय पशु के रूप में शेर को स्वीकार करने पर कोई आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय पक्षी मोर को स्वीकार करने पर कोई बहस नहीं, राष्ट्रीय पुष्प अगर कमल है तो है, किसी को आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय वृक्ष का तम्ग़ा यदि बरगद के पास है तो यह भी स्वीकार है, राष्ट्रीय फल आम खुशी से स्वीकार है........फिर अगर इन सब के बीच केवल राष्ट्रगीत वन्दे मात्रम पर ही आपत्ति है तो आपत्ति के कारण को भी समझना होगा, ऐसे तमाम कारणों को वास्तविकता के आइने में देखना होगा, पूरी ईमानदारी के साथ राष्ट्रीय हितों, साम्प्रदायिक सौहार्द के महत्व को महसूस करते हुए कोई निर्णय लेना होगा।

मैं आज भी नहीं कहता कि वन्दे मात्रम गाया जाये या न गाया जाये, मैं तो पहले राष्ट्रीय स्तर पर तमाम तथ्यों को जनता के सामने रख देना चाहता हूं और फिर निवेदन वतन के जिम्मेदारों से यह करना चाहता हूं कि अगर यह बहस छिड़ ही गई है तो दोबारा इस पर गौर करें और किसी ऐसे नतीजे पर पहुंचे कि जिससे न किसी की भावनाएं आहत हों, न किसी को शर्मिन्दगी का अहसास हो और न किसी की आस्था को ठेस पहुंचे। यह समय की एक अहम आवश्यकता भी है और वतन से मोहब्बत का तकाज़ा भी......

-----आज बात राष्ट्रीयता पर। रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा का सम्पादक हूं मैं और वो भी पहले ही दिन से, इसलिए यह अधिकार तो बनता है मेरा, ‘‘राष्ट्रीयता’’ शब्द पर बात करने का। वैसे भी मैं अपने आपको पूरी तरह राष्ट्रीय मानता हूं। यहां मुसलमान होने की तुलना की जाने की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है, वह धर्म है मेरा और यह राष्ट्रीयता है मेरी। बहरहाल 1991 में जब ‘राष्ट्रीय सहारा’ आरम्भ हुआ तब हिन्दी के बाद उर्दू में नाम राष्ट्रीय सहारा ही रहे या राष्ट्रीय शब्द का उर्दू अनुवाद अर्थात ‘‘क़ौमी सहारा’’ रखा जाए, यह तय किया जाना था। परम आदरणीय सुब्रत राय सहारा अर्थात सहारा श्री जी ने यह निर्णय हम पर छोड़ते हुए कहा कि आप बताएं क्या उचित रहेगा?


उस समय यह मेरा ही फैसला था जिसे चेयरमैन साहब व अन्य सभी के द्वारा स्वीकार कर लिया गया और इस तरह तय पाया कि उर्दू में नाम ‘‘राष्ट्रीय सहारा’’ ही रहेगा। आज हमारी अंग्रेज़ी पत्रिका ‘सहारा टाइम’ और टीवी चैनल ‘सहारा समय’ के नाम से पहचाने जाते हैं लेकिन उर्दू ‘‘रोजनामा राष्ट्रीय सहारा’’ के नाम से ही। उस समय मुझे यह बिल्कुल अनुमान नहीं था कि 18 वर्ष बाद जब राष्ट्रीय गीत ‘‘वंदे मातृम’’ पर बहस छिड़ी होगी तो रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के सम्पादक के रूप में मुझे भी इस बहस में शामिल होने की आवश्यकता पेश आएगी। बहरहाल आज का कड़वा सच यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर यह बहस जारी है और हमने इस बहस को अंतिम चरण तक पहुंचाने के इरादे से इसमें शामिल होना स्वीकार कर लिया है।
दूसरी कडी
दारूल उलूम देवबन्‍द का सवाल कितना उचित कितना अनुचित ?
सबसे पहले तो मैं अपने तमाम पाठकों और देशवासियों की सेवा में यह निवेदन करना चाहता हूं कि वंदे मातृम की स्वीकार्यता या उसके गाए जाने को किसी धर्म की पृष्ठ भूमि में देखना उचित नहीं होगा, बल्कि इसे राष्ट्रीय परिदृश्य में देखना होगा, राष्ट्र प्रेम के दृष्टिकोण से देखना होगा और यह भी दिमाग में रखना होगा कि इस पर आपत्ति केवल मुसलमानों की तरफ़ से ही नहीं बल्कि स्वयं राबिन्दर नाथ टैगोर जिनकी रचना को राष्ट्रगान होने का सम्मान प्राप्त है। और जिन्होंने इसकी पहली दो पंक्तियों को 1896 में गाया था। उन्होंने इस पर आपत्ति भी जाहिर की थी, और इस आपत्ति में वह अकेले नहीं थे, बल्कि ‘‘ब्रह्मो समाज’’ से संबंध रखने वाले हिन्दू भद्रजन भी मुसलमानों के साथ-साथ आपत्ति करने वालों में शामिल थे।

निःसंदेह कि अब मेरा यह श्रृंखलाबद्ध लेख ‘‘वंदे मातृम’’ पर केन्द्रित है जिसे राष्ट्रगीत क़रार दिया गया है परन्तु मैं आज उन तमाम राष्ट्रीय प्रतीकों से अपनी बात शुरू करना चाहता हूं जिन्हें राष्ट्रीय प्रतीक का स्थान प्राप्त है। अतएव सबसे पहले ‘‘राष्ट्रीय ध्वज’’ की बात करना चाहूंगा। हमारे राष्ट्रीय ध्वज में तीन अलग-अलग रंग की सीधी पट्टियां हैं, जिनमें समान अनुपात में गहरा केसरिया रंग सबसे ऊपर है, बीच में सफ़ेद और सबसे नीचे हरा। सफ़ेद पट्टी के बीच में नीले रंग का चक्कर, जिसे अशोक के चक्र से लिया गया है, जिसमें 24 तीलियां हैं, इसे राष्ट्रीय ध्वज की हैसियत से 22 जुलाई 1947 को अपनाया गया।

यूं तो रंगों का कोई धर्म नहीं होता फिर भी रंगों को धर्मों की पहचान से जोड़ कर भी देखा जाता है और इस दृष्टि से अगर देखें तो हरे रंग को मुसलमानों से और केसरिया रंग को हिन्दुओं से जोड़ कर देखा जाता है। जिस समय हमारे राष्ट्रीय ध्वज को स्वीकार किया गया क्या मुसलमानों ने इस बात पर आपत्ति की कि हरा रंग सबसे नीचे क्यों है? स्वाधीनता की लड़ाई में हम किसी से पीछे तो न थे और क्या इस बात पर आपत्ति की गई कि भगवा रंग सबसे ऊपर क्यों है? क्या किसी ने कहा कि चलो सफ़ेद रंग जो अमन व शान्ति का प्रतीक है उसे ही सबसे ऊपर रखा जाए, या झंडे की शक्ल कुछ ऐसी हो कि केसरया और हरा रंग बराबरी के महत्व के साथ शामिल किए जाएं न कोई ऊपर न कोई नीचे, शायद नहीं।

यह भी ध्यान में रहे कि जिस समय अर्थात 22 जुलाई 1947 को इसे हमारे राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार किया गया उस समय तक पाकिस्तान अस्तित्व में नहीं आया था, अर्थात यह राष्ट्रीय ध्वज सभी के लिए स्वीकार्य था, सभी की रज़ामंदी से स्वीकार किया गया था, अर्थात इस निर्णय में पंडित जवाहर लाल नेहरू भी शामिल थे सरदार पटेल भी और मुहम्मद अली जिन्ना भी और बात केवल एक जिन्ना की नहीं, बल्कि वह समस्त मुसलमान भी शामिल थे जो बाद में पाकिस्तान के नागरिक कहलाए, किसी को भी इस ध्वज पर कोई आपत्ति नहीं थी।

अब बात राष्ट्रीय चिन्ह की- हमारा राष्ट्रीय चिन्ह जो कि अशोक के सिंह इस्तम्भ, शेरों वाली लाठ से लिया गया है, जिसमें चार शेर एक दूसरे की ओर पीठ किए हुए हैं, नीचे घण्टे की शक्ल के पदम के ऊपर एक चित्र, वल्लरी में एक हाथी चैकड़ी भरता हुआ, एक घोड़ा, एक सांड और एक शेर की उभरी हुई मूर्तियां हैं इसके बीच-बीच में चक्र बने हुए हैं जो लोहे के पत्तल को काट-काट कर बनाए गए हैं। संग स्तम्भ के ऊपर धर्म चक्र रखा हुआ है। इसमें केवल तीन शेर दिखाए देते हैं चैथा दिखाई नहीं देता, पट्टी के बीचों-बीच उभरी हुई नक्काशी में चक्कर है जिसके दाईं ओर एक सांड और बाईं ओर एक घोड़ा है। दाएं और बाएं किनारों पर अन्य चक्करों के किनारे हैं। भारत सरकार ने इस चिन्ह को 26 जनवरी 1950 को अपनाया

‘‘मंडिकोपनिषद (उपनिषद का नाम) का सूत्र के बाद ‘सत्यमेव जयते’ देवनागरी लिपि में अंकित है जिसका अर्थ है सत्य की ही विजय होती है।’’

इस राष्ट्रीय प्रतीक पर कोई टिप्पणी न करते हुए मैं केवल इतना कहना चाहूंगा कि क्या कोई आपत्ति किसी भी ओर से देखने या सुनने को मिली? किसी इस्लामी संस्था या मुसलमानों के प्रतिनिधियों ने कभी इसे वाद-विवाद का विषय बनाया? शायद कभी नहीं?

यह बात कुछ केन्द्रीय विषय से अलग लग सकती है मगर मैं अपने पाठकों से निवेदन करना चाहता हूं कि इस शुष्क लेख को इसलिए सहन कर लें कि इन पंक्तियों के द्वारा मैं कोई महत्वपूर्ण बात करने का इरादा रखता हूं। शायद इसे उस समय तक नहीं समझा जा सकता जब तक कि बात पूरी न हो जाए। अलबत्ता इरादा क्या है यह मैं शुरू में ही सामने रख देना चाहता हूं ताकि पढ़ने वालों और सुनने वालों की दिलचस्पी बनी रहे इस लेख के अन्तर्गत, मैं इन तमाम प्रतीकों पर बात करना चाहता हूं जिन्हें हम अपना राष्ट्रीय प्रतीक स्वीकार करते हैं जो हमारी राष्ट्रीय निशानियां हैं।

उसके बाद मैं साबित यह करना चाहता हूं कि यदि तमाम राष्ट्रीय निशानियों में से किसी एक पर भी ऐसी आपत्ति देखने को नहीं मिली जैसी कि वंदे मातृम पर देखने को मिल रही हैतो हमें पूरी ईमानदारी से इस पर ध्यान देना होगा कि आख़िर इसका कारण क्या है और हमें इस सच्चाई पर भी ध्यान देना होगा कि हमारी इन सभी राष्ट्रीय निशानियों के से ऐसी कोई भी निशानी नहीं है, सिवाए वंदे मातृम के जहां हमने किन्हीं दो राष्ट्रीय निशानियों को एक ही श्रेणी में रखा हो।

उदाहरणतः हमारा राष्ट्रीय ध्वज एक है तो है, दो राष्ट्रीय ध्वजों को यह सम्मान प्राप्त नहीं है कि हम दोनों को अपना राष्ट्रीय ध्वज मानें। अगर हमारा राष्ट्रीय चिन्ह जिसका अभी उल्लेख किया एक है तो है, जो सभी के लिए स्वीकार्य है, ऐसा नहीं कि हमने दो राष्ट्रीय चिन्ह अर्थात राष्ट्रीय निशान स्वीकार कर लिए हों और दोनों को एक जैसी हेसियत प्राप्त हो, तब फिर ऐसी क्या विवश्ता हमारे सामने आई कि हमारे एक राष्ट्रगान के होते हुए हमें एक और राष्ट्रीय गीत की आवश्यकता महसूस हुई? यह उल्लेख मैं इसलिए कर रहा हूं कि हमने राष्ट्रीय पंचांग अर्थात केलण्डर भी एक ही माना है, जबकि एक से अधिक केलण्डर भारत में आज भी मौजूद हैं और प्रयोग में भी। राष्ट्रीय पशु एक ही है, किसी ने यह बहस नहीं की कि उसके पसंदीदा अन्य किसी पशु को भी राष्ट्रीय पशु का स्थान प्राप्त हो।
राष्ट्रीय पक्षी वह भी एक ही सबको स्वीकार्य है, यहां तक कि राष्ट्रीय फूल, राष्ट्रीय वृक्ष, राष्ट्रीय फल किसी पर न कोई विवाद न बहस न एक साथ दो वृक्ष, दो फूल या दो फल एक जैसे महत्व वाले। अर्थात तमाम राष्ट्रीय प्रतीकों में केवल एक राष्ट्रीय गान और राष्ट्रीय गीत यही दो हैं और इनमें से भी विवाद केवल ‘‘वंदे मातृम पर है और यह विवाद भी इतना कि इसे राष्ट्र से प्रेम की कसौटी बनाकर पेश किया जा रहा है। अगर ऐसा न होता तो सम्भवतः हमारी बहस इतनी लम्बी न होती, मगर अब चूंकि यह राष्ट्रीय स्तर पर बहस का विषय है और हमारे बनाए बिना है तो फिर यह हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है कि तमाम सच्चाइयों के साथ इसे राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय परिपेक्ष में राष्ट्र के सामने रख दें फिर जो निर्णय राष्ट्र का।

नोटः आज से हम रोज़ एक ऐसा गीत भी प्रकाशित करने जा रहे हैं जो स्वाधीनता संघर्ष के दौरान लिखा गया और गाया गया ताकि हमारे पाठक अनुमान कर सकें कि किस-किस गीत ने आज़ादी के मतवालों के दिलों में वह स्थिति पैदा की होगी कि हमारी आज़ादी का सपना वास्तविकता में बदल गया और हम गुलामी की ज़ंजीरें तोड़ने में कामयाब हुए, और साथ ही यह भी कि वह आज़ादी के गीत किस-किस ने लिखे और किस-किस भाषा में। हमें यह भी याद रखना होगा कि उस समय वह कौन-कौन सी भाषाएं थीं जो लोकप्रिय थीं और किन-किन भाषाओं में कही जाने वाली बात कितना प्रभाव रखती थी। अगर हमारी बात को समझना ज़रा भी कठिन लगे तो याद करें लता मंगेशकर की आवाज़ में गूंजने वाला यह गीत:

‘‘ऐ मेरे वतन के लोगों! ज़रा आँख में भर लो पानी,
जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कु़रबानी’’।
..............(जारी)
हमारा देस
जग से भला संसार से प्यारा।
दिल की ठन्डक आंख का तारा।
सबसे अनोखा सबसे नियारा।
दुनिया के जीने का सहारा।
प्यारा भारत देस हमारा।।
इसके दरया, इसके समुन्दर।
इसके संगम, इसके बंदर1।
प्रेम की मूरत, प्रीत का मंदर।
हुस्नो मुहब्बत का गहवारा2।
प्यारा भारत देस हमारा।।
कितनी पुर क़ैफ़3 इसकी अदाएं।
कितनी दिलकश इसकी फ़िज़ाएं।
मुश्क से बढ़कर इसकी हवाएं।
ख़ुल्द4 से बेहतर इसका नज़ारा।
प्यारा भारत देस हमारा।।
मुल्क को हासिल हो आज़ादी।
ख़त्म हो दौरे सितम ईजादी5।
दूर हो इसकी सब बरबादी।
चर्ख़े6 पे चमके बन के तारा।
प्यारा भारत देस हमारा।।
हम में पैदा हो यक जाई।
सब हों बाहम भाई भाई।
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई।
गाएं मिलकर गीत यह प्यारा।
प्यारा भारत देस हमारा।।
हकीम मोहम्मद मुस्तफा ख़ां
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हमारे राष्ट्रीय प्रतीक हिन्दू धर्म के प्रतीक भी हैंक़ुरआने करीम पूर्ण जीवन दर्शन है, मानव जीवन के लिए। विश्व की कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे क़ुरआने करीम की रोशनी में समझा न जा सके। आयाते क़ुरआनी को समझना जब हमारे लिए मुश्किल होता है तो हम हदीस की तरफ़ लौटते हैं और जब कोई हदीस समझ से ऊपर होती है तो हम क़ुरआन की तरफ़ लौटते हैं। क़ुरआने करीम के द्वारा ईश्वर ने क्या संदेश दिया है इसे समझने के लिए कभी-कभी केवल आयाते क़ुरआनी को पढ़ लेना ही पर्याप्त नहीं होता बल्कि हमें अनुवाद, टीकाऐं और उसके उतरने के कारण का भी सहारा लेना पड़ता है। जब हम इस दृष्टिकोण से ध्यान पूर्वक अध्य्यन कर लेते हैं तब उस संदेश तक पहुंचना बहुत सरल हो जाता है।यही कार्य पद्धति यदि हम विश्व के सभी मामलों में गूढ़ समस्याओं को सुलझाने के लिए व्यवहार में लाएं तो इस पवित्र आकाशीय पुस्तक का प्रकाश हर दृष्टिकोण से हर पक्ष को स्पष्ट कर देता है। ‘वन्दे मातरम’ भारतीय समाज के लिए पिछले लम्बे समय से अनसुल्झी पहेली बना हुआ है। अक्सर इस पर विवाद खड़ा हो जाता है, लम्बी बहस चलती है, फिर लोग थक जाते हैं, नई समस्याऐं अपनी ओर ध्यान केन्द्रित कर लेती हैं और यह समस्या पीछे चली जाती है। आज़ादी के पूर्व से लेकर अब तक इसी प्रकार यह सिलसिला जारी है।यदि दारूल उलूम बेवबंद की गरिमा को निशाना न बनाया जाता तो शायद हमें इतनी गहराई से शोध की आवश्यक्ता पेश न आती। परन्तु अब जबकि देशवासियों के एक वर्ग विश्ेष ने देशप्रेम का पैमाना वन्दे मातरम को ही मान लिया है तो हमें ज़रूरी लगा कि क़ौम के दामन पर दाग़ लगाने की इस कोशिश को असफ़ल बनाने के लिए पूरी ईमानदारी के साथ तमाम तथ्यों को भारत सरकार और जनता के सामने रख दिया जाये। मैं फिर यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि वन्दे मातरम के सम्बंध में मेरे लेख न तो इसके विरोध में हैं और न इसके समर्थन में। हमारा प्रयास तो बस इतना है कि हम सब तमाम सच्चाइयों को खुली आंखों से देख लें फिर जिसकी सद्बृद्धि जो उचित समझे.कोई भी बात कब कही गई, किन परिस्थितियों में कही गई, किस काल में कही गई और किस अवसर पर कही गई, जब तक हम इसका अध्य्यन नहीं करेंगे, बात की गहराई तक पहुंचना आसान नहीं होगा। राष्ट्र गीत की हैसियत रखने वाले वन्दे मातरम पर बहस आरम्भ करने के तुरन्त बाद मैंने आवश्यक समझा कि इस ऐतिहासिक परिदृश्य की ध्यान पूर्वक विवेचना की जाये, कि जब इसे लिखा गया वह परिस्थितियाँ किया थीं? लिखने का कारण क्या था? काल क्या था और कब इसे ‘राष्ट्र गीत’ का दर्जा दिया गया? साथ ही हमारी राष्ट्रीय पहचान से सम्बद्ध जितनी भी निशानियाँ हैं उनका भी गहराई से अध्य्यन किया जाये।
यह भी देखा जाये कि केवल राष्ट्र गीत ही दो हैं या हमारी अन्य राष्ट्रीय निशानियाँ भी दो-दो हैं फिर जब हम किसी एक का चुनाव करते हैं तो हमारी नज़र इस वर्ग में आने वाली अन्य अनेक चीज़ों पर भी होती है, उदाहरण स्वरूप मैं अपने लेख के साथ पिछले कई दिन से एक-एक कविता भी प्रकाशित कर रहा हूँ। यह कविता, गीत, तराना या आज की लोरी सब के सब स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन कविगण द्वारा लिखे गए जिनमें हिन्दू और मुसलमान दोनों का काव्य है, जो स्वतंत्रता सैनानियों के उत्साह को बढ़ाने के इरादे से लिखी गयीं।
आज इस लेख के साथ प्रकाशित की जाने वाली लोरी मोहतरम अख़तर शीरानी की कृति है और इसकी सबसे बड़ी विशेषता मुझे यह लगी कि इस दौर में एक माँ अपने अल्पायु बच्चे को नींद की गोद में पहुंचने से पूर्व भी उसे देशभक्ति का गीत सुनाती थी और उसके मन व मस्तिष्क में वह उत्साह पैदा करती थी कि वह अपने देश की स्वतंत्रता को अपने जीवन का उद्देश्य बनाकर जीवन बिताये। यह भावना थी हमारे शायरों की और यह वह गीत हैं जिनसे घबरा कर अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें ज़ब्त कर लिया था। इसलिए कि वह समझते थे कि उनका प्रभाव इतना गहरा है कि उनकी सरकार की चूलें हिल सकती हैं। मुझे नहीं मालूम कि क्या ‘वन्दे मातरम्’ भी अंग्रेज़ सरकार द्वारा ज़ब्त किया गया?
शोध जारी है, वैसे भी अभी मैंने सीधे रूप में वन्दे मातरम् पर बहस का सिलसिला शुरू नहीं किया है, हां अल्बत्ता आनन्द मठ के कुछ हवाले ज़रूर पेश किये हैं। इन्शा अल्लाह जल्द ही तमाम विस्तार के साथ इस पर भी क़ल्म उठाया जायेगा। अभी तक तो राष्ट्रीय प्रतीकों पर बातचीत जारी थी, इनमें से जिन तीन का उल्लेख शेष रह गया आज उस पर बात समाप्त करना चाहता हूँ और वह तीन प्रतीक हैं हमारा राष्ट्रीय फल, राष्ट्रीय फूल और राष्ट्रीय वृक्ष।हमारा राष्ट्रीय फल ‘आम’ है वेदों में आम को भगवान का फल बताया गया है, मैं इस पर कोई बहस नहीं करना चाहता, मिर्ज़ा ग़ालिब को भी आम बहुत पसन्द थे और शायद सभी भारतियों की पहली पसन्द भी आम हैं। हां फूल पर कुछ वाक्य अवश्य लिखना चाहेंगे। ‘कमल’ के फूल को भारत मंे प्राचीन काल से ही पवित्र माना जाता रहा है और भारतीय देवमाला में इसे विशेष स्थान प्राप्त है। हिन्दू धर्म के अनुयाइयों के लिए यह फूल विशेष महत्व रखता है। इस धर्म के अनुसार कमल को भगवान विष्णु, ब्रह्मा, लक्ष्मी और पार्वती से जोड़ा जाता है। भगवान विष्णु के सौन्र्दय का उल्लेख करने के लिए कमल से उनको उपमा दी जाती है, अनेक धार्मिक रीतियों को पूरा करने में भी कमल के फूल का प्रयोग किया जाता है।वेदों में भी कमल का उल्लेख मिलता है। सम्भव है कि इन्ही विशेषताओं के आधार पर भारतीय जनता पार्टी ने इसे अपना चुनाव चिन्ह चुना है। अन्यथा पण्डित जवाहर लाल नेहरू की शेरवानी पर मुस्कराने वाला गुलाब का फूल भी अपने सौन्र्दय और सुगन्ध के लिए तमाम फूलों में एक विशेष स्थान रखता है और वर्ष में एक दिन ऐसा भी आता है जब प्रेम करने वाले युवा लड़के लड़कियों के द्वारा फूल उनका प्रेम सन्देश बन कर उनके प्रेमी तक पहुंचता है और हमारे लिए तो इसका महत्व यूँ भी बढ़ जाता है कि ख़वाजा ग़रीब नवाज़ (रह।) की दरगाह हर समय इसी गुलाब की सुगन्ध से महकती रहती है और यह फूल तीर्थ स्थल ‘पुष्कर’ से आता है।
बहरहाल अब उल्लेख राष्ट्रीय वृक्ष ‘बरगद’ का। नीम के हवाले से आयुर्वेद और यूनानी दवाइयों के विशेषज्ञ बहुत कुछ कहते हैं, हमारे पूर्वज भी नीम के वृक्ष को आंगन में लगाना स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक समझते हों, यह सब अलग बात है, परन्तु हमारा राष्ट्रीय वृक्ष ‘बरगद’ है। जब मैं बरगद की विशेषताओं का अध्य्यन कर रहा था तो इतनी सामग्री मेरे सामने थी कि कई लेख केवल बरगद के धार्मिक पहलू को सामने रख कर लिखे जा सकते हैं। फल और फूल की दृष्टि से तो बरगद का उल्लेख निरर्थक है, इसलिए कि इस पर लगने वाले फूल और फल उल्लेखनीय नहीं, हां अल्बत्ता इसकी विशालता शेष सभी वृक्षों से बढ़कर है।अब रहा प्रश्न इसे हिन्दू धर्म के महत्व के रूप में देखने का तो प्राचीन काल से ही भारत में इसकी पूजा की जाती रही है। ऋज्ञ वेद और अथर वेद ने इसकी पूजा को अनिवार्य क़रार दिया है। हिन्दू देव माला में भगवान शिव को बरगद के वृक्ष के नीचे बैठा हुआ बताया गया है। हिन्दू धर्म के अनुयायी इसे ‘कल्प वृक्ष’ भी कहते हैं जिसका अर्थ है कि एक ऐसा वृक्ष जो तमाम मुरादों को पूरा करता है। सम्भव है इसका एक कारण यह भी रहा हो कि जब चित्रकूट की ओर जाते हुए सीता जी के रास्ते में यह वृक्ष पड़ा तो उन्होनें इसे नमस्कार किया और अपने पतिव्रत धर्म के पालन के लिए इस वृक्ष से प्रार्थना की। हाथ जोड़ कर सीता जी बहुत देर तक मौन इसके सामने खड़ी रहीं और अपनी मुराद को पूरा करने की प्रार्थना की जिसे संस्कृत के इस श्लोक में दर्शाया गया हैतेषु ते प्लवमुत्सृज्य प्रस्थाय यमुनावनात् ।श्यामं न्यग्रोधमासेदुः शीतलं हरितच्छदम् ।।न्यग्रोधं समुपागम्य वैदेही चाभ्यवन्दत ।नमस्तेऽस्तु महावृक्ष पारयेन्मे पतिव्रतम् ।।
रामायण, अयोध्या काण्ड, 2, पृष्ठ 23-24, 55
‘हे महावट वृक्ष जो यमुना के किनारे स्थित है और शीतल छाया से आच्छादित है, मुझे पतिव्रता धर्म का पालन करने की सार्मथ्य दो और निर्विधनता का आर्शीवाद दो।’और जब बनवास से सीता जी श्रीराम जी के साथ वापस लौट रही थीं तो इस सृन्दर वृक्ष को देख कर श्रीराम जी ने सीता जी को सम्बोधित करके कहा कि तुम ने जिस वृक्ष से प्रार्थना की थी, यह अन्य वृक्षों के बीच इस समय ऐसा ही स्पष्ट नज़र आ रहा है जैसे अनेक नीलमों के बीच पुखराज जड़ा हो। सम्भवतः सही कारण है कि आज भी विवाहित हिन्दू महिलाएं लम्बे और ख़ुशहाल गृहस्थ जीवन के लिए बरगद की पूजा करती हैं।अपने इन राष्ट्रीय चिन्हों के सम्बंध में और भी कुछ लिखा जा सकता है परन्तु हम बात को और लम्बा नहीं करना चाहते, इसलिए कि हमें अब वन्दे मातरम् की तरफ़ लौटना है, हां इतना लिखने के पीछे भी उद्देश्य केवल यह था कि इस खोज से जो सच्चाई सामने आती है उससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि तमाम राष्ट्रीय चिन्हों का चुनाव करते समय हमारे धर्मनिरपेक्ष भारत के भाग्य विधाताओं ने क़दम-क़दम पर एक धर्म विशेष के प्रतिनिधित्व का ख़याल रखा था।
लोरीकभी तो रहम पर आमादा बे रहम आसमाँ होगा।
कभी तो ये जफ़ा पेशा मुक़द्दर मेहरबाँ होगा।
कभी तो सर पे अब्रे रहमते हक़ गुलफ़िशां होगा।
मुसर्रत का समाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
किसी दिन तो भला होगा ग़रीबों की दुआओं का
असर ख़ाली न जाएगा ग़म आलूद इलतिजाओं का।
नतीजा कुछ तो निकलेगा फकीराना सदाओं का।
ख़ुदा गर मेहरबाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।
ख़ुदा रख्खे जवाँ होगा तो ऐसा नौजवाँ होगा।
हुसैन व फ़हमदाँ होगा दिलेरो तैग़रां होगा।
बहुत शीरी जुबाँ होगा बहुत शीरी बयाँ होगा।
यह महबूबे जहाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।
वतन और क़ौम की सौ जान से ख़िदमत करेगा यह।
ख़ुदा की और ख़ुदा के हुक्म की इज़्ज़त करेगा यह।
हर अपने और पराए से सदा उल्फ़त करेगा यह।
हर इक पर मेहरबाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
मेरा नन्हा बहादुर एक दिन हथियार उठाएगा।
सिपाही बनके सूए अर्सा गाहे रज़्म जाएगा।
वतन के दुश्मनों की ख़ून की नहरें बहाएगा।
और आख़िर कामरां होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
वतन की जंगे आज़ादी में जिसने सर कटाया है।
ये उस शैदाए मिल्लत बाप का पुरजोश बेटा है।
अभी से आलमें तिफ़ली का हर अन्दाज़ कहता है।
वतन का पासबां होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
है उसके बाप के घोड़े को कब से इन्तिज़ार उसका।
है रस्ता देखती कब से फ़िज़ाए कारज़ार उसका।
हमेशा हाफ़िज़ो नासिर रहे परवरदिगार उसका।
बहादुर पहलवाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
वतन के नाम पर इक रोज़ यह तलवार उठाएगा।
वतन के दुश्मनों को कुन्जे तुरबत में सुलाएगा।
और अपने मुल्क को ग़ैरों के पंजे से छुड़ाएगा।
ग़ुरूरे ख़ान्दाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
सफ़े दुश्मन में तलवार उसकी जब शोले गिराएगी।
शुजाअत बाज़ुओं में (आग) बन के लहलहाएगी।
जबीं की हर शिकन में मर्गे दुश्मन थरथराएगी।
यह ऐसा तेग़ रां होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
सरे मैदान जिस दम दुश्मन उसको घेरते होंगे।
बाजाए ख़ूं रगों में उसकी शोले तैरते होंगे।
सब उसके हमला ऐ शेराना से मुंह फेरते होंगे।
तहो बाला जहां होगा।
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
अख़्तर शीरानी


देश प्रेमी क्यों न गाएँ वन्दे मातरम् ?

मुस्लिम विद्वानों को बुद्धिद्रोही कहने वाले वैदिक जी खुद ही अवैदिक हैं क्योंकि वेदों मे मूर्तिपूजा और बहुदेववाद नहीं है लेकिन वंदे मातरम् गीत के पाँचवे पद में दुर्गा देवी की उपासना व स्तुति की गई है। पाप का समर्थन क्यों ? नाम के साथ वैदिक लिखने मात्र से ही कोई व्यक्ति वैदिक नहीं बन सकता जब तक कि उसकी सोच भी वैदिक न हो।
वैदिक जी प्रज्ञापराधी भी हैं क्योंकि उन्होंने यह तो बताया कि ‘आनन्द मठ’ के पहले संस्करण में मूल खलनायक ब्रिटिश थे लेकिन उन्होंने यह तथ्य छिपाया है कि उसका लेखक हरेक संस्करण में संशोधन करता रहा। पाँचवे संस्करण तक आते-आते मूल खलनायक मुस्लिमों को बना दिया गया था। यही पाँचवा संस्करण देश-विदेश में प्रचारित हुआ।
वैदिक जी खुद बुद्धिद्रोही क्योंकि यह एक कॉमन सेंस की बात है कि आनन्द मठ के सन्यासी विष्णु पूजा के नाम पर हिन्दुओं को इकठ्ठा करते थे और मुसलमानों की बस्ती में पहुँचकर मुसलमानों को लूटते और क़त्ल करते थे, उनकी औरतों की बेहुरमती करते थे। ऐसे समय पर वे वन्दे मातरम् गाते थे। अपने ऊपर ज़ुल्म ढाने वाले दस्युओं का गीत भला कौन गायेगा ? बुद्धिद्रोही मुस्लिम आलिम हैं या खुद वैदिक जी?
वैदिक जी बुद्धिराक्षस भी हैं क्योंकि मुसलमान आलिमों ने देश की आज़ादी के लिए फाँसी के फंदों पर झूलकर अपनी जानें, क़ुर्बान की हैं बल्कि आज़ादी की लड़ाई का पहला सिपाही एक मदरसे का पढ़ा हुआ आलिम ‘टीपू सुल्तान’ ही था। सन् 1857 की क्रान्ति का नायक बहादुर शाह ज़फ़र भी मुल्ला मौलवियों का ही पढ़ाया हुआ था। आज़ादी की तीसरी लड़ाई भी ‘रेशम रूमाल आन्दोलन’ के नायक शेखुल हिन्द मौलाना महमूद उल हसन के नेतृत्व में लड़ी गई। मौलाना को अंग्रेजों ने माल्टा की जेल में कैद कर दिया। सन् 1920 में उनकी जेल में ही मौत हो गई। मौलाना उबैदुल्लाह सिन्धी, अमीर हबीबुल्लाह व उनके साथी सैकड़ों आलिमों व हज़ारों मुरीदों को अंग्रेजों द्वारा फाँसी पर लटका दिया गया। दारूल उलूम के सद्र शेखुल हिन्द ने ही महात्मा गांधी को लीडर बनाया। वैदिक जी आज जिस आज़ादी की फ़िज़ा में सांस ले रहे हैं अपनी हर सांस में वे मुस्लिम आलिमों के ऋणी हैं लेकिन उन्होंने उनके प्रति दो वचन-सुमन भी अर्पित नहीं किए।
जमीयतुल उलमाए हिन्द मुस्लिम लीग के टोटकों की लाश नहीं ढो रही है जैसा कि उनका विचार है बल्कि एकेश्वरवाद की आत्मा से प्रायः खाली भारतीय जाति के रूग्ण शरीर में ईमान व सत्य के यक़ीन की जान फूंक रही है। जबकि दारूल उलूम का पुतला फूंकने वाले लोग भारतीय समाज की शांति, एकता और तरक्क़ी को जला रहें है। नफ़रतों ने तो वृहत्तर भारत को, जिसमें ईरान आदि तक थे, खण्डित कर दिया तो क्या फिर राजनीतिक संकीर्ण स्वार्थों की खातिर मतान्ध लोग नफ़रतें फैलाकर देश की अखण्डता को खतरे में डालना चाहते हैं?
‘आनन्द मठ उपन्यास हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन पर एक कलंक है। डा0 राम मनोहर लोहिया ने सच ही कहा था। मुसलमानों के साथ-साथ हिन्दुओं को भी इस गीत का विरोध करना चाहिए क्योंकि
1- यह गीत अवैदिक सोच की उपज है।
2- इसे दस्यु लूटमार के समय गाया करते थे।
3- मुसलमानों को मारने काटने का नाम विष्णु पूजा रखकर विष्णु पूजा को बदनाम किया गया है।
4- यह गीत अंग्रेजों के चाटुकार नौकर बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा लिख गया है जिसने न कभी खुद देश की आज़ादी के लिए प्रयास किया और न ही कभी क्रान्तिकारियों की मदद् की।
5- यह गीत अंग्रेजों के वेतनभोगी सेवक और सहायक की याद दिलाता है।
6- यह गीत सन्यासियों के वैराग्य और त्याग के स्वरूप को विकृत करके भारतीय मानवतावादी परम्परा को कलंकित करता है।
इसके बावजूद भी सत्य से आँखें मूंदकर जो लोग वन्दे मातरम् गाना चाहें गायें लेकिन यह समझ लें कि सत्य का इनकार करना ईश्वर के प्रति द्रोह करना और अपनी आत्मा का हनन करना है। ऐसे लोग कल्याण को प्राप्त नहीं करते हैं और मरने के बाद अंधकारमय असुरों के लोक को जाते हैं। वेद-कुरआन यही बताते हैं और मुस्लिम आलिम भी यही समझाते हैं यही सनातन और शाश्वत सत्य है।


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कहो वन्दे ईश्वरम